अगर मुक्ति देना है तो अस्पताल के बिल, ईएमआई माफ करो, नौकरी दो!

Update: 2021-05-18 06:57 GMT

शकील अख्तर

जब समय प्रगतिशील होता है तो लोगों के विचारों में उदारता, सह्रदयता, और मानवता की भावना बढ़ती और समय जब क्रूर होता है तो जनता की बिना इलाज के मृत्यु, उनके शव को अपमानजनक ढंग से फेंकने को भी मुक्ति कहा जाता है। वैक्सीन पर सवाल उठाने वालों को गिरफ्तार कर लिया जाता है। राहुल गांधी को बड़ा बोल्ड स्टेंड लेते हुए कहना पड़ता है कि मुझे भी गिरफ्तार करो!

और भरोसा नहीं कि किसी दिन राहुल गिरफ्तार भी कर लिए जाएं। वे पिछले सवा साल से लगातार बोल रहे हैं। इस समय में बोले जाना शायद सबसे बड़ा अपराध है। दुष्यंत कुमार ने कहा था –

मत कहो आकाश में कोहरा घना है

यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है!

कविताएं संदर्भ बदलती हैं। ये शेर कभी जिन्हें बहुत पसंद था आज सुनना भी नहीं चाहते। समय ही ऐसा है। बात शुरू हुई थी समय से। तो प्रगतिशील समय कब होता है? जब नेतृत्व जनता के प्रति संवेदनशील होता है। जनता को जागरूक करना, उसे आगे बढ़ाना उसका उद्देश्य होता है। आजादी के बाद नेहरू ने यह काम किया। देश में प्रगतिशील मूल्यों का स्थापना की। भाखड़ा नंगल जैसे बड़े बांध बनाकर उन्हें भारत के नए तीर्थ की उपमा दी और साथ में साइंटिफिक टेम्पर ( वैज्ञानिक मिज़ाज) पर सबसे ज्यादा जोर दिया। भारत में आईआईटी, एम्स, दूसरे वैज्ञानिक संस्थान तो बनाए ही लोगों में भाइचारे, सामाजिक समानता, और बौद्धिक चेतना के विस्तार का लगातार राजनीतिक, सामाजिक माहौल बनाया। इसीका परिणाम था कि दुनिया में जहां कहीं भी भारत के युवा गए उन्हें सम्मान के साथ काम मिला। विदेशी अखबारों में भारत की खबर छपती थी सकारात्मकता के साथ। आज सकारात्मकता की बात तो बहुत हो रही है मगर विदेशी मीडिया भारत की नकारात्मक खबरों से भरा पड़ा है।

नेहरू की बड़ी लकीर हमेशा भाजपा, समाजवादियों और अन्य कईयों को परेशान करती रही। मगर इन्होंने कभी नेहरू से बड़ी लकीर खींचने की कोशिश नहीं की हमेशा नेहरू की ही लकीर छोटी करने में लगे रहे। नेहरू ने अपनी राख भारत की जमीन में मिला देने के लिए उसे गंगा और अन्य नदियों में प्रवाहित करने की वसीयत की थी और विडंबना देखिए कि नेहरू का विरोध करने वालों के समय में लाशें नदियों में बहाई जा रही हैं, रेत में दबाई जा रही हैं।

देश विचारों से ही बनता है। पाखंड से या नकारात्मकता से नहीं। नेहरू विरोध का ही अंध अभियान था गैर कांग्रेसवाद। आज के कांग्रेस मुक्त भारत नारे की पहली सीढ़ी। 1967 में लोहिया ने जनसंघ और बाकी दलों के साथ मिलकर गैर कांग्रेसवाद का नारा दिया था। कई राज्यों में उस समय इन दलों की मिलीजुली सरकारें जिन्हें संविद ( संयुक्त विधायक दल) सरकारें कहते थे बना लीं। भारत की राजनीति में यह पहला मौका था जब विपक्षी पार्टियों ने अपने सिद्धांतों को पीछे धकेलकर केवल सत्ता के लिए हाथ मिला लिए थे। इसके बाद तो 1977, 1989 वीपी सिंह के समय और 2013- 14 में अन्ना हजारे के साथ सभी दल सारे उसूलों को छोड़कर केवल कांग्रेस विरोध को लिए एक हो गए थे। दलों के आपस में मिलने, साथ में आने में कोई बुराई नहीं मगर ये किसी

सकारात्मक उद्देश्य के लिए होना चाहिए जैसा आजादी के आंदोलन में सभी लोग कांग्रेस के नेतृत्व में साथ आए थे। मगर देश में 1967 से लेकर 2013 तक जितनी बार ये दल मिले हैं हमेशा कांग्रेस पर आरोप लगाते हुए, बड़े बड़े दावे और वादे करते हुए। और फिर अपने अन्तरविरोधों से ही एक्सपोज होते हुए।

