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पुलवामा के नाम पर वोट लेकर सरकार बनाने वाले मोदी ने क्यों की शहीदों की अनदेखी?

Shiv Kumar Mishra
14 Feb 2020 6:38 AM GMT
पुलवामा के नाम पर वोट लेकर सरकार बनाने वाले मोदी ने क्यों की शहीदों की अनदेखी?
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भागलपुर के जवान रतन ठाकुर के परिजनों को आज तक मुआवज़ा नहीं मिल सका है और न ही उनसे किए गए वादे पूरे हो पाए हैं.

गिरीश मालवीय

पुलवामा हमले को आज एक साल पूरा हो गया, आज से ठीक एक साल पहले कश्मीर के पुलवामा में केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल (CRPF) के 44 जवान एक आत्मघाती हमले में मारे गए थे. जब उन्हें ले जा रही बस को कार से टक्कर मार दी गयी थी कार में भारी मात्रा में विस्फोटक था।

देश को हिला कर रख देने वाले पुलवामा हमले की जांच का चालान एक साल गुजर जाने के बाद भी पेश नहीं हो सका है। हमले की रूपरेखा तो पता चल चुकी है लेकिन व्यक्तिगत तौर पर किस शख्स का क्या रोल था, यह अब तक समझ में नहीं आ रहा। मामले की जांच कर रही एनआईए ने इस हमले में कई लोगों की पहचान की है। एनआईए इस हमले के पाकिस्तान कनेक्शन की तलाश ही कर रही है।लेकिन स्पष्ट रूप से अभी तक कोई बात नही की गई है

इस हमले में सुरक्षा के मोर्चे पर हुई चूक की सबसे बड़ी भूमिका रही है लेकिन मोदी सरकार इस बारे में हमेशा बात करने से बचती आई है दरअसल खुफियां एजेंसियों को इस तरह के हमले का अंदेशा था. मकबूल बट की बरसी को लेकर आतंकियों के बड़ी वारदात की आशंका जताई जा रही थी, आठ फरवरी को इस सिलसिले में एक अलर्ट भी जारी किया गया था. इसमें कहा गया था कि जम्मू-कश्मीर में आतंकवादी आईईडी के जरिये सुरक्षा बलों के काफिले हमला कर सकते हैं और इसलिए सुरक्षा पर ध्यान दिया जाए. लेकिन कोई इंतजाम नही किया गया

हाईवे बंद रहने के कारण जम्मू स्थित ट्रांजिट कैंप में जवानों की भीड़ बढ़ती जा रही थी. ऐसे अलर्ट के मामले में आमतौर पर जवानों को एहतियात बरतते हुए विमान से भेज दिया जाता है बताया जाता है कि 4 फरवरी से बर्फबारी के कारण जम्मू में फंसे सीआरपीएफ के जवानों को भी हवाई मार्ग से श्रीनगर पहुंचने की मंजूरी मांगी गई थी। सीआरपीएफ के अधिकारियों ने इसका प्रस्ताव बनाकर मुख्यालय भेजा था।

अधिकारी एक हफ्ते तक विशेष विमान की मांग करते रहे लेकिन मोदी सरकार ने सीआरपीएफ अधिकारियों के विमान मुहैया करवाने के निवेदन को अस्वीकार कर दिया था इसके बाद ही 2500 जवानों को 78 बसों में सड़क मार्ग से ही भेजने का निर्णय लिया गया. यह काफिला 14 फरवरी को सुबह साढ़े तीन बजे जम्मू से श्रीनगर के लिए रवाना हो गया। दोपहर बाद 3:15 बजे आतंकी हमला हो गया।

एक महत्वपूर्ण बात और है जम्मू-कश्मीर जैसे क्षेत्रों में सुरक्षा बलों के आवागमन के लिए एक तय प्रक्रिया बनी हुई है. उनका काफिला गुजरने से पहले संबंधित इलाके की सुरक्षा के लिए जिम्मेदार रोड ओपनिंग पार्टी यानी आरओपी इसके लिए हरी झंडी देती है. आरओपी में सेना, जम्मू-कश्मीर पुलिस और अर्धसैनिक बलों के जवान शामिल होते हैं. जानकारों के मुताबिक गुरुवार को तड़के साढ़े तीन बजे जम्मू से निकलने से पहले आरओपी ने रास्ते के सुरक्षित होने की हरी झंडी दे दी थी. सवाल है कि इसके बावजूद 60 किलो विस्फोटक से लदी कार लेकर हमलावर हाईवे पर कैसे पहुंच गया. यह भी कि उसे इतना विस्फोटक कहां से मिला? इस बात का भी अभी तक कोई जवाब नही दिया गया है

जो सीआरपीएफ़ के जवान इस हमले में मारे गए उनको आज तक आधिकारिक रूप से शहीद का दर्जा नही दिया गया है एक्शन में मारे जाने वाले अर्धसैनिक बलों के जवान शहीद की श्रेणी में नहीं आते. लेकिन शहीद-शहीद कह के उनके नाम पर वोट खूब मांगे जाते हैं .....बीबीसी की एक रिपोर्ट बताती हैं कि किस प्रकार केंद्र की मोदी सरकार ने पुलवामा के शहीदों की उपेक्षा की है ........

