सुल्तानपुर

ऐतिहासिक दुर्गा-पूजा की शुरुआत

Special Coverage News
16 Oct 2018 2:50 AM GMT
ऐतिहासिक दुर्गा-पूजा की शुरुआत
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यूं तो दुर्गापूजा का आयोजन पूरे देश में बड़े हर्षोउल्लास से मनाया जाता है लेकिन सुलतानपुर की दुर्गा पूजा का एक अपना अलग ही नाम है। कोलकाता के बाद अगर दुर्गापूजा की कहीं धूम है तो वह है सुलतानपुर. खास बात है जहां पूरे भारत में मां दुर्गा की प्रतिमाओं का विसर्जन विजय दशमी के दिन को होता है तो वहीं सुलतानपुर में दुर्गापूजा पूरे शबाब पर होता है और विसर्जन इसके पांच दिन बाद पूर्णिमा को होता है।

इस सबसे अलग यहां की खास बात है गंगा जमुनी तहजीब दूसरे इलाकों में जहां तनाव की खबरें सुनाई देती हैं। वहीं यहां सभी धर्मों के लोग इस ऐतिहासिक उत्सव को मिल जुल कर बड़ी धूम -धाम से मनाते हैं शायद यही वजह है कि पिछले 6 दशकों से चली आ रही इस अनोखी परम्परा ने इसे खास और ऐतिहासिक बना दिया है। कोलकाता शहर के बाद अगर दुर्गापूजा देखनी हो तो शहर सुलतानपुर आइये,मंदिरों का रूप लिये जगह-जगह बने पंडाल और पंडालों में स्थापित हो हुई अलग-अलग रूपों की प्रतिमायें बरबस आपको अपनी ओर खींचती नज़र आएंगी। शहर की कोई गली कोई कोना बाकी नही जहां इस ऐतिहासिक उत्सव के पंडाल और मूर्तियां न स्थापित हो।

साल 1959 में नगर के ठठेरी बाजार मुहल्ले में भिखारी लाल सोनी द्वारा पहली बार आदि दुर्गा प्रतिमा की स्थापना से इसकी शुरुआत हुई। वर्ष 1972 में प्रतिमाओं की संख्या में बढोत्तरी हुई और तब से धीरे-धीरे प्रतिमाओं की संख्या बढती गई, आज शहर में तकरीबन डेढ़ सौ प्रतिमाएं स्थापित होती हैं, साल दर साल बढ़ रही समारोह की भव्यता को देखते हुए जिम्मेदारों ने इसे विधिवत आयोजित करने की आवश्यकता महसूस की लिहाजा सर्वदेवी पूजा समिति के नाम से संगठन बना कर इसका आयोजन किया जाने लगा, बाद में कुछ विवादों के चलते केन्द्रीय संगठन का नाम बदलकर केन्द्रीय पूजा व्यवस्था समिति कर दिया गया. इस ऐतिहासिक समारोह के भव्यतम बनाने के लिये महीनों पहले से तैयारियां की जाती हैं.


बाहर प्रदेशों के कारीगरों को बुलाकर उनसे विशालकाय और मंदिरनुमा पंडाल बनवाये जाते हैं. उनमें जबरदस्त सजावट की जाती है, बांस की खपच्ची और रंगीन कपड़ों से तैयार पंडाल देखकर असली और नकली का अंदाजा लगाना मुश्किल होता है, इसके अलावा लगभग चार महीनो से माँ दुर्गा के विभिन्न रूपों की प्रतिमाओ को तराशने का काम भी यही कारीगर आ कर करते है, कोई प्रतिमा सीप से तो कोई मोती से या फिर कोई राजमे से, या फिर कोई दाल से इन प्रतिमाओ को सजाता है और आकर्षक रंग-बिरंगी साड़ियों से सजी ये प्रतिमा लोगो के लिये एक अद्भुत श्रद्धा की छठा बिखेरती है।

देश के दूसरे हिस्सों में जहां विजय दशमी को विसर्जन हो जाता है जबकि यहां उसी दिन से यह महोत्सव परवान चढता है,रावण दहन के बाद जो मेले की शुरुआत होती है वही यहाँ पर पांच दिनों तक चलने वाले समारोह के बाद पूर्णिमा के दिन विसर्जन की शुरूआत होती है, नगर की ठठेरी बाजार में बड़ी दुर्गा प्रतिमा के पीछे एक-एक करके नगर की सारी प्रतिमायें लगती हैं, फिर परम्परागत रूप से जिलाधिकारी विसर्जन के लिये हरी झंडी दिखाकर पहली प्रतिमा को रवाना करते हैं।


यह प्रतिमायें नगर के विभिन्न मार्गों से होती हुई सीताकुंड घाट पर गोमती तट पर बने विसर्जन स्थल तक पहुंचती हैं, तकरीबन डेढ़ सौ से ज्यादा मूर्तियों के विसर्जन में करीब 36 से 48 घंटे का वक्त लगता है, यही विसर्जन शोभा यात्रा यहां का आकर्षण है। वही इस महोत्सव में दूर-दराज एवं देश-विदेश से लाखों श्रद्धालु शिरकत करते हैं नगर की पूजा समितियां उनके खाने पीने का पूरा प्रबंध करती हैं, जगह-जगह भंडारे चलते हैं, केन्द्रीय पूजा व्यवस्था समिति के लोग हर पल नजर बनाये रखते हैं, यातायात को सुगम बनाने और शांति-व्यवस्था बनाये रखने के लिये जिला प्रशासन पूरी तरह मुस्तैद रहता है, महीनोंभर पहले से ही जिला प्रशासन भी तैयारियों का जायजा लेना शुरू कर देता है, शोभा-यात्रा रूट और विसर्जन स्थल पर पूरी नजर रखी जाती है, जिला प्रशासन की देख-रेख में एक पखवारे तक चलने वाली दुर्गापूजा की तैयारियां अब अंतिम दौर में हैं।

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