आज अस्पताल में भर्ती होना कितना मुश्किल है। बड़े बड़े लोगों को बेड नहीं मिल रहा। बेड हैं ही नहीं। अगर सिफारिश करके या ज्यादा पैसे देकर लिया तो उसकी कीमत किसी दूसरे मरीज को चुकाना पड़ रही है। किसी गरीब या पूरी तरह ठीक नहीं हुए मरीज को घर भेजकर नए मरीज को भर्ती कर लिया जाता है। जो अस्पताल से जा रहा है उससे भी भरपुर बिल, और जो आ रहा है उससे भी मोटा एडवांस लिया जा रहा है। पूरी चिकित्सा सुविधाएं किसी की नहीं मिल रही हैं।

अभी एक बड़े हिन्दी अख़बार के युवा संपादक ने अस्पताल से लौटकर अपने अखबार में लिखा कि बच वहीं रहे हैं जिन्हें समय पर सभी सुविधाएं मिल रही हैं। सबमें विल पावर है, सब हिम्मत वाले हैं, मगर डाक्टर, दूसरा चिकित्सा स्टाफ, आक्सीजन, वेंटिलेटर, जीवन रक्षक रेमडेसिवियर इंजेक्शन, बाकी दवाएं सबको नहीं मिल पा रहीं है। युवा संपादक ने काफी सकारात्मकता के साथ लिखा है, मगर वह एक सही सोच समझ का संवेदनशील इंसान भी है तो सच्चाई भी झलक जाती है।

डाक्टरों और पैरा मेडिकल स्टाफ पर काम और जिम्मेदारी का भारी बोझ है। आक्सीजन, दवाएं और बाकी सुविधाएं हैं नहीं। कुछ लोग ठीक हो रहे हैं तो मरने वालों की तादाद भी कम नहीं है। और जो मर गए उनके बिल भी कम नहीं हैं। घर वाले बर्बाद हो जाते हैं। खासतौर पर मिडिल क्लास के लोग। और फिर अगर कोई यह कहे कि मरने वाले मुक्ति पा गए तो सोचिए मृतक के परिवार पर क्या बीतेगी? इतने कर्जें में डुबोकर मुक्ति पाई? मुक्ति कहते है अपनी उम्र पूरी करके जाने वाले के लिए। असामायिक, बिना पूरे इलाज के जाने वाले, परिवार को कर्जे में छोड़ जाने वाले को तो मरकर भी शान्ति नहीं मिलेगी। उसकी बैचेन आत्मा भटकती रहेगी। कई सवालों के साथ। अंतिम क्रिया कैसे हुई। क्या श्मशान ले गए थे। वहां नंबर लग पाया? या व्ह्टसएप पर नेहरू और राहुल गांधी के खिलाफ मैसेज फारवर्ड करते हुए बेटे ने किसी शव वाहन वाले को ही सौंप दिया था। जो रेत में दबा आया। अगर मुक्ति देना है तो उसके अस्पताल के बिल माफ करवा दो। उसकी ईएमआई माफ कर दो। उसके घर के किसी सदस्य को नौकरी दे दो। तब तो शायद वह मुक्ति पा जाए। लेकिन इतने संघर्ष, कष्ट और चिन्ता में मरे व्यक्ति की मुक्ति की बात करना उसकी आत्मा को और कष्ट पहुंचाना है।

आज वे दल भी परेशान हैं, जो सात आठ साल पहले कांग्रेस को हटाने के लिए आंदोलन कर रहे थे। एक अन्ना हजारे को पकड़ लाए थे। कहां है आज अन्ना! क्या उन्हें इतनी मौते नहीं दिख रहीं। अन्ना ने किसलिए आंदोलन किया था? आज जाकर कोई पूछे तो वे शायद बता भी नहीं पाएंगे। लेकिन यह पहली बार नहीं हुआ। जयप्रकाश नारायण का भी यही हाल हुआ था। उन्हें भी दूसरा गांधी कहा गया था। फिर यही पदवी अन्ना को दी गई।

गलती कांग्रेस की भी है। दस साल के यूपीए शासनकाल में उसके मंत्री और संगठन के उंचे पदों पर बैठे लोग जनता और कार्यकर्ताओं से पूरी तरह कट गए थे। सोनिया गांधी जो किसानों की कर्ज माफी, मनरेगा, महिला बिल लाईं थी उसमें खुद कांग्रेसियों ने बहुत अड़ंगे डाले थे। आज जनता पर समय भारी है तो कांग्रेस के नेताओं में से राहुल और प्रियंका ही हिम्मत के साथ सड़क

पर उतर रहे हैं, सवाल उठा रहे हैं। राहुल का विरोध पूरी केन्द्र सरकार, भाजपा, मीडिया तो कर ही रही है, पार्टी के अंदर से भी उन्हें कमजोर करने की कोशिशें बंद नहीं हुई हैं। पार्टी में राहुल के साथ मजबूती से खड़े होने वाले कम लोग हैं। ज्यादातर हवा का रूख भांपते रहते हैं। अभी युवा नेता राजीव सातव का चला जाना कांग्रेस के लिए और खासतौर से राहुल के लिए बड़ी क्षति है। राहुल पर हमला करने वालों का सातव पूरे दम से मुकाबला करते थे। राहुल को यह देखना चाहिए कि जो लोग इस समय उनके साथ खड़े हैं उनके साथ और उनके बाद उनके परिवार के साथ वे भी उसी मजबूती के साथ खड़े हों!

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