दलित साहित्य में लिंबाले का लेखन मील का पत्थर
सनातन पर सरस्वती सम्मान समाज में बदलाव का संकेत शरण कुमार लिंबाले
प्रसून लतांत
भारतीय साहित्य में मराठी के लेखक शरण कुमार लिंबाले का लेखन मिल का पत्थर है। उनका लेखन समाज को बदलाव के लिए प्रेरित कर रहा है। इनकी कई महत्वपूर्ण कृतियों का चारो ओर स्वागत हो रहा है। ज्यादातर भारतीय भाषाओं और विदेशी भाषाओं में अनुवाद भी हो रहा है।
उनकी आत्म कथा ने दलित साहित्य में प्रवर्तन का काम किया है। उन्होंने अनेक यातनाओं को झेल कर जो कुछ लिखा है उसे न सिर्फ पढ़ा जा रहा है बल्कि उनसे प्रेरित होकर बहुत से दलित साहित्यकार आत्म कथा लिखने को विवश हुए हैं। इनका दलित साहित्य न सिर्फ मराठी भाषी लोगों के लिए प्रेरणा के स्रोत हैं बल्कि सभी भारतीय भाषाओं के लेखकों को भी दलित साहित्य लिखने के लिए प्रेरित करता है।
शरण कुमार लिंबाले मराठी के कवि,लेखक और आलोचक हैं। इनकी मराठी में 40 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। इनकी आत्मकथा अक्करमाशी बहुत प्रसिद्ध कृति है। इसका विभिन्न भाषाओं में अनुवाद भी हो चुका है। इस आत्मकथा के बाद ना केवल मराठी साहित्य में आत्म कथा लेखन की बाढ अा गई। बल्कि दूसरी भाषाओं में भी दलित आत्मकथा लिखी जाने लगी है।
आज उन पर मराठी समुदाय के साथ पूरे देश का साहित्य जगत हर्ष मना रहा है। उनको सरस्वती सम्मान देने की घोषणा की गई है। उनको सम्मान स्वरूप पंद्रह लाख रुपए और स्मृति चिन्ह दिया जाएगा। यह सम्मान
मूल मराठी में लिखा उपन्यास 'सनातन' के लिए दिया गया है। आज से दस साल पहले
2010 में प्रकाशित यह उपन्यास पिछली कुछ सदियों के सामाजिक इतिहास का जीवंत दस्तावेज है। इसमें आदिवासियों और दलितों के दर्द की चीखें हैं। इसमें भीमा कोरेगांव का संघर्ष भी शामिल है। भीमा कोरे गांव स्मृति स्थल आज भी पुलिस की सीधी निगरानी में है। एक ऐसा जीवंत स्थल, जिसको नष्ट करने की कोशिश कई बार की गई। यह हर्ष की बात है कि लिंबाले ने अपने लेखन से उसकी स्मृति को और भी अमर कर दिया। उनकी यह कृति हमारे लिए स्मारक है।
लिंबाले अपने प्रसिद्ध और पुरस्कृत कृति सनातन के बारे में कहते हैं कि हमारे इतिहास में राजे रजवाड़ों का भरपूर वर्णन मिलता है। बाद में आजादी के आंदोलन का भी बहुत उल्लेख है लेकिन दलितों और आदिवासियों का कोई उल्लेख नहीं मिलता। इतिहास में दलितों और आदिवासियों को ठुकराया गया है। दलित और आदिवासी समाज में भी बड़े बड़े योद्धा और बुद्धिजीवी हुए हैं,जिन्होंने समाज और राष्ट्र के निर्माण में अपना महत्वपूर्ण योगदान किया है। लिंबाले कहते हैं कि उन्होंने अपने सनातन उपन्यास में दलितों और आदिवासियों के सामाजिक इतिहास और उनके संघर्ष को दर्ज किया है। सनातन पर सम्मान के लिए फोन आया तो लिंबाले ने उनसे पूछा कि एक दलित लेखक को। उनका जवाब था कि आप किस जाति और विचारधारा के है उससे कोई मतलब नहीं। आपकी कृति श्रेष्ठ है, उत्कृष्ट है,इसलिए सम्मानित कर रहे हैं। लिंबाले कहते हैं की जब मैंने लिखना शुरू किया तो मुझे कहा जाता था कि क्या कूड़ा लिख रहे हो। गंदगी फैला रहे हो। आज जब सम्मान मिल रहा है तो लगता है कि मैंने जो लिखा, वह सार्थक है।
शरण कुमार लिंबाले बहुत चर्चा में पहली बार तब आए जब उनकी आत्मकथा 'अक्करमाशी' अाई। अस्सी के दशक में पहली बार छप कर आई यह कृति सिर्फ़ मराठी ही नहीं, भारतीय दलित साहित्य के लिए युगांतरकारी साबित हुई। इसके कई भाषाओं में अनुवाद हुए। उन्होंने पहली बार दलित जीवन के उस संकट को सामने रखा, हम जिसे ठीक से महसूस नहीं सकते।
दलित होने का दंश कितना गहरा होता है उसे लिंबाले की आत्मकथा से समझा जा सकता है । उनके पिता एक पाटील सवर्ण थे और उनकी मां अछूत जाति से थी। पिता बड़े मकान में रहते थे। मां बस स्टैंड पर एक झोपड़े में रहती थी। लिंबाले कहते हैं , बस स्टैंड हमारे लिए घरों जैसे होते थे, हम बेकार हो चुके बस टिकटों की तरह पड़े रहते थे।
लिंबाले कहते हैं कि आज का मुख्य धारा का साहित्य केवल ऊंची जाति का साहित्य है। महिलाएं,दलित, आदिवासी यानी बहुजनों की संख्या 95 प्रतिशत है। लेकिन 5 प्रतिशत वालों के साहित्य को मुख्य धारा का साहित्य माना जा रहा है। मुख्य धारा का साहित्य ऐसा हो जिसमें आम आदमी की आवाज होनी चाहिए। जो चांद, तारे या मनोरंजन की बात करते हैं, वह मुख्य धारा का साहित्य नहीं है। ये लोग सामाजिक परिवर्तन नहीं चाहते,जबकि बहुजन समाज परिवर्तन चाहता है। इनकी संख्या ज्यादा है और इनको पढ़ने वालों की संख्या भी ज्यादा है। इसलिए जनसंख्या के आधार पर दलित,आदिवासी,महिला और अल्पसंख्यक का साहित्य ही मुख्य धारा का साहित्य बनेगा।