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आडवाणी, गडकरी आए तो पर्दा उठ गया, सौदागर हैं वोट के दामन पसारे आ गए!

Special Coverage News
9 Sep 2019 4:03 AM GMT
आडवाणी, गडकरी आए तो पर्दा उठ गया, सौदागर हैं वोट के दामन पसारे आ गए!
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गिरीश मालवीय

ये महाभारत है जिसके पात्र सारे आ गए ।

योगगुरू भागे तो फिर अन्ना हजारे आ गए ।

ठाकरे जो भी कहे वो बालीबुड दोहराएगा,

इसलिए पण्डाल में फ़िल्मी सितारे आ गए ।

बाबा के चरणों में है खाता विदेशी बैंक का,

कैसे-कैसे भक्तगण जमुना किनारे आ गए ।

आडवाणी, गडकरी आए तो पर्दा उठ गया

सौदागर हैं वोट के दामन पसारे आ गए ।

-अदम गोंडवी

#रविवार_की_कविता

इस कविता को लेकर मन में संशय था कि यह क्या वाकई अदम गोंडवी साहब ने लिखी है? क्योकि उनकी मृत्यु तो दिसम्बर 2011 में ही हो गयी थी फिर काफी खोजबीन के बाद गूगल पर एक ब्लॉग "कदाचित" मिला जिसमे लिखा गया था कि "अदम जी का निधन 18 दिसंबर 2011 को लखनऊ के पीजीआई अस्पताल में हुआ था। अस्पताल वालों ने उन्हें भर्ती करने से इनकार कर दिया था। लेकिन मीडिया में खबर बनने और कई लोगों द्वारा आर्थिक मदद देने के बाद उन्हें भर्ती कर लिया गया। तब तक अन्ना आंदोलन शुरू हो चुका था। अस्पताल के बिस्तर से ही अदम जी ने लिखा- 'ये महाभारत है, जिसके पात्र सारे आ गए/ योगगुरु भागे तो फिर अन्ना हजारे आ गए।'

अदम गोंडवी सर के संघर्षमय जीवन के बारे में भी इस ब्लॉग से ही पता चला

उनके भतीजे दिलीप सिंह ने बताया कि 'चमारों की गली' सन 1965 में गाँव के एक ठाकुर द्वारा एक दलित लड़की से बलात्कार और उससे जुड़े अन्याय की सच्ची घटना पर लिखी गई लंबी कविता है। इसे लिखने के बाद अदम गोंडवी, जिनका असल नाम रामनाथ सिंह था, को बिरादरी और टोले में अलग-थलग कर दिया गया था, और यह स्थिति आजीवन बनी रही।

दिलीप ने बताया कि उनके जीवन के अंतिम वर्षों में घर के हालात बहुत कष्टपूर्ण थे। ऐसे अभाव थे कि कई बार फाकाकशी तक की नौबत आ जाती थी। गाँव के दबंगों के अन्याय अदम जी की कविता के 'रमसुधी' को ही नहीं खुद उन्हें भी झेलने पड़े थे। जमीन या तो बिकती रही या सीलिंग का बंजर उनके हिस्से में आता रहा। जमीन को बेचा जा सकता था पर जमीर का क्या करते! अदम जी हिंदी की मुख्यधारा के साहित्यकार नहीं थे।

मुख्यधारा का साहित्यकार पुरस्कारों और सच्ची-झूठी प्रशंसाओं वगैरह से बहला रहता है, पर अदम जी के लिए वह मुमकिन नहीं था। उनके जैसे व्यक्ति के भीतर जीवन का यथार्थ इतने ठोस तरह से व्याप्त होता है कि उसके विद्रूप से मुँह फेरकर निजी हसरतों में लीन रहना उनके लिए संभव नहीं होता। यशःप्रार्थिता उनकी चीज नहीं थी और न ही कविता के क्षेत्र में उन्हें कभी किसी अनुमोदक या समीक्षक की जरूरत हुई। उनकी कविता इतनी आवेगशील और इतनी दो टूक थी कि पाठक/श्रोता को सीधे अपने असर में लेती थी। लेकिन इस वजह से मिली लोकप्रियता भी उन्हें कोई भुलावा नहीं दे पाई, क्योंकि कहीं कुछ बदल नहीं रहा था बल्कि राष्ट्रीय और सामाजिक हालात और बदतर होते जा रहे थे। ऐसे में एक ही चीज उनके लिए बचती थी, वह थी—शराब। उन्होंने खुद को उसी के सिपुर्द कर दिया।

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