इंदौर में सात कर्मचारियों ने कंपनी के बाहर एक साथ ज़हर खाया तो इसे आत्महत्या की कोशिश के तौर पर मीडिया में बताया गया। लेकिन, क्या यह आत्महत्या की कोशिश है? यह आंदोलन क्यों नहीं है? अनशन को हम आत्महत्या क्यों नहीं कहते? अगर अनशन आत्महत्या नहीं है तो कंपनी की गेट पर नौकरी से बाहर कर दिए जाने के बाद जहर खाना भी आंदोलन क्यों नहीं माना जाना चाहिए?
कंपनी की गेट पर जान देने को पहुंचे 7 कर्मचारियों ने 1942 के आंदोलन की याद ताजा कर दी है। तब पटना में आज के सचिवालय भवन पर तिरंगा लहराने किशोर-युवा छात्र की टोली पहुंची थी। उनकी संख्या भी 7 थी। अंग्रेजों ने उन्हें गोलियों से छलनी कर दिया था। फिर भी न उनके कदम डिगे, न उन्होंने तिरंगा को झुकने दिया। तिरंगा लहराकर ही दम लिया।
पटना के 7 शहीद की याद दिला गये इंदौर के 7 मजदूर
क्या पटना में 1942 में देश के लिए शहीद हुए उन छात्रों के बलिदान को आत्महत्या कहा जा सकता है? जाहिर है जान देना, और मकसद के साथ जान देना कभी आत्महत्या नहीं होता। ऐसे लोग कभी कायर नहीं होते, बल्कि बहादुरी की मिसाल होते हैं। इंदौर में अजमेरा वायर कंपनी के गेट पर जहर खाने वाले कर्मचारी भी बेमकसद नहीं थे। ये कर्मचारी भी जान देकर देश के सामने संघर्ष की मिसाल पेश करने पहुंचे थे।
अगर आत्महत्या ही मकसद होता तो ये सभी कर्मचारी अपने-अपने तरीके से कहीं जान दे देते। लेकिन, इन कर्मचारियों ने अपनी बेबसी और दुर्दशा पर देश का ध्यान खींचने के लिए आत्महत्या का कदम उठाया। निश्चित रूप से जहर खा लेने के बाद जान बच जाना उन साथियों के कारण संभव हुआ, जिन्होंने इन्हें समय रहते अस्पताल पहुंचाया।
जरा सोचिए। अगर इंदौर के ये सभी सात कर्मचारी अनशन करने की कोशिश करते तो क्या कर पाते? पुलिस इन्हें कारखाने के गेट पर बैठने तक नहीं देती। मारपीट से लेकर जेल भेजने तक की स्थिति भी झेलनी पड़ती। इस वजह से बेरोजगार हो चुके इन कर्मचारियों के घर वालों को भी परेशान होना पड़ता।
20 साल तक जिस कंपनी में ये कर्मचारी काम करते रहे हैं वहां कर्मचारियों की कुल संख्या भी 20 के करीब है। ऐसे में बाकी बचे 13 कर्मचारी डर से शायद ही इन 7 कर्मचारियों का किसी आंदोलनकारी गतिविधि में साथ देते। कहने का अर्थ यह है कि आंदोलन इनके सामने विकल्प नहीं रह गया था। मगर, जान देने का विकल्प हमेशा खुला होता है इसके बावजूद कि यह गैर कानून है या फिर यह 'कायरों का काम' है।
अगर ये 7 कर्मचारी 'कायर' हैं तो 'बहादुर' कौन हैं?
अगर 7 कर्मचारियों की सामूहिक आत्महत्या की कोशिश को 'कायरों का काम' बताया जाए तो 'बहादुरों का काम' साथ-साथ बताया जाना चाहिए। देशभर में कर्मचारी वर्ग के खिलाफ बेइंतहा बेतहाशा जारी जुल्मों सितम पर चुप्पी साधे रहने वाले लोग क्या बहादुर हैं? ऐसे लोगों को कोई हक नहीं कि इंदौर के इन 7 कर्मचारियों को कायर कहें या आत्महत्या की कोशिश करने वाले के तौर पर उनकी चर्चा करें।
इंदौर की घटना न तो इकलौती है और न ही आगे ऐसी घटनाएं रुकने वाली हैं। क्यों? क्योंकि देश का जमीर सोया हुआ है। जब लॉकडाउन के बाद सैकड़ों मील की लंबाई पैदल माप रहे मजदूर वर्ग को सड़क पर मारा जा रहा था, पीटा जा रहा था, उन्हें कीटनाशकों से नहलाया जा रहा था, सीमेंट वाली गाड़ी में बोरियों की तरह लदकर जाने से भी रोका जा रहा था, तब दुनिया ने देखा कि अपने मेहनतकश लोगों पर कितना गर्व करता है भारत जो हर रोज विश्वगुरू बनने के ढोल पीटता है।
देश में 1.61 लाख आत्महत्याओं में 65 फीसदी गरीब ही क्यों हैं?
