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फिर तो अश्लील साहित्य लिखने वालों को सूली पर चढ़ा देना चाहिए ...😕
प्रसिद्ध पोर्न स्टार रॉन जेरेमी ने दावा किया था कि बच्चों पर हिंसक वीडियो गेम्स का नकारात्मक प्रभाव अश्लील साहित्य से कहीं अधिक है। जेरेमी की सलाह थी कि माता-पिता को ऐसे गेम्स के हानिकारक प्रभाव से अधिक चिंतित होना चाहिए।
पोर्न स्टार ने ये बातें अमरीकी शहर लास वेगस में उपभोक्ता इलेक्ट्रॉनिक्स शो के दौरान पोर्नोग्राफ़ी अर्थात अश्लील साहित्य पर आयोजित एक चर्चा में कही थी। जेरेमी के इस ताज़ा बयान से विवाद खड़ा हो गया था और वीडियो गेम्स बनाने वालों ने इसकी तीखी आलोचना की थी।
वीडियो गेम्स बनाने वालों ने जेरेमी पर 'लापरवाही' का आरोप लगाया था।
उनके इस बयान पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए गेमिंग न्यूज़ के जिम स्टर्लिंग ने कहा था, "ये पाखंडी आचरण है, कोई अश्लील साहित्य की वकालत इस बुनियाद पर नहीं कर सकता कि कोई दूसरी चीज़ अधिक ग़लत है।"
हालांकि एक अन्य वीडियो गेमिंग साइट पर एंडी चाक ने लिखा था, कि जेरेमी के बयान की पूरी तरह से अनदेखी नहीं की जा सकती।
जेरेमी ने चर्चा के दौरान माता-पिता से ये भी आग्रह किया कि बच्चे वयस्क साइटों पर न जाए इसके लिए उन्हें कोशिशें करनी चाहिए। उनके अनुसार उद्योगजगत जो काम कर सकता था वो कर चुका है। उनका कहना था कि माता-पिता इस तरह के साइटों को ब्लॉक कर सकते हैं।
ध्यान रहे अमरीका में पोर्न का बाज़ार क़रीब दस अरब डॉलर का है, लेकिन क्या वो लोग जो 2006 से चली आ रही कविता पर बवाल मचा रहें हैं, अपने बच्चो से स्मार्ट फोन छीनने की हिमाकत कर सकेंगे, ताकि उनके बच्चे PUBG जैसे खतरनाक गेम्स न खेलें ? बच्चो को छोड़ दीजिए, और एक बार गालिब का आइना खुद ही झांक लीजिए।
बात सन् 2013 की है जब अखिलेश जायसवाल ने 'मस्तराम' नामक फिल्म बनाई थी। यह एक ऐसे लेखक की कहानी है जो सेक्सी किताबें लिखता है। मस्तराम नामक लेखक ने 80 और 90 के दशक में अनेक पुस्तकें लिखी जो रेलवे और बस स्टेशन के इर्दगिर्द मिलती थी। तो क्या मस्तराम पर FIR ठुकवां दें?(ठुकवांने का अर्थ विवेक से ग्रहण करें) और अखिलेश जायसवाल को हवालात पहुंचा दें? बताइयेगा प्रभु क्या करें ?
इस्मत चुगतई का नाम तो सब जानते ही हैं। इस्मत वो ऐसी 'अश्लील लेखिका', थी जिसकी कहानियों में लोग 'सेक्स' ढूंढ कर पढ़ा करते थे...एक अंश
'ओई लड़की! देखकर नहीं खुजाती! मेरी पसलियाँ नोचे डालती है!''
बेगम जान शरारत से मुस्करायीं और मैं झेंप गई।
''इधर आकर मेरे पास लेट जा।''
''उन्होंने मुझे बाजू पर सिर रखकर लिटा लिया।
''अब है, कितनी सूख रही है। पसलियाँ निकल रही हैं।'' उन्होंने मेरी पसलियाँ गिनना शुरू कीं।
''ऊँ!'' मैं भुनभुनायी।
''ओइ! तो क्या मैं खा जाऊँगी? कैसा तंग स्वेटर बना है! गरम बनियान भी नहीं पहना तुमने!''
मैं कुलबुलाने लगी।
''कितनी पसलियाँ होती हैं?'' उन्होंने बात बदली।
''एक तरफ नौ और दूसरी तरफ दस।''
मैंने स्कूल में याद की हुई हाइजिन की मदद ली। वह भी ऊटपटाँग।
''हटाओ तो हाथ हाँ, एक दो तीन...''
