रूसी लेखक मैक्सिम गोर्की के इस उपन्यास का शीर्षक था 'माँ'। 'सुकुल जी' की तरफ़ से शादी के बाद से लेकर आज तक उन्हें दिया जाने वाला यह यह पहला तोहफ़ा था। पति से किताब का तोहफ़ा पाकर मुन्नीदेवी अभिभूत हो गईं। झेंपते हुए पूछा- "इसका क्या होगा?" पति देव ने जवाब दिया- "पढ़कर तो देखो, अलग तरह का सुख मिलेगा।"
9 वर्ष की उम्र में विवाह और पांचवे साल में गौना! बेशक़ वह जौनपुर ज़िलें (गाँव धनियामऊ) के ज़मींदार परिवार में जन्मी थीं लेकिन पंडित लक्ष्मीनारायण मिसिर के इस परिवार में बेटियों को पढ़ाने का कोई चलन नहीं था। गौने के बाद 14 साल की उम्र में जब मुन्नीदेवी दियरा (ससुराल) आईं तो पहली बार 'शब्दों' से टकराव हुआ। पति के साक्षर बनाने की कोशिशें शुरू में तो परवान नहीं चढ़ीं लेकिन धीरे- धीरे पति की यह बात उन्हें समझ में आने लग गई कि शब्दों से रिश्तेदारी का मतलब ज्ञान के नए संसार में पैठ बना लेना मोहक ही नहीं बड़ा आकर्षक भी साबित होगा।
'पक्की दालान' में बने 'बाबूजी के पुस्तकालय' में श्वसुर द्वारा लायी गयी धर्म और समाज की ढेरों किताबों को झाड़-पोंछ कर सहेजना मुन्नी देवी की जिम्मेदारी थी। धीरे-धीरे वह किताबों के शीर्षकों को अटक-अटक कर पढ़ने की कोशिश करने लग गईं और इस प्रक्रिया में उनके भीतर सम्पूर्ण पुस्तक को बांच डालने की चाहत ने कब जन्म ले लिया, उन्हें पता ही नहीं चला।
उन किताबों को पढ़ना सचमुच मनोरंजन, रहस्य-रोमांच, तिलिस्म और सूचनाओं की मीलों-मील चली जाने वाली नयी सुरंग में दाखिल हो जाने जैसा था। उन्हें इस 'दाख़िले' में मज़ा आने लग गया। उन्हें 'तोता मैना' बहुत भायी। 'चंद्रकांता' भी उन्हें बहुत अच्छी लगी थी। 'बाबूजी' बनारस से ख़ास 'बटेश्वर बहू' के लिए इसे लाए थे। पढ़ने को राजकुमारी चंद्रकांता और राजकुमार विक्रम सिंह की प्रेमकथा के उतारचढ़ाव को वह बड़ी दिलचस्पी से पढ़ती गईं लेकिन इससे भी ज़्यादा मज़ा, रहस्य और रोमांच उन्हें ऐयार तेजसिंह और ऐयारा चपला की कहानी में मिलता। कई बार तो यह भी हुआ कि 'बाबूजी' ने भोला को भेजकर कोई सामान मंगवाया, भोला बाहर खड़ा पुकारता रहा और वह पढ़ने में ऐसी डूबीं रहीं कि उन्हें भोला की आवाज़ ही नहीं सुनाई दी। बड़की बहनी आईं (जेठानी), आकर उन्होंने ज़ोर की चिकोटी काटी तब कहीं जाकर उनकी तन्द्रा टूटी। बहनी ढेर बिगड़ी। एकाध बार छुट्टी पर घर लौटे पति ने मज़ाक भी बनाया-'यह भी कोई कहानी है!'
