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यूनानी चिकित्सा पद्धति के जन्मदाता माने जाने वाले हकीक लुकमान ने कैसे पौधों से पूंछकर पता किया किस बीमारी में आयोगे काम!
कुछ सिद्ध महात्माओं में वृक्षों आदि का भी प्रारब्ध, पूर्व कर्म, जान लेने की क्षमता होती है। वे वृक्ष, लताओं आदि से बात कर लेते हैं। उल्लेखनीय है कि बोल कर वाणी से बात करने के अतिरिक्त तीन अन्य वार्तालाप विधा होती हैं।
परा, पश्यन्ति और बैखरी वाणी। जिसमें सिद्ध पुरुष अन्य आत्म तत्व से संचार सिद्ध करते हैं।
आयुर्वेद व यूनानी पद्धति के बारे में यही मान्यता है कि औषधीय गुणों का ज्ञान किसी परिकल्पना, प्रेक्षण से नहीं बल्कि ऋषि सत्ताएं और फ़कीर वनस्पतियों से सीधे बातचीत कर उनके गुण-दोष जान लेते थे।
यूनानी चिकित्सा पद्धति के जन्मदाता माने जाने वाले हकीक लुकमान के बारे में भी ऐसी कहानियां हैं, कि वे गाँव - गाँव भटकने वाले एक फ़कीर थे। जिन्होंने एक लाख वनस्पतियों का गुण धर्म ज्ञात कर बताया था। लुकमान का भी कहना था - मैंने तो पौधों से ही पूछ लिया कि तुम्हारा गुण धर्म क्या है? और तो मेरे पास कोई उपाय नहीं था। मैं तो पौधों के पास ही आँखें बंद कर ध्यानस्थ होकर बैठ जाता था। उसी से पूछा करता था कि, तू किस रोग के काम आ सकता है, तू मुझे बता दे। पौधा जो बता देता था, मैं वही लिख लेता था। ऐसे मैंने जीवन भर में एक लाख पौधों से पूछ कर लिखा है।
हालाँकि लुकमान के काल से पहले सुश्रुत संहिता में उल्लेखित आयुर्वेद में वनस्पति के गुण - धर्म का उल्लेख है। कंकायन ने अपने गुरु भरद्वाज के आदेश से वाह्लिक (बाल्टिक) से अरब ईरान तक में आयुर्वेद का प्रचार किया था इसीलिए उन्हें वाह्लिक भृक् कहा जाता है। मैंने यह भी देखा कि भरद्वाज के वंशवेल्लि में आयुर्वेद के प्रति संस्कारत: रुचि होती है।
सीता की खोज में उन्मत्त राम ने कदंब, विल्व, अर्जुन ककुभ, तिलक, अशोक, ताल, जम्बू और कर्णिकार वृक्षों से सीता का पता पूछा था। भ्रांत राम ने आम्र, नीप, विशाल साल, पनस, कुरब, धव, अनार, बकुल, पुंनाग, चन्दन, केतक आदि वृक्षों से जो दंडकारण्य के उस विशेष भाग में थे, उनसे सीता के विषय में जानकारी प्राप्त की थी।
और तरकारी, सब्जियों का बोलना मैंने बचपन में स्वयं अपनी परनानी के सानिध्य में अनुभव किया है।
सुबह सब्जी की क्यारियों को सींचने के बाद बड़े से बगीचे में मैं उनके पीछे - पीछे घूमती थी। मेरी परनानी (उस समय 92-93 वर्ष की रही होंगी और मैं 5-6 साल की। वो घूम - घूम कर चुनती थीं कि खाने के लिए किसे लेना है!
मानो सब्जियाँ पुकारती थीं कि, 'मुझे ले लो, यह बात दूर से ही अनुभव हो जाती थी। कई सब्जियां कहती थीं कि मुझे मत छुओ। एक - दो दिन बाद वो जब तैयार होती थीं तो कहती थीं कि मुझे चुन लो।'
महावीर स्वामी भी तो कहते हैं कि, कच्चे फल को तोड़ कर मत खाना। इससे पौधे को अत्याधिक पीड़ा होती है. फल पक जाने के बाद खाए जाने को तैयार होता है और प्रसन्न होता है।
यह परा नहीं बल्कि पश्यन्ति शैली की बातचीत है। सहज योग से इसका अनुभव करना किसी के लिए भी सम्भव है।
थोड़े बड़े होने तक मेरे मन में यह कल्पना भी नहीं थी कि यह सबके साथ होने वाला अनुभव नहीं है!
तब मुझे ऐसा लगा कि कहीं यह मान लेने जैसी कल्पना तो नहीं? पर यह मन में सोचने जैसी बात नहीं है। आज जब भौतिक, परा भौतिक ऊर्जा को मापने के लिए हमारे पास यंत्र हैं तो मेरे ये अनुभव उस प्रयोग में भी सत्य सिद्ध हुए।
संत नामदेव, संत जम्भेश्वर, मुहम्मद साहब, स्वामी हरिदास, स्कंद पुराण, शत पथ ब्राह्मण, कुरान जैसे ग्रंथों और संतों ने वृक्ष के इस महात्म को बताया है। विश्नोई पंथ तो हरे वृक्षों और वनस्पतियों की रक्षा के लिए जाना ही जाता है।
जीवन ठीक से जीना है तो पेड़ - पौधों, वनस्पतियों के साथ सम्वेदनशील होना अपरिहार्य है। असंतुलित भौतिक विकास से विनाश का रास्ता खुलता है।
आज महानगरों में ही नहीं छोटे शहरों कस्बों में भी साँस लेने योग्य हवा नहीं रह गई है। भूमिगत जल के ज़हर हो जाने के दुष्परिणाम हम प्रत्यक्ष - परोक्ष रोज ही भुगत रहे हैं।
पर सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि, आज इस परिस्थिति में पहुंचने के बाद भी हम अपनी आँखें बंद किए पड़े रहना चाहते हैं।
हर दिन जीवन को सबके लिए और दुष्कर बनते हुए देखते रहते हैं।