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मोहर्रम की सातवीं तारीख पर हजरत इमाम हुसैन की शहादत की याद में दुलदुल (घोड़ा) की सवारी देखने को उमड़ी भीड़
चरखारी , बुंदेलखंड का एक चर्चित कस्बा है - वैसे इसे शापित कहते हैं, उजड़ा सा है यहा से कई बड़े बड़े नाम निकले और देश दुनिया में छा गये लेकिन यह क़स्बा बे इन्तिहाँ खूबसूरत होने के बावजूद उपेक्षित रहा -- यहा सैंकड़ों तालाब हैं, कभी तैरता रंगमंच भी था -- लेकिन आज हम यहा के अजब-गजब मुहर्रम की बात कर रहे हैं.
चरखारी के राजा राजा रतन ङ्क्षसह जूदेव ने 1857 में मोहर्रम की सातवीं तारीख पर हजरत इमाम हुसैन की शहादत की याद में दुलदुल (घोड़ा) की सवारी निकालने की परंपरा शुरू कराई थी, रियासतें सामाप्त हुईं तो मोहर्रम कमेटी ने इसकी जिम्मेदारी संभाल ली।
यहाँ बीते 166 सालों से दुल दुल घोड़ी निकालने की अनूठी परम्परा है , मुहर्रम सातवीं तारीख को यहाँ एक घोड़ी निकलती है -इमाम हुसैन की पवित्र घोड़ी की याद में -- छोटे से कसबे में दूर दूर के हज़ारों लोग एकत्र होते हैं-- इस साल कोई अस्सी हज़ार लोग आये --
हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रतीक इस जुलूस से सभी धर्मों के लोगों का खासा लगाव है. ऐसी मान्यता है कि इमाम हुसैन का घोड़ा जिस अकीदतमंत का प्रसाद खा लेता है उसकी मुराद पूरी हो जाती है और अकीदतमंद चांदी का नीबू सवारी में चढ़ाता है. यहां 70 से 80 हजार की भीड़ इमाम हुसैन के जुलूस का दीदार करने आती है. ये सवारी चरखारी कसबे के मुकेरीपुरा मुहाल से दुलदुल सजाकर निकाली गई. कसबे के विभिन्न इमाम चौकों पर पहुंच कर हाजरी दी गई. वर्षों से इसी श्रद्धा के साथ जुलूस निकलता है, जिसमें मुरादे करने जनपद के ही नहीं बल्कि नजदीकी प्रदेश से भी अकीदतमंद अपनी मन्नते लेकर पहुंचते है और पाक घोड़े को जलेबी खिलाकर प्रसाद चढ़ाते है. डीएम मनोज कुमार और एसपी सुधा सिंह ने इमाम हुसैन की सवारी घोड़े को जलेबी खिलाकर जुलूस को रवाना किया, जो सुबह तक कस्बे में निर्धारित स्थानों में घूमता रहा.
अपनी मन्नत के लिए घोड़े के शरीर में लगे तीरों में नीबू लगाने पड़ता है. जब अकीदतमंत कि मन्नत पूरी हो जाती है तो अकीदतमंत अगले साल इसी नीबू कि जगह चांदी और सोने का नीबू अपनी श्रद्धा के अनुसार चढ़ाता है. यहां सोने के दूकानदार हिन्दू मुस्लिम एकता की मिसाल पेश करते हुए इमाम की सवारी में लगने वाले चांदी के नीबू की बिक्री के लिए पूरा सहयोग करते है. इनका मानना है कि आने वाले अकीदतमंद सवारी में चांदी का नीबू चढ़ाने के लिए यहां आकर नीबू खरीदते है. हजरत इमाम हुसैन की इस सवारी में हिन्दू भाइयों द्वारा लंगर का इंतजाम भी किया जाता है, जिसे यहां आने वाले लोग प्रसाद के रूप में खाते है. वहीं, लोगों कि मान्यता है कि इमाम के घोड़े को जलेबी प्रसाद के रूप में खिलाने से उनकी सारी मन्नतें पूरी हो जाती है. शायद यही वजह है कि यहां जलेबी की दुकाने बड़ी तादाद में लगती है और अकीदतमंत घोड़े को खिलाने में लग जाते है. कहा जाता है कि जिस अकीदतमंत का पाक घोड़ा प्रसाद खाता है मानो उसका यहां आना ही सफल हो जाता है. यही नहीं आशीर्वाद के लिए नगर में रात भर चांदी सोने की दुकानें खुली रहती हैं .
यहाँ आये हज़ारों लोगों के लिए भोजन अर्थात लंगर का इंतजाम हिन्दू समुदाय ही करता है . अभी पांच साल पहले नवरात्री और मुहर्रम साथ पडा तो एक विलक्षण दृश्य देखने को मिला था .जिस रास्ते दुल दुल घोड़ी का जुलूस निकल रहा था, वहां मां दुर्गा का पंडाल था, जहां कीर्तन हो रहे थे। मुहर्रम के जुलूस के निकलते समय दुर्गा पंडाल से भजन कीर्तन और मां के जयकारों की बजाय मुहर्रम की मातमी धुन बजने लगी। दोनों धर्मों के लोगों बताते हैं कि यहां हमेशा ही ऐसा होता है।
तो भैये ये देश ऐसा ही है - अपनी अपनी मान्यता और आस्था और श्रद्धा जताने का तरीका - न यह अरब से चलेगा न वेटिकन से और न ही रेशम बाग़ से