लखनऊ

आंबेडकर की विरासत, कांशीराम से मायावती तक

Shiv Kumar Mishra
10 April 2021 1:43 PM GMT
आंबेडकर की विरासत, कांशीराम से मायावती तक
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शकील अख्तर

130 साल! हां भारत के सबसे बड़े सामाजिक क्रांतिकारी डा भीमराव आंबेडकर की जयंती को सौ, सवा सौ साल होते हुए यह 130 साल होने जा रहे हैं। बहुत लंबा अरसा, बहुत परिवर्तन लेकिन उतने ही धोखे और अभी बहुत लंबा रास्ता।

बहुत पहले एक लेख लिखा था। नवभारत टाइम्स में। उसका पहला वाक्य ही शायद यह था कि भारत में तीन नेता ऐसे हुए हैं, जिनमें बहुत करंट था। विरोधी उनके विचारों के नजदीक जाने से भी डरते थे। समय की धार के विपरीत तैरने का हौसला रखने वाले वे नेता थे डा. आंबेडकर, भगत सिंह और जवाहरलाल नेहरू।

इनमें से डा आम्बेडकर पर आज फिर कुछ लिखने की कोशिश कर रहे हैं। 14 अप्रैल उनकी जयंती है। हर साल बहुत धूमधाम से मनाई जाती है। शासकीय स्तर पर भी औपचारिकता होती है। राजनीतिक दल भी मनाते हैं। खासतौर से वे पार्टियां, दलित नेता जिन्होंने आंबेडकर और उनकी राजनीतिक विरासत की बदौलत सब कुछ पाया इस दिन उनकी प्रतिमा या चित्र पर माल्यार्पण करके उनके प्रति अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं। साल में एक दिन की रस्म अदायगी से वे उऋण हो जाते हैं।

आम्बेडर भारतीय राजनीति में एक ऐसा नाम हुए जिनके नाम पर पर सबसे ज्यादा राजनीति की गई और राजनीतिक फायदा भी उठाया गया। उनके अलावा राजनीति में एक नाम ऐसा नहीं है जिसके इर्द गिर्द इतनी राजनीति घूमी हो। मगर आम्बेडकर का नाम लेना अलग बात है और जिन दलितों के लिए उन्होंने अपनी पूरी जिन्दगी कुर्बान कर दी उनके लिए काम करना बिल्कुल अलग बात। दलितों के लिए जितना काम होना था नहीं हुआ। मौके थे मगर दलितों के नाम पर राजनीति करने वाले इन मौके का इस्तेमाल खुद की राजनीति चमकाने के लिए करते रहे।

डा. आम्बेडकर 1956 में नहीं रहे। अपना आखिरी काम भारत को एक न्यायप्रिय, लोकतांत्रिक संविधान देकर वे चले गए। उनकी मृत्यु के बाद उन्हें इतनी जल्दी विस्मृत कर दिया जाएगा। यह किसी ने नहीं सोचा था। कांग्रेस का दौर दौरा था उसने बाबू जगजीवन राम को प्रतीकात्मक रूप से दलितों का नेता स्थापित कर दिया था अश्चर्यजनक रूप से उस करीब 20 - 25 साल के दौर में

आम दलित कार्यकर्ता और नेता जगजीवन राम को ही अपना आईकान मानने लगे। किसी भी समुदाय के असली आदर्श को भुलाने का यह एक पुराना तरीका था। नकली हीरो को असली के सामने खड़ा कर देना। लेकिन आरक्षण से पा रहे सरकारी नौकरियों और नए पढ़ लिख रहे दलित वर्ग ने अपना एक मध्यम आर्थिक वर्ग बनाना शुरू कर दिया था। यहीं से फिर एक नव जागरण की शुरूआत हुई। अगर पहला नवजागरण ज्योति बा फूले और पेरियार ने शुरू किया था और जिसे जमीन पर डा. आम्बेडकर ने उतारा था तो दलितों में दूसरे नवजागरण का श्रेय अनडाउटली कांशीराम जी को जाता है।

उसी बन रहे नए मध्यम वर्ग और सरकारी नौकरी से निकले कांशीराम ने केवल दलितों में ही नई राजनीतिक चेतना और सत्ता की ललक पैदा नहीं की बल्कि अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी) में भी उम्मीदें और हौसले जगा दिए। अपनी अच्छी भली सरकारी नौकरी छोड़कर कांशीराम ने सामाजिक रूप से कमजोर शोषित वर्ग के लिए जो काम किया उसी से भारत में नए दलित और पिछड़े नेतृत्व की मजबूत पांतें तैयार हुईं। कांशीराम ने 1971 में नौकरी छोड़ी। और पहले बामसेफ फिर डीएस फोर और 1984 में बहुजन समाज पार्टी बनाकर उन्होंने भारतीय राजनीति का स्वरूप ही बदल दिया। लेकिन जिन दलितों के दर्द से प्रेरित होकर उन्होंने नौकरी छोड़ी, विवाह न करने, परिवार से अलग रहने का फैसला किया, उनके साथ धोखा होना नहीं रुका। दलित और पिछड़ों के जो नेता कांशीराम द्वारा तैयार की गई जमीन से बने वे भी अपने समाज से कट कर समझौतों, सुरक्षा और सत्ता की राजनीति में डूब गए।

