भारतीय संविधान: जिसे विख्यात चित्रकार नंदलाल बोस ने अपनी उत्कृष्ट चित्रकारी से चित्रित किया
कुमार कृष्णन
नंदलाल बोस एक प्रसिद्ध भारतीय चित्रकार थे। इन्हें आधुनिक भारतीय कला के आरंभिक कलाकारों में से एक माना जाता है।कलागुरु अवनीन्द्रनाथ ठाकुर,अनन्य प्रेरक रविन्द्रनाथ ठाकुर और प्रख्यात चित्रकार गगनेन्द्रनाथ ठाकुर के सानिध्य में अपनी कलाचर्या में निरंतर गतिशील एवं सक्रिय नंदलाल ने अपनी परंपरा और धरोहर की श्रेष्ठता को आनिवार्य रूप से ध्यान में रखा और उपादानों तथा उपस्करों का आवश्यकतानुसार उपयोग भी किया,जिनमें भारतीय समाज को नित्यनूतन एवं प्रासंगिक बनाए रखने की क्षमता थी। उनके असंख्य चित्रों में आख्यानों, प्रारूपों,प्रतीकों, चिन्हों,रूपकों के साक्षात्कार होते हैं,जिनके ताने—बाने से भारतीय कला की पहचान बन चुकी है।नंदलाल बसु की कला साधना एवं सर्जना को भारतीय कला आंदोलन के सर्वाधिक महत्वपूर्ण पर्व के रूप में देखा जा सकता है। उनकी कला साधना को केवल बिहार,बंगाल या भारत के मंच पर ही नहीं विश्व कला मंच पर इसे बड़े सम्मान के साथ रखा गया। बिहार के मुंगेर जिले के हवेली खड़गपुर में 3 दिसम्बर 1882 को जन्में,पले बढ़े नंदलाल कला अध्ययन के लिए कोलकता आए और फिर सारे कला जगत के होकर रह गए।
मां क्षेत्रमणि देवी एक धर्मपरायण महिला थी और बचपन से ही नंदलाल ने रामायण,महाभारत,चंडीमंगल,मनसा मंगल तथा व्रत अनुष्ठानों से जुड़ी कहानियां सुन रखी थीं। हवेलीखड़गपुर के कस्वे के कुम्हारों को मूर्तियां गढ़ते और घर में व्रत त्योहारों के समय अल्पना के अभिप्रायों तथा प्रतीकों को ध्यान से देखना उनका स्वभाव और व्यसन हो चुका था।उनके पिता पूर्णचंद्र बोस ऑर्किटेक्ट तथा महाराजा दरभंगा की रियासत के मैनेजर थे। पढ़ाई लिखाई में बुरे होने के कारण पिता कृष्णचंद्र बसु ने आगे की पढ़ाई के लिए कोलकाता भेज दिया, लेकिन कालेज की पढ़ाई पूरी करने की जगह गवर्नमेंट आफ आर्ट कालेज में दाखिल हो गए और इसके बाद एक से एक चित्रों का निर्माण का जो क्रम चला, वह उनके कला संसार निरंतर समृद्ध करता चला गया। उनकी धनी प्रतिभा का परिचय एक से एक दिग्गज कलाकारों,कलाप्रेमियों और कला जगत के मर्मज्ञों अवनीन्द्रनाथ ठाकुर,आनंद केंटिश स्वामी, ई बी हावेल, सिस्टर निवेदिता से आरंभ होकर 1910 में रविन्द्रनाथ ठाकुर से हुआ तो उन्हें यह प्रतीत हुआ अब उनका छोटा सा रंग —पटल अछोर आकाश तक अपनी गरिमा विखेर सकेगा। नंदलाल बोस पर तो गुरूदेव रविन्द्रनाथ टैगोर ने कविता भी लिखी है।
इंडियन स्कूल ऑफ़ ओरियंटल आर्ट में अध्यापन किया और 1922 से 1951 तक शान्तिनिकेतन के कलाभवन के प्रधानाध्यापक रहे।
नंदलाल बोस को वह गौरव हासिल है कि भारतीय संविधान की मूल प्रति को चित्रों से सजाया। जवाहर लाल नेहरू जब शांति निकेतन गए तो वहां उनकी मुलाकात गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर के सान्निध्य में बड़े हुए ख्यातिप्राप्त नंदलाल को संविधान की मूल पुस्तक को अपनी चित्रकारी से सजाने का निमंत्रण दिया गया। नंदलाल बोस ने नेहरू के न्योते को स्वीकार किया। यह बात 1946 की है।
