भारत की स्वास्थ्य सुविधाओं के बारे में अमेरिकी अर्थशास्त्री, जलवायु विशेषज्ञ और संयुक्त राष्ट्र् के महासचिव रहे कोफी अन्नान के विकास नीति सलाहकार जेफ्री सैश का मानना है कि भारत ने आजादी के बाद से ही स्वास्थ्य में बहुत कम निवेश किया है। राष्ट्र्ीय स्तर पर हो रही प्रतिक्रियायें और समाज के निचले स्तर से इसकी बढ़ती मांग को देखते हुए भारत को न्यूनतम स्वास्थ्य सेवा सुनिश्चित करने के लिए कम से कम 50-60 डालर प्रति व्यक्ति की बेहद जरूरत है। जरूरत से कम निवेश एक पुरानी बीमारी है। यह ऐसी चीज है जिसे निश्चित रूप से अब 2020 से आगे नहीं जाना चाहिए। क्योंकि अब आपके पास सभी माध्यम हैं। ऐसे हालात में अधिक निवेश और कुशल प्रबंधन समय की मांग है। इसे नकारा नहीं जा सकता। दुख इस बात का है कि आज भी स्वास्थ्य सुविधाओं के मामले में दुनिया में भारत की रैंक्रिग 145 है। आबादी, आकार, तकनीक और प्रचार के मामले में हम भले शीर्ष पर होने का दावा करते रहें, लेकिन स्वास्थ्य के मामले में हमारा रिकार्ड बहुत ही शोचनीय है। नतीजन लोगों को गुणवत्ता पूर्ण चिकित्सा सुविधा नहीं मिल पाती। कोरोना महामारी के दौर में इस तथ्य को सबके सामने उजागर करके रख दिया है। वैश्विक स्तर पर देखें तो दुनिया में अभी तक कोरोना 77,4,299 से अधिक लोगों की जान ले चुका है। दुनिया के 188 देशों में कोरोना संक्रमित 21,901,102 से कहीं ज्यादा है। हमारे यहां 17 अगस्त तक इससे हुई मौतों का आंकड़ा 51 हजार 797 और संक्रमितों का 27,02,742 को पार कर चुका है। देश में संक्रमितों की रोजाना हो रही लगभग 60 हजार से अधिक की बढ़ोतरी गंभीर चिंता का विषय है। यह हालात की भयावहता का सबूत है। यही हाल रहा ता कुछ ही दिनों में कोरोना संक्रमितों के मामले में हमारा देश अमेरिका को भी पीछे छोड़ शीर्ष पर पहुंच जायेगा।
इस बारे में हार्बर्ड हैल्थ इंस्टीट्यूट के प्रख्यात चिकित्सक डा. आशीष दत्ता का कहना है कि कोरोना को लेकर भारतीय नीति समझ से परे है। पूर्ण लाॅकडाउन समाप्त होने के बाद के हालात सबूत हैं कि कोरोना के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं। भारत कोरोना का ग्लोबल हाॅट स्पाॅट बनता जा रहा है। जरूरत यह है कि कोरोना मामलों की जांच में तेजी लायी जाये। गंगाराम अस्पताल के डाक्टर अरविंद कुमार की मानें तो देश की लाॅकडाउन की नीति कारगर नहीं रही है। लाॅकडाउन का मतलब है कि किसी भी तरह संक्रमण को रोका जाये। पूर्ण लाॅकडाउन ही इसका कारगर उपाय है। एम्स के डाक्टर विनय हर्डा का कहना है कि फिलहाल कोरोना के खात्मे की उम्मीद दूर की कौड़ी है। इसलिए धैर्य के साथ हमें सावधानी के उपायों का पालन करना बेहद जरूरी है। हालात की गंभीरता को देख अब फिर कुछ राज्यों में लाॅक्डाउन बढ़ा दिया गया है। कहीं-कहीं हफ्ते में दो दिन तो कहीं तीन दिन