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बाहरी नेताओं को लाने से बीजेपी को फायदा हुआ या नुकसान?
चुनावी सीजन में दल-बदल भारतीय राजनीति की पुरानी परंपरा है. लोकसभा हो या विधानसभा चुनाव, सुविधानुसार नेताओं का पाला बदलना आम बात नजर आती है. हाल में महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनाव में भी इसकी झलक देखने को मिली. खासकर, महाराष्ट्र में विपक्षी कांग्रेस और एनसीपी के नेता बड़़ी संख्या में बीजेपी और शिवसेना के पाले में आए. हालांकि, जब नतीजे सामने आए तो बीजेपी को ऐसे नेताओं को लाना भारी पड़ता भी दिखाई दिया.
महाराष्ट्र में बीजेपी-शिवसेना गठबंधन को 288 में 200 से ज्यादा सीटों पर जीत की उम्मीद थी. लेकिन जब नतीजे आए तो दोनों दल 161 सीटों तक सिमट गए. यहां तक कि पंकजा मुंडे समेत कई मंत्री भी चुनाव हार गए.
शिवाजी के वंशज उदयनराजे भोसले ने सितंबर में एनसीपी छोड़कर बीजेपी का दामन थामा था. बीजेपी के टिकट भोसले ने चुनाव भी लड़ा और 1 लाख से ज्यादा मतों से हार का मुंह देखना पड़ा.
उपचुनाव में भी दिखा असर
सिर्फ विधानसभा चुनाव ही नहीं, उपचुनाव में भी बीजेपी के ऐसे नेताओं का हार का सामना करना पड़ा, जो चुनाव से ठीक पहले उसके पाले में आए. गुजरात विधानसभा उपचुनाव में राधनपुर सीट से अल्पेश ठाकोर ने चुनाव लड़ा और उन्हें शिकस्त झेलनी पड़ी. ठाकोर ने कांग्रेस छोड़कर जुलाई में बीजेपी ज्वाइन की थी. सिर्फ दूसरे दलों से आए नेता ही बीजेपी पर भारी नहीं पड़े, बल्कि नए चेहरों को मौका देना भी उसके पक्ष में नहीं गया है.
नए चेहरों पर दांव हुए फेल
हरियाणा विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने कई नए और स्टार चेहरों को मौका दिया, लेकिन वो कमाल नहीं कर पाए. पहलवान बबीता फोगाट और योगेश्वर दत्त को बीजेपी ने मैदान में उतारा, लेकिन दोनों बाजी हार गए.
महाराष्ट्र और हरियाणा में प्रत्याशित नतीजे न मिलने का एक फैक्टर बाहरी नेताओं को एंट्री देना भी माना जा रहा है. बीजेपी कार्यकर्ताओं में यह भावना है कि पार्टी और संगठन के वफादारों को किनारे कर बाहरी लोगों को चुनाव में उतारने की कीमत चुकानी पड़ती है. महाराष्ट्र में भी कई जगह ऐसा देखने को मिला है, जहां बीजेपी के पुराने नेताओं की जगह दूसरे दलों से आए नेताओं को टिकट दिए गए और बीजेपी के उन नेताओं ने निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़कर जीत दर्ज की. ऐसे बागी उम्मीदवार भी बीजेपी के ग्राफ में गिरावट की बड़ी वजह बने.
झारखंड में भी पंरपरा जारी
महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनाव के बाद झारखंड में भी यह परंपरा देखने को मिल रही है. हाल ही में 23 अक्टूबर को भानु प्रताप शाही बीजेपी में शामिल हुए हैं. पूर्व स्वास्थ्य मंत्री और निर्दलीय विधायक भानु प्रताप 130 करोड़ के घोटाले में आरोपी हैं. सीबीआई की चार्जशीट में भी उनका नाम है. घोटाले के अलावा भी भानु प्रताप के खिलाफ कई आपराधिक मुकदमे हैं. सिर्फ इतना ही नहीं दूसरे दलों के नेता और विधायक भी बीजेपी में आ रहे हैं और इस ट्रेंड से संघ भी चिंतित बताया जाता है.
आरएसएस में इस बात की चर्चा है कि यह परंपरा खत्म होनी चाहिए, क्योंकि दीर्घावधि में इसके नकारात्मक असर देखने को मिल सकते हैं.