जब दस वर्ष पूरे होने पर रात में चीखी कोरबा चिमनी कांड के 45 मजदूरों की आत्मा, तब चिदंबरम को गिरफ्तार करने घर पहुंची सीबीआई!
कोरबा में आज से दस साल पहले एक चिमनी गिरी थी। कम से कम 45 मजदूर मरे थे। यह सरकारी आंकड़ा है, सच यह है कि इससे ज्यादा थे। बताया गया था कि सार्वजनिक उपक्रम बाल्को की चिमनी है, सच यह है कि वह अनिल अग्रवाल की आपराधिक कंपनी वेदांता की चिमनी थी। वेदांता ने 2001 में ही बाल्को का 51 फीसद खरीद लिया था। बाल्को के इस काम का ठेका किसके पास था? चीन की एक कंपनी सेपको और कमल मुरारका की भारतीय कंपनी गैनन डंकरले के पास, जो चौथी दुनिया नाम का अखबार छापती है। इस हादसे के मामले में इन सब ने मिलकर झूठ बोला कि वह हादसा था। एनआइटी रायपुर की जांच में हकीकत उजागर हुई कि चिमनी में लगा माल कमज़ोर था, मिट्टी खराब थी और डिजाइन गड़बड़ था। दो महीने में जांच पूरी हुई। कंपनी और दोनों ठेकेदारों के अफसरों को सज़ा हुई। पता है कौन बच गया? त्रिवेदी...
त्रिवेदी मने पी. चिदंबरम, जो आज पकड़ाने के डर से भागे पड़े हैं। वेदांता के आधिकारिक वकील थे चिदंबरम और उनकी पत्नी। गृहमंत्री बनने के बाद तो उन्होंने इस कंपनी को फायदा पहुंचाया ही, उससे पहले वेदांता के बोर्ड में वे निदेशक भी रह चुके थे। गैर-कार्यकारी निदेशक के पद पर रहते हुए वे कंपनी से सालाना 70,000 डॉलर लेते थे और यह बात कोरबा हादसे से भी छह साल पहले की यानी 2003 की है। यह सब मैंने कोरबा हादसे के तुरंत बाद सांध्य दैनिक छत्तीसगढ़ और रविवार डॉट कॉम के लिए लिखा था। इसकी पूरी कहानी सबसे नीचे दे रहा हूँ, क्या क्या हुआ था उस घटना में!
गृह मंत्री के अपने कार्यकाल में ऐसी ही कंपनियों के साथ जुड़े अपने व्यापारिक हितों के चलते चिदंबरम ने ऑपरेशन ग्रीनहंट शुरू करवाया। हालत यह थी कि अखबार में खनिज संसाधनों की लूट और आदिवासियों पर लेख छपा नहीं कि संपादक के पास मंत्रालय से सीधे उनका फोन आ गया। भरोसा न हो तो Navin Kumar से पूछ लीजिए। लेख छापने पर कुछ दिन बाद मेरी तो नौकरी गयी ही, संपादकजी बदले में सोनियाजी की राष्ट्रीय एकता परिषद के सदस्य बन गए।
अगले महीने 23 तारीख को उन मारे गए मजदूरों की दसवीं बरसी है। त्रिवेदी को एक नहीं, सैकड़ों की आह लगी है। कोरबा से लेकर बस्तर और दिल्ली तक। आज कोर्ट ने अग्रिम ज़मानत रद्द की है और सीबीआइ-ईडी का छापा पड़ा है तो भागे फिर रहे हैं फोन बंद कर के। आगे क्या होगा, कोई नहीं जानता। हां, मनाऊंगा कि चिदंबरम पकड़े जाएं और जितना लूटे हैं सब उगलें। इसलिए नहीं कि कांग्रेस सरकार के रहते मैंने कांग्रेसी गृह मंत्री के खिलाफ़ यह ख़बर लिखी थी। इसलिए, क्योंकि कॉरपोरेट सेवा कर के अभिव्यक्ति की आज़ादी के दमन की उन्होंने जो ज़मीन तैयार की थी, उस पर आज ऐसी फसल ज़हरीली लहलहा रही है कि हम लोग चाह कर भी किसी मंत्री या नेता की लूट पर एक शब्द नहीं लिख पा रहे।
नोट: जो लोग पूछते हैं कि कांग्रेस राज में तुमने क्यों नहीं सरकार की बुराई की, यह पोस्ट उनके लिए विशेष रूप से है।
पिछले महीने कोरबा में गिरी जानलेवा चिमनी वाले कांड को, जिसे अब तक समूचे मीडिया में बालको कांड का नाम दिया जा रहा है, आखिर किसने अंजाम दिया है? ज़ाहिर है, कंपनी तो बालको ही है, लेकिन इसे कोरबा कांड कहने के पीछे एक सैद्धांतिक वजह है.आधिकारिक रूप से 41 मजदूरों की जान ले चुकी इस दुर्घटना को समूचे मीडिया में बालको कांड के नाम से पुकारा गया. बालको कभी भारत सरकार का उपक्रम था, अब नहीं है. इसके मालिक हैं अनिल अग्रवाल, जो अरबों डॉलर की लंदन में सूचीबद्ध कंपनी वेदांता-स्टरलाइट के मालिक हैं. तो दुर्घटना को बालको के नाम से जोड़ना एक मनोवैज्ञानिक छवि पैदा करता है कि यह दुर्घटना एक सरकारी कंपनी में हुई है.