यहां यह बताया जाना जरूरी है कि कांशीराम जब दूसरे लोगों की तरह रूटीन में नौकरी कर रहे थे तो उनके जीवन में जिस वजह से उथल पुथल मची वह एक किताब थी। डा. आम्बेडकर की "एनहिलेशन आफ कास्ट" (जाति प्रथा का विनाश) थी। कांशीराम जी को बहुत कवर किया है। उनके साथ गांवों, दलित बस्तियों में बहुत घूमे हैं। इसी दौरान राजस्थान में एक बार जयपुर के पास एक गांव में दलितों की बेहद खराब सामाजिक और आर्थिक स्थिति देखकर उन्होंने बताया था कि पंजाब में दलितों की स्थिति कितनी बेहतर है। अपने परिवार के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा था कि उनके पिता पंजाब के रोपड़ जिले में ठीक ठाक खाते पीते किसान परिवार से थे। था। चाचा उनके सेना में थे। पूणे की अपनी नौकरी और उन दिनों को याद करते हुए ही उन्होंने Annihilation of caste का जिक्र किया था। बताया था कि कैसे यह किताब उनके जीवन का टर्निंग पांइट थी। जिस रात उन्होंने किताब पड़ी वे सो नहीं पाए। भारत की जाति व्यवस्था की गहराइयों की जो समझ इससे कांशीराम जी में डवलप हुई ती उसी ने फिर भारतीय राजनीति का चेहरा बदल दिया। आज तमाम राज्यों के मुख्यमंत्री पिछड़ी जातियों के हैं। ये कांशीराम के उस नारे की सफलता है जिसमें कहा गया था कि "जिसकी जितनी भागीदारी, उतनी उसकी हिस्सेदारी।"

मगर ये हिस्सेदारी खाली दलित और पिछड़े नेताओं के ही हिस्से में आई। मायावती, मुलायम, अखिलेश यादव, लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार, शरद यादव सबको सत्ता में हिस्सा मिला मगर उसे इन्होंने आगे, निचले स्तर तक ट्रांसफर नहीं किया। आंबेडकर जो सामाजिक बदलाव (ट्रांसफारमेशन) चाहते थे वह रुक गया। कांशीराम ने राजनीति का चेहरा बदला मगर समाज प्रगति की रफ्तार नहीं पकड़ पाया। आंबेडकर का जोर दलित समाज पर था। चाहे पूना पैक्ट हो, महाड़ का पानी आंदोलन हो या उनका बौद्ध धर्म में जाना हो सब का उद्देश्य अपने समाज में गति पैदा करना थी। इसके बरअक्स कांशीराम जी ने राजनीतिक सत्ता के माध्यम से परिवर्तन की राह चुनी।

यह कह सकते हैं कि आंबेडकर के मुकाबले कांशीराम की राजनीति में सफलता ज्यादा दृष्टव्य है। आंबेडकर की मूल पार्टी शेड्यूल कास्ट फेडरेशन (एससीएफ) नहीं चल पाई। उससे निकली भारतीय रिपब्लिकन पार्टी को भी कोई विशेष सफलता नहीं मिली। आज तो उसपर एकछत्र राज्य केन्द्र में मंत्री बने रामदास अठावले का है। उधर कांशीराम की पार्टी बसपा ने अपने गठन के करीब दस साल बाद ही देश के सबसे बड़े राज्य उत्तरप्रदेश में अपना मुख्यमंत्री बना लिया था। कांशीराम जी ने 1995 में मायावती को मुख्यमंत्री बना दिया था। इसके बाद तो मायावती और बसपा इस तेजी के साथ देश की राजनीति में छाए कि कांग्रेस, भाजपा हर दल उनके साथ खड़ा दिखने की कोशिश करने लगा। ऐसा लगा कि देश भर का दलित मायावती के साथ खड़ा हुआ है। लेकिन दलित समुदाय तो वहीं खड़ा रह गया, मायावती आगे और आगे बढ़ती चली गईं।

एक समय तो ऐसा आया जब अमेरिका में पहली बार कोई ब्लैक राष्ट्रपति बना तो राजनीति में ऐसा माहौल बना कि अब भारत में भी पहला दलित प्रधानमंत्री होगा। और जाहिर है कि इसके लिए एक ही नाम मायवती का लिया जा रहा था। बराक ओबामा 2008 में पहले ब्लैक राष्ट्रपति बने थे। तब मायवती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री थीं। मुलायम का शासन खत्म हुआ था। दंभ से मायावती बोली थीं कि " मरे को क्या मारना!" मगर अहंकार का सर तो नीचे होता ही है। उसके बाद गंगा जमना के साथ गोमती में भी बहुत पानी बह गया। इतना कि अब तो कोई मायावती के फिर से मुख्यमंत्री बनने तक की बात नहीं करता!

यहीं फिर एक बड़ा टर्निंग पांइट है। लगता है जैसे मायावती ने कांशीराम जी के सपनों को चकनाचूर कर दिया। लेकिन यही कांशीराम की राजनीति की सीमाएं थीं। संगठन और समाज के उपर व्यक्ति को प्राथमिकता देने की राजनीति का यही हश्र होना था। मायावती की राजनीति आज अपनी आखिरी सांसे गिन रही है। लेकिन

वहीं दूसरी और डां. आंबेडकर के विचारों और संघर्ष से बना माहौल लगातार दलित और पिछड़े समाज में नए लोगों की पौध तैयार करता रहता है। और ये नए लोग केवल राजनीति में ही नहीं हैं, प्रशासन, साहित्य, पत्रकारिता, सामाजिक क्षेत्र हर जगह आ रहे हैं। यही डा. आंबेडकर की ताकत और प्रासंगिकता है। उनके विचारों का असीम, अनवरत प्रभाव!

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