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अतीत की धुंध: गदबेर होते तकरीबन हर घर के बच्चे ढकनी लिए दुआर पर खड़े होकर गांव के हर घर की तरफ गिद्ध दृष्टि ताकते थे कि धुंआ किस आंगन से पहले उठा!
ओमप्रकाश अश्क
सन् 1966-67 का साल रहा होगा। तब मुझे होश आ गया था। इसलिए कि 1959 में पैदा हुआ था। सुन-देख कर बातें -चीजें समझ में आने लगी थीं। मसलन नंगे नहीं रहना, बड़े कहते तो खुद नंगे न रहने का ज्ञान बढ़ जाता। उन दिनों बिहार में नहरों का जाल नहीं बिछा था। और, शायद वर्षों से सूखा पड़ता आ रहा था।
मेरी समझ विकसित हुई तो चावल को बाजार की वस्तु मानता था। बोरी में चावल बिकता है, यह तब तक पता नहीं चला, जब तक किसी बहाने किसी की अंगुली पकड़ बाजार नहीं गया था।वहीं एक चावल की दुकान पर बोरों में रखा चावल देखा। समझ के बावजूद उस वक्त तक यही जानता था कि चावल झोले में ही मिलता है और सेर-दो सेर से ज्यादा नहीं मिलता है।
गदबेर होते तकरीबन हर घर के बच्चे ढकनी लिए दुआर पर खड़े होकर गांव के हर घर की तरफ गिद्ध दृष्टि रखते कि धुंआ किस आंगन से पहले उठा। फिर दौड़ते पहुंच जाते आग मांगने। चूल्हा जले दस-बीस मिनट होने के बाद किसी को आग देने में कोफ्त नहीं होती थी, लेकिन तुरंत जले चूल्हे से आग के बदले उलाहना मिलती। खासकर बरसात और जाड़े के दिनों में। बारिश या जाड़े की ओद (कच्ची) लकड़ी सुलगाने में घर की भौजाई, चाची, ईया, बहिना, फुआ को मुंह से फूंक मारते, धुएं से आंख में भर आये लोर के बावजूद चूल्हा जल पायेगा कि नहीं, इसकी चिंता उनके माथे पर सवार होती। इसी में उलाहने का अवसर बन जाता।
भाग्य ने साथ दिया तो तीसरे-चौथे तक तो चल जाएगा, पर पांचवां नंबर वाला अभागा निकलता। वह आग तो पा जाता लेकिन यह सुनने से नहीं बचता कि सब चिनगारी देइए देब त चूल्हवे बुता जाई। फिर वे फूंक मार चिंगारी बनाने में जुट जातीं। इस बीच पहले बाजी मारने वालों के घरों से धुंआ उठने लगता तो छूटे फटके बच्चे उन घरों की ओर बंट कर भागते।
तब न किसी की अंटी में इतना दाम होता कि बोरी भर चावल एक बार घर ला सकें। बाबू साहबों के घरों में बाजार से अन्न खरीदना भी भारी मानसिक उद्वेलन का काम होता। इसलिए गदबेर के वक्त घरों में जब चूल्हे सुलगाने का समय होता, बड़का बाबूजी हाथ में झोला लिए बाजार जाते और मुंह अंधेरा होते ही उधारी में साव जी की दुकान से सेर-दो सेर चावल लेते। हर सुबह साव जी दुआरे दुआरे घूमते लहना (उधारी का बकाया) तसीलने (वसूलने)। कई बार साव जी उधारी में आनाकानी करते और घंटों उनकी आढ़त अगोरने के बाद गुहाइन मुंह बनाये चावल दे देते।
चूल्हे जल चुके होते। अदहन खौल रहा होता। कई बार ऐसा भी हुआ कि अदहन खौल कर ठंडा हो गया। इसलिए कि बाजार से चावल घर पहुंचने में विलंब हो जाता। हां, इस दौरान छान्हीं या टाटी पर चढ़े नेनुआ, लौकी या कुम्हड़े की सब्जी बन चुकी होती। चावल आता तो दोबारा बटुला (फूलहा पात्र) चूल्हे पर चढ़ता। माई, बड़की माई या भौजाई की हड़बड़ी तेज आंच पर भात पका देने की होती, ताकि हम जैसे बच्चे जल्दी खाकर सो जाएं।
अतीत की धुंध- 2