मेरा दिल चाहा किसी तरह भागूँ और उन्होंने जोर से भींचा।
''ऊँ!'' मैं मचल गई।
बेगम जान जोर-जोर से हँसने लगीं...
(कहानी 'लिहाफ़' का एक अंश)
इस्मत चुगतई की ये कहानी 1942 में अदब-ए-लतीफ़ नाम की साहित्यिक पत्रिका में छपी थी। यही वो कहानी है, जिससे इस्मत चुगतई की पहचान बनी, या यूं कहें कि बदनामी हुई। इस कहानी ने इस्मत आपा के ऊपर अश्लील लेखिका का टैग चस्पा कर दिया। आज जिस इस्मत चुगतई को हिन्दी-उर्दू साहित्य लेखन की पहली स्त्रीवादी लेखिका कहते हैं, वो अपने ज़माने में अश्लील कहलाती थीं। उनकी कहानियों को फूहड़ कहा गया। लिहाफ़ के कारण उन पर लाहौर कोर्ट में मुक़दमा चला। कहानीं में मौजूद समलैंगिकता को अश्लील माना जा रहा था। आप सोच भी सकते हैं, 1942 में कोई महिला समलैंगिकता पर लिख रहा है। ख़ैर जिस अंश को मैंने ऊपर रखा है, उसमें समलैंगिकता के अलावा बाल शोषण भी दिख रहा है, लेकिन तब ये मुद्दा शायद सोच से परे था।
लिहाफ़ के बारे में ख़ुद इस्मत चुगतई क्या कहती हैं...
'उस दिन से मुझे अश्लील लेखिका का नाम दे दिया गया। 'लिहाफ़' से पहले और 'लिहाफ' के बाद मैंने जो कुछ लिखा किसी ने उस पर ध्यान नहीं दिया। मैं सेक्स पर लिखने वाली अश्लील लेखिका मान ली गई। ये तो अभी कुछ वर्षों से युवा पाठकों ने मुझे बताया कि मैंने अश्लील साहित्य नहीं, यथार्थ साहित्य दिया है। मैं खुश हूं कि जीते जी मुझे समझने वाले पैदा हो गए। मंटो को तो पागल बना दिया गया। प्रगतिशीलों ने भी उस का साथ न दिया। मुझे प्रगतिशीलों ने ठुकराया नहीं और न ही सिर चढ़ाया।
मंटो खाक में मिल गया क्योंकि पाकिस्तान में वह कंगाल था। मैं बहुत खुश और संतुष्ट थी। फिल्मों से हमारी बहुत अच्छी आमदनी थी और साहित्यिक मौत या जिंदगी की परवाह नहीं थी। 'लिहाफ़' का लेबल अब भी मेरी हस्ती पर चिपका हुआ है। जिसे लोग प्रसिद्धि कहते हैं, वह बदनामी के रूप में इस कहानी पर इतनी मिली कि उल्टी आने लगी। 'लिहाफ़' मेरी चिढ़ बन गया। जब मैंने 'टेढ़ी लकीर' लिखी और शाहिद अहमद देहलवी को भेजी, तो उन्होंने मुहम्मद हसन असकरी को पढ़ने को दी। उन्होंने मुझे राय दी कि मैं अपने उपन्यास की हीरोइन को 'लिहाफ़' ट्रेड का बना दूं। मारे गुस्से के मेरा खून खौल उठा। मैंने वह उपन्यास वापस मंगवा लिया। 'लिहाफ़' ने मुझे बहुत जूते खिलाए थे। इस कहानी पर मेरी और शाहिद की इतनी लड़ाइयां हुर्इं कि जिंदगी युद्धभूमि बन गई।'
इस्मत इस पुरुषप्रधान समाज में महिलाओं के किस्से उनकी ज़बानी सुनाती थीं।
महिलाओं से जुड़े मुद्दे उनकी कहानियों के केंद्र में होते थे। इसलिए उनकी कहानियां अख़रती थी, गिने-चुने लोग ही उन्हें बोल्ड कहा करते थे। आज भी वो समाज तैयार नहीं हुआ जो इस्मत चुगताई की कहानियों को असहज हुए बिना सुन सके। तो इसका मतलब ये हुआ कि अश्लील लिखने वालो को ही सूली पर चढ़ा दीजिए, ना होगा बांस, ना ढपली पिटेगी।
- प्रत्यक्ष मिश्रा (स्वतंत्र पत्रकार & राइटर )
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