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लोकोत्सव ही नहीं समृद्धि पर्व भी है दीपावली - ज्ञानेन्द्र रावत

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26 Oct 2019 6:47 AM GMT
लोकोत्सव ही नहीं समृद्धि पर्व भी है दीपावली - ज्ञानेन्द्र रावत
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दीपावली एक साधारण पर्व नहीं बल्कि राष्ट्र्ीय अस्मिता और गौरव का पर्व है। इसमें हमें एक सम्पूर्ण राष्ट्र् के गौरव और गौरवशाली अतीत के दर्शन होते हैं। यह हमारे यहां ही नहीं, नेपाल, बर्मा, श्रीलंका, जापान, चीन, मारीशस, थाईलैंड और फिजी में भी बड़े धूमधाम से मनायी जाती है। मुस्लिम बहुल राष्ट्र् मलेशिया में यह पर्व राष्ट्र्ीय स्तर पर मनाया जाता है। आर्य संस्कृति के प्रचार-प्रसार के साथ ही दीपावली का निकट तथा दूर-दराज के देशों में भी चलन हुआ। देशकाल, वहां की परिस्थिति और सामाजिक परिवेश की वजह से भले ही दीपावली के स्वरूप में कुछ भिन्नता हो लेकिन दीपावली के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता।

ओशो यानी आचार्य रजनीश के अनुसार दीपावली का पर्व प्रकाश पर्व है और इस पर्व को प्रकाशमान करता है दीपक जिसका महत्व इस पर्व पर सर्वोपरि है। इस अवसर पर मिट्टी के दीये में ज्योति जलाना इस बात का प्रतीक है कि मिट्टी के दीये में अमृत ज्योति संभाली जा सकती है। क्योंकि मिट्टी पृथ्वी की और ज्योति प्रकाश का प्रतीक है। मिट्टी के दीयों की जगमगाती माला यथार्थ में ज्योति पर्व का नाम सार्थक करती है। अनन्य विशेषताओं से परिपूर्ण दीपक जहां ज्ञान और प्रकाश का प्रतीक है, वहीं वह त्याग, बलिदान, साधना और उपासना का भी प्रतीक है। यही नहीं वह तप और त्याग की महत्ता का परिचायक भी है।

यह हमारी संस्कृति का मंगल प्रतीक है जो अमावस्या के घनघोर अंधकार में असत्य से सत्य और अंधेरे से प्रकाश की ओर जाने का मार्ग प्रशस्त करता है। अंधकार को परास्त करते हुए वह संदेश देता है कि अंतःकरण को शुद्ध एवं पवित्र रखते हुए और अपनी चेतना, अपनी आत्मा में प्रकाश का संचार करते हुए ज्ञान का, धर्म का और कर्म का दीप जलाओ। तब गहन तमस में जो प्रकाश होगा, उससे अंतःकरण में जो आशा, धैर्य और प्रभुभक्ति के संचार के साथ-साथ हर्ष और उल्लास से हृदय पुलकित हो उठेगा, सत्य और न्याय की चहुं दिशाओं में विजय पताका फहरायेगी और धन-धान्य, यश- वैभव की अपार संपदायें तुम्हारे लिए अपने द्वार खोल देंगी। यथार्थ में सूर्य के उत्तराधिकारी दीपक का इस पर्व पर यही प्रमुख संदेश है। यही कारण है कि हम दीपावली के पर्व पर 'दीपोज्योति नमोस्तुते' कहकर दीपक को सादर नमन करते हैं।

प्रकाश की यह पूजा ही दीपावली का आधार है। उत्तर वैदिक काल में आकाश दीप के विधान से इसका उल्लेख मिलता है। हमारे शास्त्रों के अनुसार श्राद्ध पक्ष में अपने पुरखों का आह्वान किया जाता है। इसके उपरांत जब हमारे पूर्वज अपने लोकों को लौटते हैं तो उन्हैं दीपक के जरिये मार्ग दिखाया जाता है। इसे आकाश दीप कहते हैं। इसे किसी बांस पर बहुत उंचाई पर टांग दिया जाता है। आकाश दीप की परंपरा यूनान, चीन, थाईलैंड,जापान और दक्षिण अमरीका में आज भी दिखाई देती है। बेथेलहम में भी इसका उल्लेख है। इन देशों में आकाशदीप जलाया जाना धार्मिक परंपरा का प्रमुख अंग है। भगवान राम के चैदह वर्ष के वनवास के बाद अयोध्या आगमन पर अयोध्या के लोगों ने अपने मकानों की छतों पर उंचे बांसों पर आकाशदीप टांगे थे ताकि भगवान राम दीपों को देखकर यह समझ लें कि यही अयोध्या है। पहले यह आकाशदीप समुद्री यात्रा कर रहे नाविकों के लिए प्रकाश स्तंभ का काम करते थे। प्राचीन काल में राजा और प्रजा सभी कार्तिक माह शुरू होते ही आकाशदीप का जलाना शुभ मानते थे। उस समय इसका काफी महत्व था।