कोरबा वेदांता
पहले साफ कर लें कि ऐसा नहीं है. बालको के 51 फीसदी शेयर अनिल अग्रवाल की स्टरलाइट ने 2001 में ही 551 करोड़ रुपये चुका कर खरीद लिए थे, जब कंपनी के पास कुल नकदी 447 करोड़ रुपये ही बची थी. तो सबसे पहली बात, इस दुर्घटना की कानूनी और नैतिक जिम्मेदारी बालको के प्रबंधन यानी वेदांता-स्टरलाइट कंपनी पर बनती है.
कमल मुरारका की जीडीसीएल
ज़रा और पीछे जाएं. इस निर्माण स्थल पर दिए गए ठेकों के बारे में पता करें, तो पता चलता है कि यहां का काम एक चीनी कंपनी सेपको और एक भारतीय कंपनी गैनन डंकरले को दिया गया था. दुर्घटना होते ही इन कंपनियों के अधिकारी वहां से खिसक लिए थे. प्रशासन ने चीनी कंपनी के 76 अधिकारियों के वापस चीन जाने का पूरा प्रबंध तक कर डाला था, लेकिन केंद्र सरकार के एक आदेश के चलते उन्हें रुकना पड़ा.
ज़रा गैनन डंकरले के बारे में भी जान लें. यह 300 करोड़ रुपये की कंपनी उन्हीं उद्योगपति कमल मुरारका की है, जो कभी सांसद थे और हिंदी का लोकप्रिय अखबार चौथी दुनिया चलाते थे. आज भी मुंबई का आफ्टरनून और पुनर्प्रकाशित चौथी दुनिया इन्हीं का है. दिल्ली के कनॉट प्लेस स्थित गैनन डंकरले के दफ्तर में अब चौथी दुनिया चलता है, लेकिन वहां अब भी कंपनी के अवशेष मिल जाएंगे. अब कंपनी का ऑफिस ओखला चला गया है.
कोरबा कांड के ठीक बाद गृह मंत्रालय ने बालको की बची 49 फीसदी हिस्सेदारी की स्टरलाइट द्वारा खरीद पर रोक लगा दिया. 2001 में जब स्टरलाइट ने बालको का 51 फीसदी खरीदा था, तो उस सौदे में एक कॉल ऑप्शन भी था कि एक निश्चित अवधि के भीतर स्टरलाइट अन्य हिस्से को भी बालको से खरीद सकती है. इसकी समय सीमा मार्च 2004 तय की गई थी, लेकिन कंपनी के मूल्यांकन को लेकर मतभेद पैदा हो गए जब स्टरलाइट ने 1099 करोड़ रुपये में बालको के 49 फीसदी शेयरों की खरीद का प्रस्ताव फेंका. उसके बाद से मामला अटका पड़ा था.
चिदंबरम यानी वेदांता के डायरेक्टर
सवाल उठता है कि कंपनियों के बीच खरीद-फरोख्त के मामलों पर गृह मंत्रालय का क्या अख्तियार है? क्या गृह मंत्रालय कानूनी तौर पर किसी कंपनी के अधिग्रहण पर रोक लगाने का तकनीकी अधिकार रखता है? हो सकता है दुर्घटना से जुड़ा कोई उपबंध हो जिसमें यह संभव हो, लेकिन इसके पीछे मूल वजह मौजूदा गृह मंत्री पी. चिदंबरम का होना है.
बता दें कि पी. चिदंबरम वेदांता समूह के निदेशक बोर्ड में रह चुके हैं. आर. पोद्दार की लिखी किताब 'वेदांताज़ बिलियंस' में बताया गया है कि चिदंबरम वेदांता रिसोर्सेज़ के निदेशक के तौर पर भारी-भरकम तनख्वाह लेते थे. सालाना 70,000 डॉलर उन्हें एक गैर-कार्यकारी निदेशक के तौर पर कंपनी से मिलते थे. यह बात 2003 की है. उस दौरान स्टरलाइट के शेयरों में चिदंबरम के रहते 1000 फीसदी का उछाल आया था.
गृह मंत्री बनने से पहले पिछली सरकार में जब चिदंबरम वित्त मंत्री थे, तो उन्होंने वेदांता समूह की औरंगाबाद स्थित कंपनी स्टरलाइट ऑप्टिकल टेक्नोलॉजिस्ट्स लिमिटेड के केंद्रीय उत्पाद और कस्टम शुल्क के रूप में बकाया भारी राशि को वसूलने से अपने कदम वापस खींच लिए थे.
