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गोरक्षा के नाम पर मानव—हत्या क्यों? - डॉ वेद प्रताप वैदिक
डॉ वेद प्रताप वैदिक की कलम से
अलवर के पास बहरोड़ में पहलू खान की हत्या ने सच्चे गोभक्तों को भी परेशानी और शर्मिंदगी में डाल दिया है। मेवात निवासी पहलू खान और उनके साथी जयपुर से गायें खरीदकर एक ट्रक से उन्हें मेवात ले जा रहे थे। उन्हें कुछ अति उत्साही 'गोरक्षकों' ने बहरोड़ में रोका, उन पर गो-तस्करी का आरोप लगाया और उन्होंने उनकी पिटाई शुरु कर दी। ट्रक ड्राइवर ने अपना नाम बताया। वह हिंदू था। उसे जाने दिया। 55 वर्ष के पहलू खान को कहा कि तुम बूढ़े हो, तुम भागो यहां से! जब वह भागने लगा तो उसे पकड़कर इतना मारा गया कि उसने दम तोड़ दिया। डाॅक्टरों का कहना है कि पहलू खान की मृत्यु उसको लगी गंभीर चोटों के कारण हुई है जबकि हिंसक 'गोरक्षकों' का कहना है कि उसकी मृत्यु दहशत के कारण हो गई है।
पहली बात तो यह कि जो अपने आप को 'गोरक्षक' बताते हैं, क्या वे सचमुच गोरक्षक हैं? राजस्थान की विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल के शीर्ष अधिकारियों ने एक बयान में कहा है कि हमारे हजारों कार्यकर्ता हैं लेकिन हम कभी भी हिंसा को प्रोत्साहित नहीं करते। सही भी है। जो पशु-हत्या के विरोधी है, उन्हें मानव-हत्या का भी विरोधी होना चाहिए लेकिन वे मानव, मानव में भेद क्यों करते हैं? उन्होंने ड्राइवर को क्यों छोड़ दिया? क्या उस हिंदू ड्राइवर को पता नहीं था कि ट्रक में गायें भरी हुई हैं? यदि उसे शक होता कि उन्हें बूचड़खाने में कत्ल करने के लिए ले जाया जा रहा है तो उसने उस ट्रक को ले जाकर किसी भी थाने में क्यों नहीं खड़ा कर दिया? याने वह भी बराबर का अपराधी है लेकिन उसे छोड़ देने का अर्थ क्या हुआ? यदि वे गायें कत्ल के लिए ले जाई जा रही थीं तो इसका अंदेशा गाय बेचनेवालों को क्या बिल्कुल नहीं हुआ? गाय बेचनेवाले कौन थे? वे अक्सर हिंदू ही होते हैं। गायों की रक्षा की जिम्मेदारी क्या सिर्फ मुसलमानों की है? हिंदुओं की नहीं है? सबकी है। देश के कई प्रांतों ने गोरक्षा के कानून बना रखे हैं। वहां गोवध वर्जित है। भारतीय संविधान में भी गोरक्षा और गो-संवर्धन पर जोर दिया गया है। लेकिन जब व्यक्तिगत नफे-नुकसान का सवाल आ खड़ा होता है तो लोग संविधान और धर्मशास्त्रों को भी ताक पर रख देते हैं।
गोरक्षा के नाम पर हिंसा फैलानेवालों के बारे में जो खोज-पड़ताल हुई है, उससे पता चला है कि ये 'गोरक्षक' अव्वल दर्जे के ठग हैं। ये गोरक्षा के नाम पर गरीब और अनपढ़ लोगों से पैसे वसूलते हैं। उन्होंने 'गोरक्षा' को वसूली का धंधा बना लिया है। वे थाने में प्रथम सूचना रपट लिखा देते हैं और फिर ब्लेकमेल करते हैं। 2015 में राजस्थान की पुलिस ने ऐसे 73 मामलों को निराधार पाया और 2016 में 85 मामलों को। पहलू खान का मामला भी ऐसा ही था। उसके साथियों के हजारों रु. इन 'गोरक्षकों' ने छीन लिये। वह और उसके साथी जयपुर के पशु-मेले से दुधारु गायें इसलिए खरीदकर ले जा रहे थे कि वहां उनकी कीमतें कम होती हैं और वे दूध ज्यादा देती हैं। रमजान के महीने में दही और दूध की खपत ज्यादा होती है। पहलू खान की अपनी डेयरी है। तथाकथित गोरक्षकों ने यह जानने का कोई कष्ट नहीं उठाया कि ये गायें मेवात क्यों ले जाई जा रही है? वे यह मानकर चल रहे थे कि इन्हें कत्ल किया जाएगा। उन्होंने जयपुर नगर निगम द्वारा जारी किए गए बिक्री-प्रमाण-पत्र भी नहीं देखे। एक पुलिस अफसर का कहना है कि इन गायों का