पूर्ण लाॅकडाउन कर दिया गया है। हालात की भयावहता का सबूत यह है कि कहीं अस्पतालों में इंजैक्शन लगाने वाला नहीं है, कहीं स्ट्र्ैचर नही ंतो कहीं एम्बुलैंस नहीं है। कहीं क्वाराइंटाइन सेंटर में गंदगी का साम्राज्य है, कहीं पानी भरा है, तो कहीं कुत्तों का बसेरा है। कहीं एक हाल में 20-20 संक्रमित हैं और एक शौचालय है। सबसे बुरी हालत बिहार की है जहां शासन-प्रशासन मौन है और क्वाराइंटाइन सेंटर में दवा की बात तो दीगर है, पानी ही नहीं है। अररिया में बदहाली का आलम यह है कि बिना जांच कोरोना पाजिटिव बता दिया जा रहा है।
फिर देश की स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली किसी से छिपी नहीं है। वह बात दीगर है कि स्वास्थ्य कर्मी दिन-रात एक कर संक्रमितों का इलाज कर रहे हैं। सैकड़ों अपनी जान भी गंवा चुके हैं। जबकि जीवन के अधिकार में स्वस्थ जीवन का अधिकार शामिल है लेकिन इस ओर ध्यान न दिया जाना बहुत बड़ा सवाल खड़ा करता है। सीडीडीईपी की रिपोर्ट को मानें तो हमारे यहां 10 लाख 41 हजार 395 एलोपैथिक डाक्टर रजिस्टर्ड हैं। हर 10,189 लोगों पर एक डाक्टर है जबकि डब्ल्यूएचओ ने एक हजार लोगों पर एक डाक्टर की सिफारिश की है। इस तरह छह लाख डाक्टरों की कमी है। हर 483 लोगों पर एक नर्स है यानी 20 लाख नर्सों की कमी है। यहां डाक्टर मरीजों को दो मिनट का समय भी नहीं दे पाते। जबकि अमेरिका, स्वीडन और नार्वे जैसे देशों में डाक्टर मरीज को 20 मिनट का समय देते हैं। यहां 90 करोड़ ग्रामीण आबादी की स्वास्थ्य सम्बंधी देखभाल हेतु 1.1 लाख डाक्टर हैं। ग्रामीण इलाके में 5 में केवल एक डाक्टर ठीक से प्रशिक्षित है। हमारे ग्रामीण इलाकों की स्थिति पाकिस्तान, वियतनाम और अल्जीरिया से भी बदतर है। स्वास्थ्य सेवाओं और डाक्टरों की मौजूदगी के मामले में गांव और शहरों में बहुत अंतर है। ग्रामीण इलाकों की हालत बेहद खराब है। दि हेल्थ वर्क फोर्स इन इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार देश में ढाई लाख हेल्थ वर्करों में से 59.2 फीसदी शहरी इलाकों में जबकि 40.8 फीसदी गांव में प्रैक्टिस करते हैं। कुल मिलाकर 72.2 फीसदी जनता के लिए केवल 40.8 फीसदी हैल्थ वर्कर हैं। देश में एक लाख आबादी पर 79.7 फीसदी डाक्टर, 61.3 फीसदी नर्स और 201 हैल्थ वर्कर हैं। आजादी के समय हमारे यहां कुल 23 मेडीकल कालेज थे जबकि 2016 में 420। उसके बाद खुले मेडीकल कालेजों की तादाद अलग है। इनमें हर साल केवल 60 हजार डाक्टर तैयार हो पाते हैं। इनमें 55 फीसदी निजी कालेजों से आते हैं। हर साल 100 मेडीकल कालेज खोले जाये ंतब कहीं डाक्टरों की कमी पूरी हो सकेगी।
