सुल्तानपुर

कोर्ट का बड़ा फैसला, पुलिस नहीं ढूढ़ पाई गलती किसकी, तो 18 वर्षों से कहां है अपहृत राजलक्ष्मी!

Special Coverage News
14 Oct 2018 1:26 PM GMT
कोर्ट का बड़ा फैसला, पुलिस नहीं ढूढ़ पाई गलती किसकी, तो 18 वर्षों से कहां है अपहृत राजलक्ष्मी!
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18 वर्ष पहले अपहृत हुई महिला की बरामदगी पुलिस अब तक नहीं कर सकी है आैर न ही मामले में दोषियों पर ही कोई कार्यवाही हो सकी। अपहरण के बाद महिला जिंदा है या मुर्दा , उसके साथ अन्य कोई अनहोनी घटना घटी,या फिर वह सही सलामत है तो कहां है, यह जवाब पुलिस के पास नहीं है। अदालत के आदेश पर हो चुकी अग्रिम विवेचना के बाद भी पुलिस की तफ्तीश बेअर्थ है। अब मन मुताबिक की गयी विवेचना रिपोर्ट ही क्षेत्राधिकारी कार्यालय से करीब तीन वर्षों से गायब है। जिसके संबंध में कोर्ट के कड़े रुख के बाद तलब हुए तत्कालीन हेड पेशी को अगली सुनवाई पर जवाब देना है।

मामला कूरेभार थाना क्षेत्र के बरजी गांव से जुड़ा हुआ है। जहां के रहने वाले देवमणि मिश्र ने 15 अक्टूबर वर्ष 2000 की घटना बताते हुए आरोप लगाया कि उसकी पत्नी राजलक्ष्मी पड़ोस की ही महिला प्रेमादेवी के साथ सुबह शौच के लिए निकली,इसी दौरान प्रेमादेवी के भाई हवलदार शुक्ल के सहयोग से आरोपी रामदेव मिश्र उसकी पत्नी को तमंचे के बल पर जीप पर जबरन बिठाकर अपहरण कर ले गया।देवमणि ने अपहरण के अलावा आरोपियों पर बलात्कार करने व जान से मार डालने की आशंका जताते हुए उसी दिन थाने में तहरीर दी। फिलहाल पुलिस ने मामले को हल्के में लिया आैर मामूली धाराओं में मुकदमा दर्ज कर कार्यवाही से इतिश्री कर ली। नतीजतन कई वर्षों तक पुलिस हाथ पर हाथ धरे बैठी रही,नतीजतन अपहृत महिला की बरामदगी नहीं हो सकी। पुलिसिया कार्यशैली से हार कर पीड़ित देवमणि ने हाईकोर्ट की शरण ली। जिसके उपरांत हरकत में आये थानाध्यक्ष ने घटना के करीब आठ वर्ष बाद 12 सितम्बर 2008 को आरोपीगण प्रेमादेवी पत्नी राम मिलन,रामदेव मिश्र पुत्र हौसिला प्रसाद एवं प्रेमा के भाई हवलदार शुक्ल के खिलाफ अपहरण का मुकदमा दर्ज किया। तात्कालीन विवेचक ने जांच को गंभीरता से लेने के बजाय सरसरी तौर पर मनमानी विवेचना कर आरोपियों को क्लीन चिट देते हुए मामले में फाइनल रिपोर्ट लगा दी।

देवमणि ने प्रोटेस्ट अर्जी देकर फाइनल रिपोर्ट को चुनौती दी। जिस पर सुनवाई के पश्चात अदालत ने 21 जनवरी 2014 को पुलिस की क्लीन चिट रिपोर्ट रद्द करते हुए अग्रिम विवेचना के लिए आदेश दिया।