नंदलाल बसु के जीवन पर काम करने वाले हरि सिंह कॉलेज के अंग्रेजी के सेवानिवृत प्राध्यापक रामचरित्र सिंह ने नंदलाल बसु की जिंदगी को अपनी एक पुस्तक में जगह दी है। जिसमें उन्होंने नंदलाल बसु के जीवन से जुड़े हुए कई तथ्यों को लिखा है। कवि गुरु रवींद्रनाथ ठाकुर ने अपने एक संक्षिप्त विवरण में नंदलाल के बारे में कहा था- नंदलाल बसु एक पूर्ण काल्वित अपने जीवन और कार्य में समर्पित सांसारिक सफलताओं के प्रति उदासीन अपनी कला एवं कार्यों के प्रति एक निष्ठावान व्यक्तित्व हवेली खड़गपुर के हरि सिंह कालेज के पूर्व प्राचार्य प्रो. रामचरित्र सिंह इसकी पुष्टि करते हुए बताते हैं कि इसी साल जुलाई में संविधान सभा का चुनाव हुआ था। उसके बाद शांति निकेतन जाकर पं नेहरू ने उन्हें यह निमंत्रण दिया था। इसकी प्रमाणिकता का आधार उस साल का घटनाक्रम है। वहीं इसी क्षेत्र के साहित्यकार प्रदीप पाल बतातें हैं कि विश्वभारती की स्मारिका में भी इसका जिक्र है।
दरअसल में मंशा यह थी कि संविधान में भारतीय संस्कृति और सभ्यता के दर्शन हों। उस दौर में इस काम के लिए नंदलाल बोस उपयुक्त व्यक्ति थे। दूसरी यह भी कहा जाता है कि संविधान को केवल शब्दों से ही नहीं बल्कि कला से भी सजाए जाने का विचार का जन्म हुआ 1935 में हुआ। अंग्रेजों की हुकूमत के बीच 1925 में स्वराज संविधान का विचार आया और इस विचार को जन्म दिया नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने। जिन्होंने पंडित जवाहरलाल नेहरू के साथ मिलकर स्वराज संविधान पर एक साथ काम किया। 1935 में डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद जब भारत आजाद होगा, तब उसका खुद का संविधान होगा और उसे चित्रों के माध्यम से अलंकृत किया जाएगा।
उन्होंने इस काम में अपने छात्रों का भी सहयोग लिया।उनके मार्गदर्शन में उनके शिष्यों ने संविधान को डिजाइन देने का काम किया। बड़ी-बड़ी तस्वीरों को नंदलाल बोस ने खुद से पेंट किया।कलाकार नन्दलाल बोस की टीम में उनके शिष्य व्यौहार राममनोहर सिन्हा, दीनानाथ, भार्गव, कृपाल सिंह शेखावत, पेरुमल, विनायक शिवराम मासोजी और अन्य कलाकार, जिनमें बोस के तीन बच्चे, बिश्वरूप बोस और उनकी पत्नी निबदिता, गौरी भांजा और उनकी बेटी बानी पटेल, जमुना सेन, अमला बोस थे। बाद में कनैललाल सरकार की पत्नी, जगदीश मित्तल और धीरेंद्र कृष्ण देब बर्मन को भी टीम में शामिल किया गया।
भारतीय संविधान में 22 खण्ड हैं जिसे विख्यात चित्रकार नंदलाल बोस ने अपनी उत्कृष्ट चित्रकारी से चित्रित किया।संविधान की मूलप्रति को सजाने में चार साल लगे। इस काम के लिए उन्हें 21,000 रुपये मेहनताना दिया गया।नंदलाल बसु जैसे प्रतिभावान कलाकार ने अपनी कला की शैली और उसके पीछे की अवधारणा का विकास भारतीय इतिहास के आदिकाल, ऋग्वैदिक युग, मौर्यकालीन और बौद्ध कला के गहन अध्ययन, अजंता और बाघ की कंदराओं के चित्रांकन की बारीकियों, फीके पड़ते रंगों और रेखाओं में महीनों तक जान डालने और सांस्कृतिक भारत की परिधि में आनेवाले देशों की कला दीर्घाओं की खाक छानने के पश्चात किया था। वह एक महान राष्ट्र और देश की सबसे मानक कला संस्था 'विश्वविद्या तीर्थ प्रांगण' यानी शांति निकेतन के बीच एक पवित्र बंधन था।