देश की राजनीति की दशा और दिशा तय करने वाले 20 करोड़ से अधिक आबादी वाले उत्तर प्रदेश में 18,500 डाक्टर की जगह 11,500 हैं जबकि 7,000 पद खाली हैं। प्रदेश को 33,000 विशेषज्ञ डाक्टर चाहिए लेकिन हैं आधे भी नहीं। आबादी के मुताबिक 14,000 अतिरिक्त एमबीबीएस डाक्टर चाहिए। स्वास्थ्य मंत्रालय और विश्व बैंक के सहयोग से तैयार रिपोर्ट में स्वास्थ्य में केरल, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र् शीर्ष पर हैं और हरियाणा, राजस्थान और झारखण्ड अपनी स्थिति में सुधार करने वाले राज्यों की पांत में अव्बल हैं। रैंक्रिग में 21 बड़े राज्यों में उत्तर प्रदेश निचलेे पायदान पर है। उसके बाद बिहार, ओडिसा, मध्य प्रदेश और उत्तराखण्ड हैं। छोटे राज्यों में त्रिपुरा अब्बल है। बिहार में 3536 की जगह 1300 ही डाक्टर हैं जबकि 11,373 पद सृजित हैं। वहां जरूरत के मुताबिक आधे भी नहीं हैं। यहां की स्वास्थ्य सेवाओं को बीते साल बिहार हाई कोर्ट सबसे बदहाल करार दे चुकी है। उसके अनुसार गरीब जनता के पास पैसा नहीं है कि वह प्राइवेट अस्पतालों में इलाज करा सके। सरकारी अस्पतालों में इलाज की जगह मौत मिलती है। स्वीकृत पद भरे नहीं जा रहे। ठेके पर कर्मियों को रखा जा रहा है। सरकारी दावे के बावजूद हकीकत कुछ और ही बयां करती है। राज्य में हृदय रोग के इलाज के लिए बनाए एकमात्र इंदिरा गांधी हृदय रोग संस्थान, आईजीआईएमएस और कई अस्पतालों में फार्मेसिस्ट तक नहीं हैं। यहां कोर्ट के आदेश से सीटी स्कैन, डायलिसिस और एम आर आई मशीनें लगाई गईं लेकिन कैमीकल की वजह से वे बेकार पड़ी हैं।
उत्तराखण्ड में 2800 सृजित डाक्टरों के पदों में से 1500 ही कार्यरत हैं। इनमें अधिकांश संविदा पर हैं। यहां सरकारी मेडीकल कालेजों में बांड की शर्त पर महज 50 हजार पर डाक्टर तैयार किये जा रहे हैं। लेकिन वे ग्रामीण अंचलों से गायब रहते हैं। पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप के तहत उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड और झारखण्ड में सेवाएं शुरू की गईं। लेकिन उत्तराखण्ड में 100 करोड़ खर्च के बावजूद राज्य के अस्पताल और बदहाल हो गए। झारखण्ड और उत्तर प्रदेश में भी यह माॅडल कारगर नहीं रहा। उत्तर प्रदेश में शिशु कल्याण केन्द्र व जिला स्तर पर डायलिसिस व पैथालाॅजी से लोग संतुष्ट नहीं हैं। दिल्ली, मेघालय, मिजोरम और पुडुचेरी बीते सालों में स्वास्थ्य पर खर्च करने में अव्बल रहे हैं। लेकिन मध्य प्रदेश और बिहार सबसे पीछे। पीएचडी चंैम्बर्स आॅफ कामर्स के अध्ययन की रिपोर्ट इस तथ्य को प्रमाणित करती है कि शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा दिल्ली सरकार की प्राथमिकता है और दोनों क्षेत्रों में खर्च एक प्रकार का निवेश है।