भात की हांडी में उबाल के साथ हवा में एक अजीब गंध तिर जाती। दुआर पर बैठे संवाग तो गंध से वाकिफ थे, पर कहीं कोई पड़ोस का संभ्रांत बैठा होता तो बरबस टोक देता- केकरा इहां सड़ियल भात पाकता। तब संवांग मौन साधने में ही भलाई समझते या फिर दायें, बायें, आगे और पीछे गर्दन घुमाकर ऐसा स्वांग करते, जैसे दूसरे के घर से भात की गोबरीली गंध आ रही है।
खाने में तब ब्रेकफास्ट और ब्रंच की कोई जगह नहीं होती। सुबह कस कर खा लिया तो फिर रात में ही भोजन मिलता। अलबत्ता गदबेर में भूंजा, चूड़ा, महुए का लट्टा या तिजहरिया में सत्तू जरूर मिल जाता। इसे ही ब्रंच मान सभी खुशी खुशी खा लेते। हां, भदेया में मकई की फसल बाल से लदी रहती। उसकी होरहट्टी लगती और पांच-सात होरहा (भुट्टे) तो सामान्य तौर पर सभी खाते। कुछ तो इससे भी अधिक।
मक्के की फसल तैयार होने से थोड़ा पहले दाने पुष्ट हो जाते तो उसे बाल से अलग कर ओखल में कूट कर चावल के टुकड़ों के आकार का बना लिया जाता। उसे उबाल कर गाढ़ा घोल तैयार होता। फिर उसे दार्ह (ऊंचे किनारे) वाली थालियों में पलट दिया जाता। ठंडा होने पर छेने की बर्फी जैसा दिखता। घरों में गाय-गोरू रखने का चलन था। दूध-दही की किसी घर में कमी न थी। दूध-दही ही मकई का भात खाने का तिवन बनता। मक्के के सत्तू की मोटी रोटियां बनतीं, जिसे अमूमन दूध-मट्ठे के अलावा कंदे की सब्जी या सिधरी मछरी (पोठिया) से हम लोग खा लेते थे। मक्के की एक रोटी किसी युवा-प्रौढ़ के भरपेट भोजन के लिए पर्याप्त होती।
मक्के के भात का प्रसंग आया तो गांव की एक बात याद आ गयी। गांवों में बिजली तब दुर्लभ चीज थी। गदबेर होते ही हर घर में खाना पकने लगता। धुंधलका होते ही सभी खाकर बिछावन पकड़ लेते। पानी का साधन कुएं ही थे। धुंधलके में खाना बनाने के लिए एक सज्जन बाल्टी भर पानी कुएं से खींच लाये। अदहन में पानी उड़ेल दिया गया। पानी खौलने लगा तो मकई के भात का सामान डाल दिया गया। आधे घंटे में भात पक गया। घर के सवांग खाने बैठे। किरासन तब बड़ा कीमती था, इसलिए ढिबरी संझवत के बाद बुता दी गयी थी। एक सज्जन खाते रहे। आखिर में उन्हें कुछ ऐसी चीज का अहसास हुआ, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। ढिबरी तो जल नहीं सकती थी, इसलिए कि चूल्हा ठंडा हो चुका था और दियासलाई तो दुर्लभ चीज थी। आखिरकार किसी से चोर बत्ती (टार्च) मांगी गयी। बत्ती जली तो थाली में उबला बेंग (मेढ़क) था, जो कुएं से बाल्टी के पानी में चला आया था।
पहुना तब किसी फरिश्ते से कम न थे। पाहुन आने की सूचना इतनी खुशी देती कि हरकारे की तरह हम बच्चे पड़ोस ही नहीं, गाव भर सनेसा बांट आया करते थे। यह कहते हुए कि- आज हमरा घरे पहुना अइहें। पेट पर हाथ फेरते खुले-खिले मन से बताते- आज हमरा घरे भात बनी। दरअसल घर में किसी पाहुन के आने पर दाल-भात और सब्जी बनती। भात के लिए भी सामान्य दिनों वाला चावल की जगह बढ़िया चावल आता। हां, वही चावल पूरे घर के लिए नहीं बनता। पाहुन के लिए अच्छा तो घर वालों के लिए बसैना (दुर्गंध देने वाला) भात ही बनता। पाहुन के खाने के बाद बचा भात बच्चों को मिलता।