संविधान के हर भाग के आरंभ में 8 – 13 इंच के चित्र बनाये गये हैं। सुनहरे बार्डर और लाल पीले रंग की अधिकता लिये हुए इन चित्रों की शुरुआत भारत के राष्ट्रीय प्रतीक अशोक स्तंभ से की गई है। इसे नंदलाल बोस के शिष्य दीनानाथ भार्गव ने बनाया था। जब प्रथम पृष्ठ की इस चित्रकारी को तैयार किया जाना था,उससे पहले भार्गव ने शेर की बनावट को समझने के लिए कई बार कोलकाता जू जाकर शेर को देखा था, ताकि पेंटिंग के दौरान किसी भी तरह की कोई कसर ना रहे। दीनानाथ भार्गव ने जब पहली पेंटिंग को तैयार किया था और उसे दिल्ली भेजा था, लेकिन मुख्य पृष्ठ की कलाकृति पर ब्रश गिर जाने के कारण उसे दोबारा बनाने के निर्देश दिए गए थे, जिसके बाद दीनानाथ भार्गव ने एक बार फिर प्रथम पृष्ठ को तैयार किया था।
अगले भाग में भारतीय संविधान की प्रस्तावना है। इसे आचार्य नंदलाल बोस के शिष्य राममनोहर सिन्हा ने अपनी कला सें सजाया जिसे सुनहरे बार्डर से घेरा गया है, जिसमें घोड़ा, शेर, हाथी और बैल के चित्र बने हैं। इस बार्डर में शतदल कमल को भी स्थान दिया गया है।
ये वही चित्र हैं, जो सामान्यतः मोहनजोदड़ो की सभ्यता के अध्ययन में दिखाई देते हैं। इस बार्डर में शतदल कमल को भी जगह दी गई है। भारतीय संस्कृति में कमल का महत्व है। इन फुलों को समकालीन लिपी में लिखे अक्षरों में घेरा गया है। अगले हिस्से में मोहनजोदड़ो की शील दिखाई गयी है। भारतीय संस्कृति में शील का बड़ा महत्व है। अगले हिस्से की शुरूआत वैदिक काल से की गयी है। इसमें किसी आश्रम का चिन्ह् है और मघ्य में बैठे उनके गुरु और शिष्यों तथा बगल में यज्ञशाला को दर्शाया गया है। मूल अधिकार वाले भाग की शुरूआत त्रेतायुग से की गयी है। इस चित्र में भगवान राम का लंका विजय और सीता के साथ वापसी को दिखाया गया है। हालांकि इस चित्र को लेकर संविधानसभा में विवाद भी हुआ था। कुछ लोगों ने इस पर सवाल भी खड़े किये। वोटिंग के बाद यह तय हुआ कि संविधान में लिखे शब्द भारतीय संविधान के अंग हैं न कि छपे चित्र। नीति निर्देशक तत्ववाले हिस्से में भगवान कृष्ण की गीताउपदेश वाली चित्र है। भारतीय संविधान संघवाले हिस्से में गौतम बुद्ध की यात्रा से जुड़ा एक दृश्य है। संघ राज्यवाले हिस्से में समाधिमुद्रा में मगवान महावीर हैं। आठवें हिस्से में गुप्तकाल की कलाकृति, दसवें हिस्से में नालंदा विश्वविद्यालय की मोहर, ग्यारहवे हिस्से में उड़ीसा की मूर्तिकला, बारहवें हिस्से में नटराज की मूर्ति, तेरहवें हिस्से में महावलीपुरम् मंदिर में उकेरी गयी कलाकृति, चैदहवें हिस्से में मुगल स्थापत्य कला, पंद्रहवें हिस्सें में गुरू गोविंद सिंह और शिवाजी, सोलहवें हिस्से में संघर्षरत टीपु सुल्तान और झांसी की रानी, सत्रहवें हिस्से में महात्मागांधी की दांडीयात्रा और अगले भाग में नोआखाली यात्रा से जुड़ा चित्र भी है। इस चित्र में बापू के साथ दीनवंघु एंड्र्यूज हैं। एक हिन्दू महिला गांधीजी को तिलक लगा रही हैं और कुछ मुस्लिम हाथ जोड़े खड़े हैं। यह चित्र साम्प्रदायिक सद्भावना का परिचायक है। 19 वें हिस्से में नेताजी सुभाषचंद्र बोस, 20वें हिस्से में हिमालय के उत्तुंग शिखर है। यह भारतीय सभ्यता की उंचाई को प्रतिविंवित करती है। अगले हिस्से में दूर तक फैले रेगिस्तान और उंटों का काफिला है, जो प्राकृतिक विविधता को प्रदर्शित करता है। अंतिम भाग में समुंद्र है। बरोडरा में गायकवाड राजाओं का पारंपरिक मंदिर, जो कीर्ति मंदिर के नाम से विख्यात है। इसके निर्माण में उनका अहम् योगदान रहा है। मंदिर के कलात्मक भित्ती चित्र में उनकी कलाकृति देखी जा सकती है।
