अजब गजब

देखिये भारतीय रेल का यह साफ़ सुथरा रेलवे स्टेशन

Special Coverage News
29 Nov 2018 1:31 PM GMT
देखिये भारतीय रेल का यह साफ़ सुथरा रेलवे स्टेशन
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ट्रेन इटारसी और नागपुर के बीच के खूबसूरत रास्ते को पार कर चुकी है। बेशक कि यह कोई कोंकण रेलवे जैसा स्वप्निल रास्ता नहीं है कि जिसे सिर्फ देखने के लिए ही ट्रेन की यात्रा की जाए। मगर यह इतना खूबसूरत रास्ता तो है ही कि इससे गुजरते हुए दिल मे जरूर बसा लिया जाए।

वैसे पटना से हैदराबाद जाते हुए ट्रेन के बाहर का नजारा भी बदल गया है और उसके भीतर का माहौल भी। बाहर अब उत्तर भारत के समतल मैदान पीछे छूट गए हैं और भीतर अब तेलुगु भाषा-भाषी लोगों का बर्चस्व दिखाई देने लगा है। सामने की सीट पर जो आंटी कल शाम से ऊपर वाली बर्थ पर सिमटी हुई थी, अब वे नीचे उतरकर अपनी बिहारी सहयात्री से हिसाब बराबर कर रही है । मजेदार यह है कि शुरू-शुरू में तो बिहारी अंटी ने उन्हें हिंदी में समझाने का आग्रह किया, मगर सामने वाली आंटी जब अपने तेलुगु से टस से मस नही हुई तो बिहारिन सहयात्री भी एकदम ठेठ आरा वाली भोजपुरी पर उतर आयी हैं।

उधर बाहर जब कोई भी छोटा सा स्टेशन गुजरता है तो न चाहते हुए भी अपने यहां के छोटे स्टेशनो की दशा और दिशा को यादकर एक हूक सी उठने लगती है। यहां इन छोटे स्टेशनों के पास भी बैठने के लिए पर्याप्त जगह है, उन्हें साफ-सुथरे ढंग से बनाया और रखा गया है । और वे लगभग खाली-खाली से दिखाई देते हैं।

जबकि अपने यहां के छोटे स्टेशनों की कहानी कुछ इतनी दयनीय है कि बस क्या कहा जाए। मसलन बलिया जिले में बकुलहां से चितबड़ागांव तक के सभी स्टेशनों में केवल बलिया ही एक ऐसा स्टेशन हैं जिसका प्लेटफार्म ट्रेन की ऊंचाई के अनुरूप बना हुआ है। हां.... सुरेमनपुर और फेफना में भी एक-एक । जबकि बैठने के लिए कुर्सियों की तलाश हमारे यहां का कोई यात्री अब अपने स्टेशनों पर करता भी नही। क्योंकि वह जानता है कि दो-तीन सौ की भीड़ के लिए उपलब्द्धता तो केवल दस या बीस की ही है।

वैसे ट्रेन के बाहर और भीतर की इस यात्रा के साथ 'पाब्लो नेरुदा' की स्मृतियां - "मेरा जीवन मेरा समय" की यात्रा भी चल रही है जिसमें वे कहते हैं कि जिसने चिली के जंगलों को नही देखा, वह इस पृथ्वी को समझ ही नही सकता। मैं पूरी माजरत के साथ नेरुदा के इस वक्तव्य में कुछ जोड़ना चाहता हूँ कि एक दुनिया तो भारतीय रेल के भीतर भी बसती है जिसे देखना और समझना भी इस जीवन की कोई कम बड़ी उपलब्द्धि नहीं है।

और अंत मे एक शुकराना इस जीवन का भी, जिसने दो महीने के अंतराल पर ही एक और यात्रा की मोहलत बख्शी है।

राम जी तिवारी की कलम से

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