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भाजपा के 303 सांसदों में मुसलमान क्यों नहीं?

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25 May 2019 8:18 AM GMT
भाजपा के 303 सांसदों में मुसलमान क्यों नहीं?
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'मुसलिम तुष्टीकरण' के आरोपों और उसकी काट में बहुमतवाद को मुख्य चुनावी हथियार बनाने वाले देश में इस बार भी केंद्र की सत्ता में मुसलमानों की हिस्सेदारी लगभग शून्य होगी। इस चुनाव में कुल मिला कर 25 मुसलमान सांसद चुने गए हैं, जो लोकसभा की 543 सीटों के 5 प्रतिशत से भी कम है। यहाँ मुसलमानों की आबादी 14 प्रतिशत है, यानी उनकी जितनी जनसंख्या है, उस अनुपात में सांसद नहीं चुने गए हैं।

सत्तारूढ़ दल में एक मुसलमान सांसद नहीं

लेकिन उससे भी दिलचस्प बात यह है कि फिर से सत्ता संभालने जा रही भारतीय जनता पार्टी में एक भी मुसलमान सांसद नहीं है। पार्टी ने कुल 6 मुसलमानों को टिकट दिया था, एक भी नहीं जीत सका। बीजेपी ने 27 प्रतिशत मुसलिम आबादी वाले पश्चिम बंगाल में दो मुसलमानों को उम्मीदवार बनाया। पश्चिम बंगाल में लगभग 15 सीटें ऐसी हैं, जहाँ मुसलमानों की तादाद अच्छी-ख़ासी है और वे नतीजे को प्रभावित करने की स्थिति में हैं। सबसे ज़्यादा छह मुसलमान सांसद इसी राज्य से चुने गए। इनमें से 5 तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस के एक हैं।

जो बहुजन समाज पार्टी 'जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी' का नारा देती है, उसके पास सिर्फ़ 3 मुसलमान सांसद इस बार होंगे। सामाजिक न्याय का नारा बुलंद करने वाली समाजवादी पार्टी के मुसलिम सांसदों की तादाद भी 3 ही होगी।

इसी तरह बराबरी और समतामूलक समाज का सपना देखने वाले वामपंथी दलों में भी मुसलिम सांसदों की तादाद संतोषजनक नहीं है। ए. एम आरिफ़ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी के अकेले मुसलमान सांसद हैं। वह केरल के अलपुज्ज़ा से चुने गए। कांग्रेस के 4 मुसलिम उम्मीदवार चुनाव जीतने में कामयाब रहे।

प्रतिनिधित्व कम

ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि लोकसभा में मुसलमानों की नुमाइंदगी अनुपात से कम रही है। आज़ादी के 70 साल से अधिक के इतिहास में कभी भी मुसलमानों का प्रतिनिधित्व उनकी जनसंख्या के अनुरूप नहीं रहा है। देश में 14 प्रतिशत से ज़्यादा मुसलमान हैं। सबसे ज़्यादा 49 यानी 9.20 प्रतिशत मुसलमान 1980 में चुने गए गए थे। इसके बाद के चुनाव यानी 1984 में 45 यानी 8.20 प्रतिशत मुसलमान सांसद चुने गए थे।

यही हाल विधानसभा चुनावों का भी रहा है। साल 2013 और 2015 के बीच हुए चुनाव में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व 35 प्रतिशत से घट कर 20 प्रतिशत हो गया। इसके बाद 2018 में पाँच राज्यों में चुनाव हुए तो यही हाल हुआ। इन चुनावों में छत्तीसगढ़ में 1, मध्य प्रदेश में 2, राजस्थान में 8 और तेलंगाना में 8 मुसलमान विधायक चुने गए।

बात साफ़ है, तुष्टिकरण के तमाम आरोपों और धर्मनिरपेक्ष राजनीति के दावों के बावजूद मुसलमानों का प्रतिनिधित्वक कम है। इस मामले में सभी राजनीतिक दलों की स्थिति कमोबेश एक समान है। दूध का धुुला कोई नहीं है।

इसमें 'मियाँ मुशर्रफ़' की बात करने वाले और 'मंदिर-कब्रिस्तान' की राजनीति को परवान चढ़ाने वाले दल तो हैं ही, सामाजिक न्याय की बात करने वाले भी हैं, जो मुसलमानों को पर्याप्त संख्या में टिकट नहीं देते या उनके उम्मीदवार जीतते नहीं है।

कारण क्या है?

पर्यवेक्षकों का कहना है कि इसकी वजह यह है कि मुसलमानों के बीच ऐसे नेता नहीं उभरते हैं, जो मुसलमानों के अलावा दूसरे समुदायों में भी स्वीकार्य हों ताकि उनका जीतना आसान हो। यदि कोई ऐसा नेता उभरता भी है तो पार्टी कोशिश करती है कि उन्हें उन्हीं जगहों से टिकट दिया जाए, जहां मुसलमान निर्णायक भूमिका में हों। इसका नतीजा यह होता है कि उन नेताओं की कभी भी सर्वस्वीकार्य छवि नहीं बन पाती है। वे जब मुसलिम-बहुल इलाक़ों से भी खड़े होते हैं तो ग़ैर-मुसलिम उन्हें ठीक से स्वीकार नहीं कर पाते हैं और उनका जीतना वहाँ से भी मुश्किल होता है।

इसे पश्चिम बंगाल से सीपीएम के मुहम्मद सलीम के उदाहरण से समझा जा सकता है। धर्मनिरपेक्ष माने जाने वाली इस पार्टी ने अपने बेहद तेज़ तर्रार नेता को इस चुनाव में रायगंज से उम्मीदवार बनाया, क्योंकि वहाँ मुसलमानों की आबादी लगभग 35 प्रतिशत है। यह बात दीगर है कि वे वहाँ से हार गए।

मुसलमान एक तरह के अल्पसंख्यकवाद बनाम बहुसंख्यकवाद में उलझ कर रह जाते हैं, पहचान का संकट इतना भारी मुद्दा बन जाता है कि पूरी राजनीति इसी के इर्द-गिर्द घूमती रहती है और दूसरे दल इसका फ़ायदा उठाते हैं।

पर्यवेक्षकों का यह भी कहना है कि मुसलमान पूरे देश में कहीं भी एक ही पार्टी या एक ही नेता को दें, ऐसा नहीं होता है, भले ही ऐसी छवि बना दी गई है। मुसलमान दूसरे समुदायों की तरह ही स्थानीय से लेकर राष्ट्रीय मुद्दों पर वोट करता है और वह वोटिंग पैटर्न दूसरों से अलग नहीं होता है। उसे भी उन्ही समस्याओं से जूझना होता है। पर छवि यह बना दी गई है कि वह सिर्फ़ मुसलमानों या उनकी बात करने वालों को वोट देता है।

अब मुसलमान क्या करे, कहाँ जाए, यह सवाल लाज़िमी है। उसे सत्ता में भागेदारी नहीं मिलेगी, यह साफ़ है। फिर वह क्या करे? इस सवाल का जवाब भी उन्हें ही ढूंढना होगा।

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