पुलवामा हमले के बाद मारे गए जवानों के परिवारों को आर्थिक मदद पहुंचाने के लिए बने "वीर भारत कोर" फ़ंड में 36 घंटे के भीतर ही सात करोड़ रुपए जमा हो गए थे. आरटीआई के हवाले से यह पता चला था कि अगस्त 2019 तक इस फ़ंड में कुल 258 करोड़ रुपये जमा थे बिहार के शहीद रतन के पिता पूछ रहे है कि "हमें अब सरकार से कुछ नहीं चाहिए. हमने देख लिया उनको. लेकिन सरकार केवल इतना बता दे कि जवानों के नाम पर जमा पैसे का क्या हुआ?"........

पुलवामा हमले में मारे गए 40 जवानों में दो बिहार के भी थे. एक पटना के सटे तारेगना के रहने वाले सीआरपीएफ़ हवलदार संजय कुमार सिन्हा और दूसरे भागलपुर के कहलगांव के रहने वाले सिपाही रतन ठाकुर. हाल ही में ये ख़बर सुर्खियों में रही कि भागलपुर के जवान रतन ठाकुर के परिजनों को आज तक मुआवज़ा नहीं मिल सका है और न ही उनसे किए गए वादे पूरे हो पाए हैं.

इन दावों की सच्चाई जानने के लिए शनिवार को हम रतन कुमार ठाकुर के परिजनों से बात करने उनके घर पहुंचे. रतन की पत्नी, दो बच्चे, पिता, छोटा भाई और बहन. परिवार के सभी लोग इन दिनों भागलपुर शहर के लोदीपुर रोड में एक किराए के मकान में रहते हैं. जिस समय हम रतन के घर पहुंचे थे, उस वक्त सीआरपीएफ़ के सब इंस्पेक्टर जय कुमार भी वहीं मौजूद थे.

जय कुमार सीआरपीएफ़ की तरफ़ से कुछ कागज़ी प्रक्रिया पूरी करने के लिए आए थे.साथ में वह एक चेक भी लाए थे जो एचडीएफ़सी बैंक की ओर से रतन के परिजनों के लिए जारी किया गया था. सीआरपीएफ़ के सब इंस्पेक्टर की मौजूदगी में ही हम रतन के पिता निरंजन ठाकुर से बातचीत करने लगे.

मुआवज़े की बात आने पर रतन के पिता कहते हैं, "सीआरपीएफ़ और बिहार सरकार ने जो घोषणाएं की थीं, वे उन्होंने पूरी कर दी हैं. मगर केंद्र सरकार की ओर से अब तक कुछ नहीं मिला है."वह कहते हैं, "मेरे बेटे ने देश के लिए जान दे दी. हमें बहुत उम्मीद थी कि केंद्र सरकार हमारे लिए कुछ करेगी. बिहार सरकार ने भी केवल मुआवज़े की रकम देकर पीछा छुड़ा लिया. लेकिन एक शहीद के लिए जो किया जाना चाहिए और जिस तरह से किया जाना चाहिए वह बिल्कुल नहीं हो रहा."

रतन कुमार के दो बेटे हैं. बड़े का नाम कृष्ण है जो नर्सरी में पढ़ता है. जब हमला हुआ था, तब छोटा बेटा मां के गर्भ में था.अब वह नौ महीने का हो चुका है. नाम है रामरचित. जब हम रतन के पिता से बात कर रहे थे तभी बड़ा बेटा कृष्ण वहां आ गया.

कुछ भी पूछने पर तपाक से जवाब देता. दादा कहते हैं "बहुत बोलता है." निरंजन ठाकुर हमें रतन की तस्वीरें दिखा रहे थे. कृष्ण को अपने पिता के बारे में ज्यादा नहीं मालूम. उसे सिर्फ इतना पता है कि तस्वीरों में उसके पिता की भी तस्वीरें हैं. तस्वीरें दिखाकर पूछने पर केवल यही बता पाता है कि "ये पापा हैं"

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