नेशनल इंस्टीट्यूट आॅफ बायोलाॅजिकल्स द्वारा स्वास्थ्य मंत्रालय के निर्देश पर किये सर्वे में खुलासा हुआ कि बाजार में बिक रहीं 3.16 फीसदी और सरकारी अस्पतालों-डिस्पेंसरियों की दवाओं की 10.02 फीसदी गुणवत्ता खराब है। जांच में सरकारी अस्पतालों और डिस्पेंसरियों की दवाओं की गुणवत्ता घटिया पायी गई। ऐसी हालत में सरकारी अस्पतालों-डिस्पेंसरियों की दवाई मरीज की जान की मुसीबत बन रही हैं। सर्वे में उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, पंजाब, तेलंगाना, मेघालय, अरुणाचल और नागालैंड में यह आंकड़ा 11.39 से 17.39 फीसदी के बीच था जबकि दिल्ली, चंडीगढ़, ओडिसा, तमिलनाडु तथा पश्चिम बंगाल में 7.39 था। साइंस जर्नल लैंसेट की मानें तो भारत में घटिया इलाज से एक साल में 15 लाख 99 हजार 870 मौतें हुईं। इस मामले में देश की हालत अफगानिस्तान से भी बदतर है। हमारे यदि सरकारी अस्पतालों की बात की जाये तो वहां हालत यह है कि स्वीपर तो इंजैक्शन लगाते पाये गए हैं। गरीब की तो वहां जाना मजबूरी है। उनमें इलाज कराना चांद से तारे तोड़ने के समान है। निजी अस्पतालों की हालत यह है वह रोगियों से ज्यादा मुनाफे पर ध्यान देते हैं। सरकारी अस्पतालों की व्यवस्था से मिली उपेक्षा रोगी को मनोवैज्ञानिक और मानसिक रूप से तोड़ देती है। फिर डाक्टरों-कर्मचारियों में संवेदनशीलता और सहानुभूति का पूर्णतः अभाव है। इससे लगता है कि स्वास्थ्य सेवाओं को ही इलाज की सबसे ज्यादा जरूरत है।
लेकिन हमारी सरकार सरकारी अस्पतालों की बेहतरी के बारे में दावे-दर-दावे करते नहीं थकती। जबकि राज्यपाल हो या सरकार का मंत्री हो, मुख्यमंत्री हो या सांसद-विधायक, हर कोई इलाज के लिए मेदांता ही जाता है। समझ नहीं आता जब दिल्ली में एम्स, सफदरजंग, जी.बी.पंत और राम मनोहर लोहिया जैसे उच्च श्रेणी के सर्व सुविधा सम्पन्न अस्पताल मौजूद हैं फिर नेता बीमार होने पर मेदांता का रुख क्यों करते हैं। गौरतलब है कि मेदांता जैसे अस्पतालों में साधारण सर्दी-जुकाम होने पर 15 लाख तक का बिल बना दिया जाता है। यह समझ नहीं आता। लगता यह है कि नेताओं के पास समय का अभाव होता है, जनता का उनको इतना ख्याल होता है कि इसलिए वह निजी और मंहगे अस्पतालों में जाना पसंद करते हैं ताकि उनका समय बचे और वह शीघ्र स्वस्थ होकर जनता की सेवा में लग सकें। फिर उनके इलाज का खर्चा तो सरकार ही उठाती है, फिर वह मंहगे अस्पतालों में क्यों न जाये। गौर करने वाली बात यह है कि इस बीच सरकार ने स्वास्थ्य सेवा का बजट बढ़ाया तो जरूर लेकिन चुनौतियां भी अधिक हंै। उस हालत में जबकि कोरोना की अभी तक कोई दवा ईजाद नहीं हो पाई है, दावा जरूर किया जा रहा है कि जल्दी ही कोरोना की दवा आ जायेगी। तक तक हजारों मौत के मुंह में और चले जायेंगे। इसमें दो राय नहीं। यह सच है कि कोरोना का मुकाबला आसान नहीं है। सबसे बड़ी बात बचाव और अपनी रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने की है। इससे बचने का यही कारगर उपाय है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं चर्चित पर्यावरणविद हैं।