राजस्थान के बाहर निर्यात करना गैर-कानूनी था, क्योंकि उसके लिए कलेक्टर का प्रमाण-पत्र जरुरी होता है। मान लें कि वह विशेष-परमिट उनके पास नहीं था। वह उन्हें ले लेना चाहिए था लेकिन इस कारण उनको मारना-पीटना और उनकी हत्या करना क्या कानूनसम्मत है? क्या वह नृशंस अपराध नहीं है? यदि वे उन गायों को बूचड़खाने के लिए ले जा रहे थे तो भी 'गोरक्षकों' का कर्तव्य क्या था? उन लोगों को गायों समेत पुलिस के हवाले करना चाहिए था। तब कानून अपना काम करता लेकिन उन्होंने कानून अपने हाथ में ले लिया। ऐसा करके उन्होंने सिद्ध किया कि देश में कानून नाम की कोई चीज नहीं है। वे खुद ही कानून हैं और वे खुद ही सरकार हैं। उनके कुकृत्य से सरकार की फिजूल बदनामी होती है।
राजस्थान सरकार पर विरोधियों ने जमकर प्रहार किए हैं। उन्होंने राजस्थान के गृहमंत्री गुलाबचंद कटारिया के बयान के उस हिस्से की अनदेखी कर दी कि तथाकथित गोरक्षकों को कानून अपने हाथ में नहीं लेना चाहिए था लेकिन उस हिस्से पर तगड़ी आपत्ति कर रहे हैं, जिसमें उन्होंने कहा कि 'दोनों पक्ष दोषी हैं'। कटारिया गृहमंत्री हैं। उन्होंने अपनी पुलिस की रिपोर्ट के आधार पर ऐसा कहा होगा, क्योंकि अलवर के पुलिस अधिकारी कह चुके थे कि पहलू खान आदि के पास निर्यात का परमिट नहीं था। विरोधी दलों ने राजस्थान की वसुंधरा राजे सरकार से इस्तीफे की मांग भी कर दी है। यह एक मजाक-सा है। क्या उन्हें पता नहीं कि राजस्थान सरकार ने उस गोरक्षक गेंग के तीन अपराधियों को पकड़ लिया है और बाकी तीन को भी पकड़ने की कोशिश कर रही है। केंद्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी का संसद में यह कहना अफसोसजनक है कि 'जिस तरह की घटना पेश की जा रही है, उस तरह की घटना जमीन पर हुई ही नहीं।' हत्या और हिंसा की उस दर्दनाक घटना के वीडियो उपलब्ध हैं और उसके चित्र अखबारों ने छाप रखे हैं। संतोष का विषय यही है कि गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने साफ-साफ कहा है कि राजस्थान सरकार सारे मामले की जांच कर रही है और केंद्र सरकार भी न्यायसंगत और उचित कार्रवाई करेगी।
राजस्थान सरकार को इस मामले में इतनी सख्त कार्रवाई करनी चाहिए कि वह पूरे देश के लिए एक मिसाल बने। गोरक्षा के नाम पर चल रहे वसूली के धंधे, ब्लेकमेल और हिंसा करनेवाले तत्वों की हड्डियों में कंपकंपी दौड़ जाए। केंद्र की भाजपा सरकार का दायित्व और भी गहरा है, क्योंकि उसे बदनाम करने की कोशिश की जा रही है। गोरक्षा के मामले को दक्षिणपंथी, राष्ट्रवादी, हिंदूवादी और सांप्रदायिक बताकर उसे मोदी सरकार के माथे पर चिपकाया जा रहा है। यह कहा जा रहा है कि जबसे केंद्र में भाजपा की सरकार बनी है, इस तरह के मामले जोर पकड़ रहे हैं। दादरी में मुहम्मद अखलाक की हत्या और ऊना में दलितों के दलन के उदाहरण पेश किए जा रहे हैं। वे लोग यह भूल रहे हैं कि ऐसी घटनाओं की निंदा करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि लोगों ने गाय के नाम पर दुकानें खोल ली हैं। गैर-भाजपाई सरकारों के जमाने में भी ऐसी घटनाएं होती रही हैं लेकिन भाजपा को ऐसे मामलों में विशेष सावधानी बरतनी होगी। गोहत्या जैसे गैर-कानूनी कृत्यों को रोकने के लिए जनता की जागरुकता और सक्रियता सराहनीय है। यह सबल लोकतंत्र का प्रमाण भी है लेकिन प्रश्न यही है कि यही जागरुकता और यही सक्रियता रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार, शराबखोरी, बलात्कार और गंदगी-जैसी बुराइयों के खिलाफ क्यों नहीं दिखाई पड़ती?