एनसीआरबी का ताजा आंकड़ा कहता है कि 2021 में जिन 1.61 लाख लोगों ने मौत को गले लगाया, उनमें से 1.05 लाख लोग ऐसे थे जिनकी सालाना आमदनी एक लाख रुपये से कम थी। इसका अर्थ यह हुआ कि आत्महत्या करने वाले 65 फीसदी लोग ऐसे रहे जिनकी हर महीने आमदनी 8,333 रुपये से कम थी। मतलब ये की ऐसे लोग हर दिन 3 सौ रुपये भी नहीं कमा पा रहे थे। इस कमाई से वे न तो अपना पेट भर पा रहे थे और नही अपने आश्रितों का।
इंदौर में जिन 7 कर्मचारियों ने आत्महत्या की कोशिश की, वे भी इसी श्रेणी के हैं। मतलब यह है कि हालात बद से बदतर बने हुए हैं। नौकरी छूट जाने के बाद हताश और निराश होकर आत्महत्या करने का दौर जारी है। हालांकि इंदौर की घटना इस मायने में अलग है कि इन कर्मचारियों ने कंपनी के गेट के सामने जान देने की हिम्मत दिखलाकर समाज को झकझोरने का काम किया है। भले ही समाज अब भी नींद से नहीं जागे, मगर इन कर्मचारियों ने यह बता दिया है कि अगर ऐसा होता भी है तो इसका उन्हें पता है और फिर भी वे आने वाली पीढ़ियों के लिए समाज को जगाने की अंतिम कोशिश करके ही मरना चाहते हैं।
कोई कंपनी 20 साल तक सेवा लेने के बाद अपने कर्मचारियों को 'काम नहीं है, घर बैठो' कहकर कैसे उन्हें सेवामुक्त कर सकती है? क्या ऐसी कंपनियों को कानून का डर नहीं है? समाज और सरकार का भी डर नहीं है? बिल्कुल नहीं है। अगर रत्ती भर भी डर होता तो इंदौर में यह लोमहर्षक घटना नहीं हुई होती।
मौत को गले लगाने वाले गरीब तबके से क्यों?
इंदौर में मौत से जिन्दा बच निकले कर्मचारियों के नामों पर गौर करें- जमनाधार विश्वकर्मा, दीपक सिंह, राजेश मेमियोरिया, देवीलाल करेडिया, रवि करेड़िया, जितेंद्र धमनिया और शेखर वर्मा। ये सभी जातीय नजरिए से मध्यमवर्गीय जातियों से आते हैं। पिछड़े या अति पिछड़े हैं। सवर्ण कतई नहीं हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि जो आंकड़े एनसीआरबी सामने रख रहा है और जिसमें आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लोग आत्महत्या की राह पर बढ़ते दिख रहे हैं उनमें भी जातीय आधार पर निचले पायदान पर खड़े लोग ही होंगे- यह बात दावे के साथ कही जा सकती है।
क्या समाज इसी वजह से देशव्यापी आत्महत्या की घटनाओं पर प्रतिक्रिया विहीन है कि मरने वाले लोग सवर्ण नहीं हैं? ये लोग दलित, पिछड़े, अति पिछड़े या आदिवासी समुदाय से आते हैं तो क्या इनकी जिन्दगी की कीमत नहीं है?
इंदौर में मौत को गले लगाने कंपनी के गेट के सामने आए कर्मचारी बहादुर हैं। उन्होंने देश के सामने गरीब मजदूरों का मुद्दा रखा है। देश को ललकारा है कि हिम्मत है तो वह अपनी प्रतिक्रिया के साथ सामने आए। क्या हिम्मत है?