इसकी वजह यह थी कि जब कंपनी ने कर की अपनी देनदारी से संबंधित कार्यवाही पर रोक लगाने के लिए बॉम्बे उच्च न्यायालय में याचिका दायर की थी, तो चिदंबरम और उनकी पत्नी ने स्टरलाइट का मुकदमा लड़ा था, जिसके बाद कोर्ट ने 13 अगस्त 2003 को याचिका को खारिज कर दिया था. चिदंबरम एक बार वेदांता को कर देनदारी से अपने वित्तमंत्रित्व काल में राहत दिलवा चुके हैं. अब गृह मंत्री होने के नाते वह 41 मजदूरों की
हत्या से रंगे कंपनी के हाथों को साफ करने की कवायद में हैं. आश्चर्य नहीं कि इस घटना के लगभग 40 घंटे के भीतर चिदंबरम छत्तीसगढ़ में थे. ये और बात है कि उनके दौरे को नक्सल ऑपरेशन से जोड़ कर प्रचारित किया गया.
जब मीडिया और विधायिका दोनों कंपनी की मुट्ठी में हों, तो ज़ाहिर है न्यायपालिका को साथ लिए बगैर कृकुत्यों को पूरी तरह जायज़ नहीं ठहराया जा सकता.
शायद इसीलिए उड़ीसा में खनन संबंधी एक मामले में वेदांता के पक्ष में 2007 और 2008 में फैसला सुनाने वाले सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश एस एच कपाड़िया ने पिछले हफ्ते जब अधिवक्ता प्रशांत भूषण द्वारा हितों के टकराव संबंधी आरोपों का जवाब दिया, तो वेदांता द्वारा इस देश के चारों स्तंभों को खरीद लेने की कहानी मुकम्मल हो गई.
न्यायपालिका भी घेरे में
उड़ीसा में बॉक्साइट खनन और अल्युमिनियम परिशोधन परियोजना को वेदांता समूह की एक कंपनी को देने संबंधी फैसला सुनाने वाले न्यायमूर्ति कपाड़िया कंपनी के शेयरधारक हैं. प्रशांत भूषण के आरोपों के जवाब में उन्होंने पिछले हफ्ते कहा था कि उन्होंने अपनी शेयरधारिता की बात कोर्ट में बता दी थी, लेकिन संबद्ध किसी भी पक्ष ने भारत के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली विशेष वन खंडपीठ के सामने आपत्ति नहीं दर्ज कराई.
विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और प्रेस चारों स्तंभों को खरीद कर दरअसल संदेश यही दिया जा रहा है कि पूंजी की राह में सिर्फ एक ही विकल्प है- या तो बिक जाओ या फिर मर जाओ.
अजीब बात यह है कि जिन तीन पक्षों ने वेदांता की परियोजना को चुनौती दी थी, उनमें से कोई भी उनसे सहमत नहीं था, जबकि कपाड़िया इस बात को खा गए. तीन याचियों बिस्वजीत मोहंती, प्रफुल्ल सामंत रे और एकेडमी ऑफ माउंटेन एनविरॉनिक्स का पक्ष ज़ाहिर तौर पर उन पक्षकारों से महत्वपूर्ण था, जो वैसे भी वेदांता के समर्थक थे.
कपाड़िया ने स्टरलाइट में अपने शेयरों की बात 26 अक्टूबर 2007 को सामने लाई थी, जब वह फैसला लेने के आखिरी चरण में थे. ज़ाहिर है, एक ऐसे मोड़ पर शेयरधारिता की बात को सामने लाना और याचियों को आपत्ति उठाने का मौका न देना हितों के टकराव का ही मामला बनता है. इसके अलावा स्टरलाइट के कई अन्य मामले भी हैं जिनमें न्यायमूर्ति कपाड़िया ने फैसला सुनाया है. उनमें एक स्टरलाइट द्वारा चेन्नई के कस्टम आयुक्त के खिलाफ की गई अपील का मामला है, जिसे न्यायमूर्ति कपाड़िया की अध्यक्षता वाली एक खंडपीठ ने बरकरार रखा था.
वेदांता की मौत की चिमनी
कुल मिला कर हम देख सकते हैं कि किस तरीके से एक उद्योगपति अपने हितों के लिए किसी देश के तीनों अंगों को इतनी आसानी से साध लेता है. विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और प्रेस चारों स्तंभों को खरीद कर दरअसल संदेश यही दिया जा रहा है कि पूंजी की राह में सिर्फ एक ही विकल्प है- या तो बिक जाओ या फिर मर जाओ.
अस्पष्ट जवाबदेही कानूनों के चलते भोपाल गैस कांड का क्या हश्र हुआ, हम सब देख ही रहे हैं. आज बालको के बहाने कम से कम कोरबा कांड पर तो बात भी हो जा रही है, वरना सिंगरौली में अगस्त में हुई औद्योगिक दुर्घटना की क्या किसी ने सुध ली? स्टरलाइट जैसी तमाम अपराध कथाओं से देश पटा पड़ा है. क्या कोई सुन रहा है?
(लेखक जाने माने पत्रकार और लेखक है)