पति द्वारा दी गई भेंट 'मां' को जब उन्होंने उल्टा-पुल्टा तो यह कुछ अलग क़िस्म की किताब लगी। गर्मियों की छुट्टियों में वह किताब पढ़ती गईं और पतिदेव से सवाल पूछती गईं। यह किताब उन्हें अब तक की किताबों से बिलकुल अलहदा लगी इसलिए रोमांच के साथ-साथ जिज्ञासाएं भी पैदा करती जाती। जिज्ञासाओं को हल करने के लिए सुकुल जी मौजूद थे ही। उपन्यास और उसकी कथा के जरिए पति-पत्नी के बीच होने वाला यह पहला दीर्घकालीन राजनीतिक संवाद था जिसने आगे चलकर प्रणय के उनके रिश्तों को नितांत नए सांचों में ढालना शुरू कर दिया।
'माँ' का चरित्र मुन्नीदेवी को लुभावना तो लग ही रहा था, रह-रह कर वह उनकी मानसिक उत्तेजना भी बढ़ा रहा था। उन्हें पति की इस बात पर सहज विश्वास नहीं हुआ कि यह असल जीवन से उठाई गई कोई सच्ची कहानी है यद्यपि किताब के आखिरी कवर पर छपी 'असल मां' और 'असल बेटे' की तस्वीर और परिचय सुकुल जी की बात को झुठलाने की कोई गुंजायश नहीं छोड़ते थे।
किताब के बहाने रूस और रूस के बहाने यूरोप की सांस्कृतिक आबोहवा से होने वाला नया-नया परिचय उन्हें अजीबोग़रीब लगता। यह दियरा और धनियामऊ की उनकी दुनिया से ख़ासी अलग दुनिया थी। इस दुनिया के जंगल, उसके शहर, वहां जैसी धुंआ उड़ाती मिल और फैक्ट्रियां न तो धनियामऊ में कभी दिखीं न दियरा में। वह इस दुनिया की दास्तान को पढ़कर हैरान भी थीं और खुश भी। उन्हें सुकुल जी की इस बात को सुनकर और भी ताज्जुब हुआ कि हमारे अपने देश में भी ऐसी ही फैक्ट्रियां और मिलें खुल गई हैं। बंबई, कलकत्ता, अहमदाबाद के उन्होंने नाम तो सुन रखे थे परन्तु ये कैसे शहर हैं, यह समझ पाना उनकी कल्पना से परे था। उनकी कल्पना के दो ही शहर थे-धनियामऊ और दियरा! शहर कहो या गाँव, उनकी समूची दुनिया इन्हीं दो नामों तक सिमट कर रह गई थी और वह अभी तक इन्हीं में निहाल थीं।
वह जितना हैरान 'आलू शोरबे की सब्ज़ी' के बारे में सोच- सोच कर होतीं उतना ही परेशान चोंगे के भीतर पर्चे छुपाकर माँ के फ़ैक्ट्री के भीतर जाने और फिर पुलिस द्वारा ली जाने वाली उनकी तलाशी के विवरण से होतीं। पावेल की पहली गिरफ़्तारी पर वह बेहद डर गई थीं। उन्हें लगा- अब इस बेचारी माँ का क्या होगा? उन्हें इस बात ने बड़ी हैरत में डाला कि माँ चिंतित हुए बिना बेटे के साथियों के साथ उनकी यूनियन और 'पार्टी' के कामों में जुट गई। लगता जैसे पावेल के ये दोस्त उन्हें पावेल से बढ़कर मां मानते हैं। एक दिन पति से बहुत झेंपते हुए उन्होंने कहा कि उन्हें "सचमुच इस किताब से अलग तरह का सुख मिल रहा है।"
यह ऐसा सुख था जो आने वाले सालों में मुन्नीदेवी की पूरी सोच और जीवन शैली को बदल डालने की तैयारी कर रहा था। बहुत सालों बाद, ब्रिटिश शासनकाल में ही, जबकि सुकुल जी वॉरंट निकलने के चलते फ़रारी का जीवन बिता रहे थे, वह मज़दूरों की हड़ताल के दौरान आगरा की 'जॉन्स मिल' के गेट पर पहली बार एक ट्रेड यूनियन नेता के रूप में गिरफ़्तार की गईं। पुलिस लॉरी में बैठाकर जब वह जेल ले जाई जा रही थीं तब न जाने क्यों उन्हें मुद्दत पहले पढ़े 'मां' उपन्यास के पावेल की गिरफ़्तारी और मां की भागदौड़ के दृष्टान्त याद हो आए। उन्होंने लॉरी की खिड़की से बाहर झाँका। सांझ उतरने लग गई थी। वह धीरे से मुस्करा दीं।
(स्व० मुन्नीदेवी शुक्ला और स्व० डॉ० बीपी शुक्ला की जीवनी पर आधारित मेरी किताब 'लम्बे सफर की दूरी' के अंश]