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रामनवमी पर विशेष जनकल्याण हेतु अपने सुख और महत्वाकांक्षा को तिलांजलि देने वाले श्रीराम

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14 April 2019 6:03 AM GMT
रामनवमी पर विशेष जनकल्याण हेतु अपने सुख और महत्वाकांक्षा को तिलांजलि देने वाले श्रीराम
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प्रेम, सदाचार, करुणा, दया, सहानुभूति, मानवीय गहन संवेदना और सेवा उनके जीवन की विशिष्टता है जो हमें उनके जीवन में समय-समय पर परिलक्षित होती है।




आज करोड़ों-करोड़ हिन्दुओं की आस्था और अस्मिता के सर्वोत्तम प्रतीक, आराध्य, रामायण के नायक और भगवान विष्णु के अंशावतार मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के इस धरा पर अवतरित होने का पुण्य-पावन दिवस है। यथार्थ में दशरथ पुत्र राम भारतीय लोकजीवन में सर्वत्र, सर्वदा एवं प्रवाहमान उर्जा का नाम है। इसमें किंचित मात्र भी संदेह नहीं है कि समूचे विश्व वांड्मय में राम ही एकमात्र ऐसा चरित्र है जो अन्याय के विरुद्ध सामाजिक आस्था को जगाने हेतु लोकशक्ति का आह्वान करते हैं। रामचरित मानस के रचियेता गोस्वामी तुलसीदास जी जिन्हें हम दास्यभाव के उपासक कह सकते हैं, उन्होंने भगवान राम के धरती पर अवतरित होने के कारण को स्पष्ट कर दिया है। उनके अनुसार- ''मुनि धीर जोगी सिद्ध संतत बिमल मन जेहिं धावहिं, कहि नेति निगम पुरान आगम जासु कीरति गावहिं, सोहि राम ब्यापक ब्रह्म भुवन निकाय पति माया धनी, अवतरेड अपने भगत हित निजतंत्र नित रघुकुल मनी।'' इस छंद के माध्यम से तुलसीदास जी ने स्पष्ट किया है कि अपने भक्त के हित के लिए घट-घट में व्याप्त नेति-नेत वाला अप्रकट ब्रह्म भी इस धरा पर भक्त की सहायता हेतु अवतार लेकर मनुष्य के रूप में प्रकट हो जाता है। भक्त की पुकार पर इस धरती पर वह नंगे पैर आता ही है। यह भी कटु सत्य है कि जब गज को ग्राह द्वारा पकड़ लिया गया, तब भगवान विष्णु नंगे पैर दौड़े चले आये थे। और जब बात समूचे समाज की आती है और समाज के शोषित-पीड़ित-निर्बल-पददलित को वही ग्राह डसने लगता है, उस स्थिति में भगवान कहें या परब्रह्म एक सामान्य नागरिक की भंति इस धरती पर सशरीर उपस्थित होता है और उस रूप में वह समाज की सत्य और न्याय के प्रति आस्था जगाने का महति कार्य करता है। तुलसीदास जी का यह छंद भगवान मृत्युंजय शिव द्वारा राजा दक्ष प्रजापति की पुत्री और अपनी भार्या सती के राम के ब्रह्मत्व के सम्बंध में उठे संदेह के निवारण के लिए है जो अवतारवाद के संदर्भ में किसी भी संदेह के निवारण में वस्तुस्थिति को स्प्ष्टतः परिभाषित करता है। राम महाकाल के अधिष्ठाता, संहारक, मृत्युंजय शिवजी के आराध्य हैं। परम वैष्णव भगवान शिव अपने आराध्य भगवान श्री राम के सगुण रूप का ध्यान करते हैं और उनकी वंदना निम्न प्रकार करते हैं--'' बंदउॅं बालरूप सोइ रामू, सब सिधि सुलभ जपत जिसु नामू। मंगल भवन अमंगल हारी, द्रवहु सो दशरथ अजिर बिहारी।।'' शिवजी कहते हैं कि-मैं उन्हीं श्रीरामजी के बालरूप की वंदना करता हूॅं जिनके नाम जप से ही सिद्धियां प्राप्त हो जाती हैं। मंगल के धाम, अमंगल के हरने वाले और श्री दशरथ जी के आंगन में खेलने वाले बालरूप श्री रामचंद्र जी मुझ पर कृपा करें।''