कई माह तक विवेचना में रुचि ही नहीं ली गयी तो विवेचना में लापरवाही को देखते हुए देवमणि ने हाईकोर्ट की शरण लेते हुए अन्य शाखा से जांच कराने की मांग की। हाईकोर्ट ने प्रकरण में संज्ञान लेते हुए तत्कालीन एसपी को इस संबंध में निर्देशित किया। जिसके अनुपालन में एसपी ने मामले की जांच कूरेभार थाने से हटाकर क्राइम ब्रांच सेल के सुपुर्द कर दी। तात्कालीन क्राइम ब्रांच सेल के उप निरीक्षक धर्मराज उपाध्याय ने भी मामले में कोई रुचि न लेते हुए महज खानापूर्ति के लिए नाममात्र की विवेचना की और प्रकरण में हुई पुरानी जांच रिपोर्ट को ही दोहराते हुए संबंधित क्षेत्राधिकारी कार्यालय में भेज दिया,जबकि घटना के समर्थन में दो गवाहों ने अपना शपथ पत्र भी विवेचक को उपलब्ध कराया था,लेकिन विपक्षियों के प्रभाव में विवेचक ने उसे विवेचना का अंग बनाया ही नहीं आैर पुराने जांच अधिकारी की तरह ही उन्होंने भी मामले में फाइनल रिपोर्ट लगा दी।

पुलिस की यह फाइनल रिपोर्ट क्षेत्राधिकारी कार्यालय में पहुँचे करीब तीन वर्ष बीत जाने के बाद भी अब तक कोर्ट नहीं पहुंच सकी है,जिससे अगली कार्यवाही भी बाधित है। पुलिस की इस लचर तफ्तीश पर देवमणि की ओर से एसीजेएम पंचम की अदालत में मानीटरिंग अर्जी भी विचाराधीन है। जिस पर संज्ञान लेते हुए न्यायाधीश हरीश कुमार ने तात्कालीन हेड पेशी सच्चिदानंद पाठक से जवाब-तलब किया था। कई पेशियों पर सच्चिदानंद ने कोर्ट के आदेश को नजरअंदाज भी किया। जिस पर कोर्ट ने कड़ा रुख अपनाया तो कई पेशियों से जवाब देने में टाल-मटोल कर रहे सच्चिदानंद कुछ ही मिनटों में हाजिर हो गये। कोर्ट ने उनसे विवेचना रिपोर्ट के विषय में पूंछा तो सच्चिदानंद पाठक ने अपना स्थानांतरण हो जाने के बाद तात्कालीन एचसीपी राजाराम व हेड कांस्टेबिल को समस्त प्रपत्र रिसीव कराने की बात कही। सच्चिदानंद ने अपनी सफाई देने के बाद भी संबंधित पत्रावली की खोजबीन कराकर इसके संबंध में जवाब देने के लिए समय की मांग की। जिस पर अदालत ने मामले में सुनवाई के लिए आगामी 18 अक्टूबर की तिथि नियत की है। ऐसे में पुलिस की तफ्तीश पर नजर डाली जाय तो अगर अपहरण का मुकदमा ही गलत है तो आखिर राजलक्ष्मी 18 वर्षों से कहां है आैर अगर राजलक्ष्मी का अपहरण हुआ है तो मामले में कार्यवाही क्या हुई। इसका जवाब पुलिस के पास नहीं है।ऐसी ही सतही जांचों से आये दिन पुलिस की विवेचना पर सवाल उठता रहता है और आये दिन अपनी कमियों के चलते अदालत से इन्हें कड़ी फटकार भी खानी पड़ती है,पर पुलिस है सुधरना चाहती ही नहीं।पुलिस यह खेल कभी अनुभवहीनता, कभी लापरवाही तो कभी किसी फायदे के लिए करती है,लेकिन वह नही जानती है उनके इस खेल से किसी को न्याय नही मिलेगा या किसी का परिवार अपनो से दूर रह जाएगा,उन्हें तो बस अपनी ही पड़ी है। महकमे के उच्चाधिकारियो को भी आजकल जांच की गुणवत्ता के बजाय उनके निस्तारण की अधिकता ही पसंद आती है,शायद ऐसी वजहों से ही वे अपने अधीनस्थों के इस कागजी खेल को जानते हुए भी अंजान बने रहते है।

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