हमारी संस्कृति में इस पर्व पर समुद्रमंथन से निकले चैदह रत्नों में सर्वश्रेष्ठ वैभव यानी संपदा की देवी लक्ष्मी की सुख-समृद्धि की कामना से और बुद्धि -विवेक के स्वामी गणेश की न्याय-नीति के आधार पर बुद्धि के उपयोग हेतु आराधना को प्रमुखता दी गई है। वैसे दीपावली की ऐतिहासिक-पौराणिक प्राचीन पृष्ठभूमि अनंत प्रेरणाओं से परिपूर्ण है जो लक्ष्मी के उचित उर्पाजन एवं उपयोग का संदेश देती है। इस पर्व की एक महान धार्मिक एवं राष्ट्र्ीय पर्व के रूप में महत्ता सर्वविदित है। इस अवसर पर लक्ष्मी-गणेश पूजन के साथ लक्ष्मी स्त्रोत, गौ एवं गौद्रव्य पूजन एवं दीपदान आदि मांगलिक कार्य उन प्रेरणाओं के परिचायक हैं जो सामाजिक व्यवस्था में आर्थिक संयम और पवित्र जीवन के लिए परमावश्यक हैं। यही कारण है कि इस दिन राजमहल हो या गरीब की झोपड़ी तक को दीपों से सजाने की परंपरा है। वैसे इस पर्व से अनेकानेक घटनाऐं एवं प्रसंग जुड़े हैं जिनके उपलक्ष्य में सर्वत्र दीपमाला जलाए जाने के उल्लेख मिलते हैं। यह उल्लेख इस कथन के प्रमाण हैं कि इस पर्व को समूचे वर्ष के धार्मिक उत्सव के रूप में ही प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं है बल्कि इसे लोकोत्सव, धान्योत्सव और जनता के महापर्व का भी गौरव प्राप्त है। यही नहीं यह पर्व समृद्धि पर्व भी है, इस तथ्य को झुठलाया नहीं जा सकतां ।

इसमें किंचित मात्र भी संदेह नहीं है कि दीपावली ही नहीं वरन अन्य भारतीय पर्व भी सांस्कृतिक, सामाजिक एवं राष्ट्र्ीय वातावरण बनाने में महत्वपूर्ण सहायक की भूमिका का निर्वहन करते हैं। लेकिन आज दीपावली का स्वरूप पूरी तरह बदल चुका है। न पुरानी मान्यताएं रहीं, न परंपराएं ही शेष हैं। हां उनके नाम पर अपने- अपने वैभव की प्रक्रिया अवश्य जारी हैं। सच तो यह है कि देश के मुट्ठीभर लोगों के लिए तो जिंदगी का हरेक दिन दीवाली सरीखा होता है। जबकि देश की बहुसंख्यक आबादी के जीवन का अंधकार तो इस मंहगाई के दौर में आज भी दीवाली के दिन मिट्टी के दीयों के स्थान पर जगमगाते सैकड़ों-हजारों बल्बों की चुंधियाती रोशनी भी दूर नहीं कर पाती। असलियत में आज दीवाली अभिजात्यों, नवकुबेरों, अधिकारी, नौकरशाह, नेता, दलाल, व्यापारी, रिश्वतखोर व ठेकेदारों की है, वह आम गरीब, किसान-मजदूर की नहीं रह गयी है जिनके लिए दो जून रोटी का जुगाड़ कर पाना आसमान से तारे तोड़ने के समान है। उनकी चंद लम्हों में करोड़ो की आतिशबाजी फूंक देना सामथ्र्य के बाहर की बात है। ऐसा कर पाना उनके लिए एक सपना है जबकि मुट्ठीभर सरमाएदार लोगों के लिए यह एक शौक के अलावा कुछ भी नहीं है। ऐसे माहौल में दीवाली के दिन दीपक जलाने से न तो हमारे आंतरिक जीवन में प्रकाश आयेगा और न ही बाह्य जीवन के अंधकार ही दूर हो पायेंगे। जुआ जो एक समय जीवन में सौभाग्य और दुर्भाग्य के चक्र को बेरोकटोक जारी रहने का अनुभव हासिल करने का प्रतीकात्मक सबक था, वह अब व्यसन बन चुका है। देखा जाये तो अपव्यय जैसी बुराइयों के यथावत् रहने से वर्तमान में दीवाली का मूल प्रयोजन ही नष्टःप्राय हो गया है। ऐसी स्थिति में समाज को प्रकाशित करने व उसके विकास की आशा बेमानी होगी।

आज जब एकल परिवार का युग है, वह बात दीगर है कि कुछ लोग आज भी संयुक्त परिवार प्रथा के हामी हैं, सामाजिक विद्वेष चरम पर है, सांप्रदायिक सद्भाव नाममात्र की वस्तु रह गयी है, जातिगत विषमता ने समाज में विष घोल दिया है और आतंकवाद की काली छाया के चलते सर्वत्र भय व्याप्त है। हम दिखावा कुछ भी करें, यथार्थ में दीवाली जैसे त्योहार की अब पहले जैसी बात नहीं रही। न पहले जैसी हंसी के दर्शन होते हैं, न प्रेम और सद्भाव के ही। सर्वत्र दिखावा, प्रतिस्पर्धा, बनावट और स्वार्थ का बोलवाला है। लोग स्वार्थ, बेईमानी और धोखाधड़ी में पागल और अंधे हुए जा रहे हैं। हर तरफ धोखा ही धोखा है। नैतिकता, चरित्र और मूल्यों की बात बेमानी हो चुकी है। अब तो बाजारीकरण के दौर में त्योहारों की, संस्कृति की, मनमस्तिष्क में मात्र स्मृतियां ही शेष रह गई हैं। बाकी तो सब औपचारिकता ही है और कुछ नहीं। आज तो यही दिवाली है। हमारे लिए तो यही उचित है कि हम मानवता के कल्याण के लिए प्रतिपल अपनी श्रद्धा के दीप जलाएं और यथासंभव दूसरों को भी ऐसा करने की प्रेरणा दें। प्रकाश पर्व का वर्तमान में यही पाथेय है।

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