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दिल्ली में गुजराती संत स्वामीनारायण और संत रविदास के मंदिर पर दोहरा रवैया क्यों?

Special Coverage News
23 Aug 2019 1:00 PM GMT
दिल्ली में गुजराती संत स्वामीनारायण और संत रविदास के मंदिर पर दोहरा रवैया क्यों?
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एक ही सुप्रीम कोर्ट लेकिन दो मंदिरों को लेकर दो अलग-अलग फैसले। वजह? एक मंदिर को राजनीतिक सत्ता का उच्चस्तरीय संरक्षण हासिल है लेकिन दूसरे मंदिर के साथ ऐसा नहीं है।

अनिल जैन

राजधानी दिल्ली की छाती पर देश का सबसे बडा अतिक्रमण और अवैध निर्माण है अक्षरधाम मंदिर! पूर्वी दिल्ली में यमुना के किनारे करीब 100 एकड भूमि पर गुजराती संत स्वामीनारायण का बना यह स्मारक हर तरह से अवैध और यमुना की बर्बादी में योगदान करने वाला है। दो दशक पहले 1999 में इसके निर्माण की प्रक्रिया शुरू होने से पहले कई पर्यावरण विशेषज्ञों और भारत सरकार के पर्यावरण मंत्रालय ने इस पर सवाल खडे किए थे और इसे खतरनाक प्रोजेक्ट करार दिया था, लेकिन मंदिर की राजनीति के चैंपियन रहे तत्कालीन गृह मंत्री लालकृष्ण आडवाणी के हस्तक्षेप के चलते सारी आपत्तियों और चेतावनियों को नजरअंदाज कर दिया गया।

इसके निर्माण को सुप्रीम कोर्ट में भी चुनौती दी गई। सुप्रीम कोर्ट ने भी पर्यावरणीय चेतावनियों से तो सहमति जताई लेकिन कई तरह के 'किंतु-परंतु' लगाते हुए उसके निर्माण को हरी झंडी दे दी और कहा कि इस निर्माण को नजीर न मानते हुए अपवाद माना जाए।

अब करीब डेढ दशक बाद उसी सुप्रीम कोर्ट ने दक्षिण दिल्ली में तुगलकाबाद स्थित जमीन के एक छोटे से टुकडे पर भक्ति कालीन संत रविदास के दशकों पुराने मंदिर को दिल्ली विकास प्राधिकरण जमीन पर अवैध निर्माण करार देते हुए उसे तोडने के आदेश दे दिए। जबकि जिस समय मंदिर का निर्माण हुआ था तब दिल्ली विकास प्राधिकरण अस्तित्व में ही नहीं था। हालांकि रविदासिया समुदाय के लोगों का दावा है कि यह मंदिर 600 वर्ष पुराना है। इस स्थान पर संत रविदास ने कुछ समय विश्राम किया था, इसीलिए उनकी स्मृति में उनके अनुयायियों ने यहां मंदिर का निर्माण किया का। बहरहाल सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर सरकारी अमले ने मंदिर ढहा दिया है, जिसकी वजह से दिल्ली, हरियाणा, पंजाब और पश्चिम उत्तर प्रदेश के रविदासिया समुदाय के लोग बेहद आंदोलित हैं।

एक ही सुप्रीम कोर्ट लेकिन दो मंदिरों को लेकर दो अलग-अलग फैसले। वजह? एक मंदिर को राजनीतिक सत्ता का उच्चस्तरीय संरक्षण हासिल है लेकिन दूसरे मंदिर के साथ ऐसा नहीं है। एक मंदिर में प्रवेश पाने के लिए लोगों को बाकायदा पैसे चुकाना पडते हैं, जबकि दूसरे मंदिर में प्रवेश के लिए ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। यानी एक मंदिर से खाए-अघाए लोगों का धंधा जुडा हुआ है और दूसरे मंदिर से गरीब और वंचित लोगों की आस्था। अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि देश की न्यायपालिका किसके साथ है और वह न्याय करती है या फैसले सुनाती है! ऐसे ही फैसले अदालतों के प्रति आम लोगों के भरोसे को तोडते हैं, उन्हें सडकों पर उतरने और उग्र प्रदर्शन करने के लिए मजबूर करते हैं और सामाजिक तनाव बढाते हैं।

(वरिष्ठ पत्रकार अनिल जैन की फेसबुक से साभार)

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