नर्मदा घाटी में जीवनशालाओं का बालमेला हो रहा है। 600 बच्चे 08 जीवनशालाओं में से, 7 महाराष्ट्र की, 1 मध्यप्रदेश की यहाँ एक जगह आकर अपना न केवल झंडा गाड़ते हैं , लेकिन लड़ाई के साथ पढ़ाई करने वाले यह सब अपने कला गुणों का विकास करना चाहते हैं । हम भी यहीं चाहते है कि जीवनशालाओं के बच्चों में न केवल अभ्यासक्रम / पाठ्यक्रम के रूप में,लेकिन कलाओं का अभ्यास, नाट्य, नृत्य, वक्तृत्व, निबंध और साथ कबड्डी, खो - खो जैसे असल देशी खेलों की कुशलता भी अंदर अंदर ही समा जायें और उसी से उनका व्यक्तिमत्व विकास हो।
आज हमारे साथ घाटी के आदिवासी गांव गावं के, इन बच्चों में बालमेलाओं ने जो कुछ डाला है उसमें मूल्य, स्वावलंबन और खेलकूद के साथ साथ समता और न्याय की भावना भी प्रतिबिम्बित हुई है । आज शिक्षकों ने जो वक्तृत्व में हिस्सा लिया उस हिस्से से निश्चित हुआ कि शिक्षकों की सोच केवल शिक्षा या बच्चों के खेलकूद तक सीमित नहीं है, उन्होंने बात की लोकशाही पर, उन्होंने बात की पर्यावण, पर्यटन पर भी और इस बालमेले के 3 दिनों के कार्यक्रम में जो 19 फरवरी से 21 फरवरी तक आज यहां चिखली पुनर्वास स्थल में, शहादा तहसील, में नन्दूरबार जिले में चल रहा है हम लोग चाहते हैं कि हम और फिर आगे बढे हमारी शिक्षा पद्धति सब को शिक्षा एक समान की हो ।
हमारी शिक्षा पद्धति से हम बच्चों में जातिवाद और सम्प्रदायिकता के विरोध की मानवीय सोच डालें । साथ साथ विकसित होकर जो 6000 बच्चे अभी तक निकले हैं जीवनशालाओं में से उनमें से कई सारे पदवीधर हुये हैं , नोकरदार हुए हैं, कई सारे उच्चपदवी भी प्राप्त कर चुके हैं। ऐसे ही यह बच्चे भी अलग अलग क्षेत्रों में अपनी कला, अपनी शिक्षा का असर दिखाएं और समाज को विशेष करके आदिवासी समाज के सभी बच्चे को विशेष मौका उपलब्ध करे , आदिवासी संस्कृति और प्रकृति से जुड़े भी हैं, शिक्षक भी आदिवासी समाज के हैं, और हमारी कामाठी मौसी भी आदिवासी है, हमारी देखरेख समितियां भी आदिवासी ग्रामवासियों की है, तो यह भी आदिवासी समाज को विकसित करने में अपना योगदान देते रहे हैं । जीवनशालाओं के बच्चों, शिक्षकों का संघर्ष में योगदान भी सतत ओर अमूल्य रहा है । आइये जुड़िये जीवनशालाओं में शासकीय सहयोग बिना हम करते आये हैं सतपुड़ा ओर विंध्य की घाटीयों में यह कार्य जारी है।