यह भी सत्य है कि तुलसीदास जी राम को सगुण रूप में संपूर्ण मानवीय एवं दैवीय गुणों से संपन्न निराकार ब्रह्म का अवतार ही मानते हैं। वह अपने आराध्य राम को साक्षात् ब्रह्म ही मानते हैं। तुलसीदास जी द्वारा अपने ब्रह्म राम के जन्म का जो अप्रतिम वर्णन किया गया है, अद्भुत है। उनके अनुसार-'' जोग लगन ग्रह बार तिथि सकल भए अनुकूल। चर अरु अचर हर्षजुत राम जनम सुखमूल।।'' ,''नौमी तिथि मधु मास पुनीता। सुकल पच्छ अभिजित हरिप्रीता।। मध्य दिवस अति सीत न घामा। पावन काल लोक विश्रामा।। सीतल मंद सुरभि बह बाउ। हरषित सुर संतन मन चाउ।। बन कुसुमित गिरगन मनिआरा। स्रवहिं सकल सरितामृत धारा।। सो अवसर बिरंचि जब जाना। चले सकल सुर साजि बिमाना।। गगन बिमल संकुल सुर जूथा। गावहिं गुन गंधर्व बरूथा।। बरषहिं सुमन सुअंजलि साजी। गहगहि गगन दुंदुभी बाजी।। अस्तुति करहिं नाग मुनि देवा। बहुबिधि लावहिं निज निज सेवा।।'' ''सुर समूह बिनती करि पहुंचे निज निज धाम। जगनिवास प्रभु प्रगटे अखिल लोक बिश्राम।।'' '' भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौशल्या हितकारी। हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी।। लोचन अभिरामा तनु घनश्यामा निज आयुध भुज चारी। भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिंधु खरारी।।''

तात्पर्य यह कि उस समय योग, लग्न, ग्रह, वार और तिथि सभी अनुकूल हो गए। जड़, चेतन, सब हर्ष से भर गए। कारण श्री राम का जनम सुख का मूल है। उस समय पवित्र चैत्र का महीना और नवमी तिथि थी। शुक्ल पक्ष और भगवान का प्रिय अभिजित मुहूर्त था। दोपहर का समय था। न बहुत सरदी थी, न गरमी थी। वह पवित्र समय सबको शांति देने वाला था। शीतल मंद और सुगंधित पवन बह रही थी। देवतागण सभी हर्षित थे। संतो ंके मन में बड़ा चाव था। वन-उपवन फूले हुए थे। पर्वतों के समूह मणियों से जगमगा रहे थे। सारी नदियां अमृत की धारा बहा रहीं थीं। जब ब्रह्मा जी को भगवान के प्राकट्य के अवसर की जानकारी हुई तो उन सहित समस्त देवतागण अपने-अपने विमानों पर चढ़कर चले। उस समय आकाश देवताओं के समूह से भर गया। गंधर्वों के दल भगवान का गुणगान करने लगे। सभी देवता अपनी अंजुलियों में भर-भरकर पुष्प वर्षा करने लगे। आकाश में घमाघम नगाड़े-बाजे बजने लगे। नाग, मुनि सहित सभी देवता स्तुति गान करते हुए अपनी-अपनी ओर से उपहार भेंट करने लगे। देवताओं के समूह प्रभु की बिनती कर अपने अपने लोकों को प्रस्थान कर गए। तभी समस्त लोकों को शांति और दीनों पर दया करने वाले कौशल्या के हितकारी कृपालु जगदाधार प्रभु श्रीराम प्रकट हुए। मुनियों के मन को हरने वाले उनके अद्भुत रूप का विचार कर नेत्रों को आनंद देने वाला मेघ के समान उनका श्याम शरीर, चारो भुजाओं में आयुध धारण किये, दिव्य आभूषण, वनमाला पहने बड़े-ब्ड़े नेत्रों वाले प्रभु की छवि देख माॅं कौशल्या हर्षित हो मंत्र मुग्ध हो गयीं।

यथार्थ में राम सृष्टि की निरंतरता, जीवन और गति का नाम है। 'रमते योगितो यस्मिन स रामः।' ' रमति इति रामः।' अर्थात योगीजन जिसमें रमण करते हैं, जो रोम रोम, समूचे ब्रह्माण्ड में रहता है, यानी रमता है, वही राम है। रा शब्द परिपूर्णता का द्योतक है और म पमेश्वर वाचक है। तात्पर्य यह है कि राम का शब्द स्वयं एक महामंत्र है। राम अनादि व्यापक ब्रह्म हैं, अनंत हैं, निराकार हैं,निर्गुण हैं, परमानंद स्वरूप, पुराण पुरुष हैं, लेकिन भक्तों के स्नेहवश और देवताओं के अनुरोध पर ही वह दाशरथि राम बनना स्वीकारते हैं। चूंकि वह जीव, चराचर जगत के स्वामी हैं, प्रकाश के भंडार हैं, यही वह अहम् कारण है जिसके चलते सभी साधु-संतों ने भी उन्हें अपना आराध्य माना है। यथार्थ में इस प्रभावी और विलक्षण राम नाम के बीज मंत्र को सगुणोपासक मानवों में प्रतिष्ठापित करने के हितू दाशरथि राम का इस धरती पर प्राकट्य कहें या अवतरण हुआ। इसमें कोई संदेह नहीं है। सूर्यकुल में राम के पूर्वज राजा रघु से सभी भलीभांति परिचित हैं। वह इतने प्रतापी राजा थे कि सूर्यकुल उनके नाम से ही रघुकुल कहलाया जाने लगा। उसी रघुकुल में आगे चलकर राम का जन्म हुआ जो रघुकुल के सूर्य कहलाए और समस्त दिगदिगंत में भगवान के रूप में प्रतिष्ठित हुए। प्राचीन ग्रंथों में भगवान शब्द की इस प्रकार व्याख्या की गई है-'' ऐश्वर्यस्य समग्रस्यः शौर्यस्य यशसः श्रियः, ज्ञान वैराग्ययोश्चैव षष्णंभग इतीरणा।।'' तात्पर्य यह कि संपूर्ण ऐश्वर्य, शौर्य, यश, लक्ष्मी, ज्ञान एवं वैराग्य इन छह गुणों को 'भग' कहा जाता है। इन गुणों का स्वामी ही भगवान कहलाता है। इसके लिए इन समस्त छह गुणों में सामंजस्य की भावना और एक-दूसरे का पूरक होना अवश्यंभावी होता है।