नन्दलाल बोस के स्वतन्त्रता आन्दोलन से सम्बन्धित चित्र भी भारतीय इतिहास की अमूल्य धरोहर हैं। उनके 1882-1966 का काल स्वतंत्रता संग्राम के लिहाज से भारत के चित्र इतिहास का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है। इनमें गाँधी जी की 'दाण्डी यात्रा' तो बहुत प्रसिद्ध है।आज भी उनकी 7000 कृतियां संग्रहित हैं। नयी दिल्ली में स्थित "नेशनल गैलरी ऑफ़ मॉडर्न आर्ट" में. सन 1938 में कांग्रेस द्वारा हरिपुरा में हुए अधिवेशन के लिए महात्मा गाँधी के निवेदन पर बनाये गए महात्मा गाँधी का लिनोकट पोस्टर भी शामिल हैं। इसी के साथ उन्होंने कांग्रेस के कई अधिवेशनों के लिए पोस्टर और चित्र बनाए और गांधीजी का एक लाइफ साइज रेखाचित्र भी बनाया, जो बहुत प्रसिद्ध हुआ। कई आयोजनों के अवसरों पर गांधीजी के परिकल्पना को नन्दलाल बोस ने अपने चित्रकारी के माध्यम से साकार किया। अपनी चित्रकारी के माध्यम से तत्कालीन आंदोलनों के विभिन्न स्वरूपों, सीमाओं और शैलियों को उकेरा। उनके प्रसिद्ध चित्रों में दांडी मार्च, सती का देह त्याग और संथाली कन्या प्रमुख हैं। एक लेखक के रूप में उन्होंने रुपावली, शिल्प चर्चा और शिल्पकला जैसी पुस्तकें लिखी हैं।
उन्हें अपने जीवन काल में अनेक सम्मानों से सम्मानित किया गया। सन 1954 में उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया गया। सन 1956 में उन्हें ललित कला अकादमी का फेल्लो के रूप में चुना गया। ललित कला अकादमी का फेल्लो चुने जाने वाले वे दूसरे कलाकार थे। सन 1957 में कलकत्ता विश्वविद्यालय ने उन्हें 'डी.लिट.' की उपाधि से सम्मानित किया गया।विश्वभारती विश्वविद्यालय ने उन्हें देशीकोत्तम की उपाधि से नवाज़ा।
कलकत्ता के 'अकादेमी ऑफ़ फाइन आर्ट्स' ने उन्हें 'सिल्वर जुबली मैडल' दे कर सम्मानित किया।सन 1965 में एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ बंगाल ने उन्हें "टैगोर जन्म सदी पदक" दिया।16 अप्रैल, 1966 को इस महान और विश्वविख्यात चित्रकार का देहांत हो गया। उनकी जन्मभूमि हवेली खड़गपुर में साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्था 'संभवा' द्वारा उनकी आदमकद प्रतिमा स्थापित की गई। भागलपुर में भी नंदलाल बोस की प्रेरणा से उनके शिष्य बंकिमचंद बनर्जी ने कलाकेंद्र की स्थापना की और वहां भी उनकी आदमकद प्रतिमा स्थापित है। बिहार में नंदलाल बोस के नाम से कोई शिल्प संस्थान नहीं है।इस क्षेत्र केे झील रोड निवासी संजय सिंह का कहना है कि पटना के बाद बिहार में कला शिल्प के नाम पर भागलपुर में कला केंद्र तो हैं, लेकिन उनकी जन्मभूमि पर कोई शिल्प संस्थान बनाने या खोलने की दिशा में कोई सरकारी पहल क्यों नहीं हो रही है?