यह सर्वविदित है कि श्री राम का जन्म एक प्रतिष्ठित सूर्यकुल के राजसी परिवार में हुआ लेकिन उनका जीवन वह चाहे ऋषि विश्वामित्र के साथ वन में आश्रम वास का काल हो,या विमाता कैकेयी की इच्छा अनुसार चैदह वर्ष के वनवास का काल हो, वनवास के दौरान वह चाहे महाबलशाली बाली का वध हो या फिर अत्याचार, शोषण के प्रतीक अजेय रावण के वध का सवाल हो, उन्होंने अन्य राजपुरुषों की भांति उनके राज्य पर आधिपत्य नहीं जमाया बल्कि वहां का राजपाट प्रजापालक उत्तराधिकारियों को सौंपना, इस बात का साक्षी है कि उन्होंने साम्राज्य विस्तार की भावना के तहत अयोध्या का त्याग नहीं किया था। यही नहीं उन्होंने वनवास के दौरान श्रापवश पाषाण बनी अहिल्या का उद्धार कर उसे समाज में प्रतिष्ठिापित करना, केवट को सम्मान देना, निषादराज को भ्रातृ स्नेह और शबरी के जूठे बेरों का ग्रहण करना और राक्षसों से पीड़ित वनवासियों, वानरों आदि को संगठित कर राक्षसों के अत्याचारों से मुक्ति दिलाना यह प्रमाणित करता है कि उनका मानवीय रूप में अवतरण सही मायने में समाज को शोषण, दमन और अत्याचार से मुक्ति दिलाना था। प्रेम, सदाचार, करुणा, दया, सहानुभूति, मानवीय गहन संवेदना और सेवा उनके जीवन की विशिष्टता है जो हमें उनके जीवन में समय-समय पर परिलक्षित होती है। असलियत में उन्हें उद्धारक कहा जाये तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। निष्कर्ष यह कि इन गुणों की श्री राम के चरित्र में पूर्णता विद्यमान थी और उसमें संपूर्ण रूपसे समुच्चय के दर्शन होते हैं, इसीलिए वह भगवान कहलाए।

हमारा देश उत्सव प्रिय है। आदिकाल से इसके प्रमाण मिलते हैं। इतिहास इसका साक्षी है। उत्सव जहां हमारे इतिहास के महत्वपूर्ण अंग हैं, वहीं वह राष्ट्र्ीय अस्मिता और संस्कृति के प्रतीक भी हैं। मानव जीवन में उत्सव-पर्वों का महत्व इसलिए भी है कि यह हमें अपनी संस्कृति और अतीत की समृद्धियों का भान कराते हैं, उनसे हमें जोड़ने में और जीवन पथ को प्रकाशित कर उत्तरोत्तर प्रगति पथ पर अग्रसर करने में अहम् भूमिका का निर्वहन करते हैं। इसमें दो राय नहीं है कि समूचे विश्व बाड्मय में भगवान श्री राम अकेले एकमात्र चरित्र के रूप में विद्यमान हैं जिन्होंने जनकल्याण के लिए अपने व्यक्तिगत सुखों और महत्वाकांक्षाओं को तिलांजलि दे दी। आज भगवान राम का जन्मस्थल अयोध्या तीर्थ है। वहां श्रृद्धा के वशीभूत होकर हम जाकर उनको नमन करते हैं। असलियत में भगवान श्री राम के जन्म दिवस के उत्सव की सार्थकता तभी सिद्ध होगी जब हम उनके गुणों, चरित्र और आदर्शों को अपने जीवन में उतार सकें।

लेखक ज्ञानेंद्र रावत पर्यावरणविद और वरिष्ठ पत्रकार है

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