मैं वाल्मीकियों के घर तक ले चलूंगी, आपको

दलित और महिला दो हमारे यहां ऐसे वर्ग हैं जिनके मामलों में हम सबसे ज्यादा क्रूर, द्वेष भाव रखते हैं। इन दोनों के विरोध में अलग अलग सोच विचार के लोगों में गजब की एकता भी बन जाती है।

Update: 2021-10-25 07:07 GMT

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शकील अख्तर

मशहूर शायर अदम गोंडवी के शेर का यह मिसरा बहुत क्रान्तिकारी माना जाता है " मैं चमारों की गली में ले चलूंगा आपको!" गौर कीजिए कि इसमें एक प्रगतिशील शायर भी चमारों की गली तक की ही बात कर रहा है। वाल्मिकियों की गली या मोहल्ले की नहीं। जाटव समाज की बस्तियां शहर से लगी होती हैं। परकोटे के ठीक बाहर सड़क के दोनों और। वहां आमतौर पर लोगों का आना जाना होता है। लेकिन वाल्मिकी समाज, सफाईकर्मियों की बस्ती शहर से काफी दूर अलग थलग रखी जाती थी। वे आकर शहर साफ करें और वापस अपने दायरे में चले जाएं। हमारे समाज में जाति व्यवस्था सीढ़ी दर सीढ़ी है। दलितों में भी जातिगत ऊंच नीच है। हमारा सोच भी चाहे कितना ही प्रगतिशील हो उसमें अनायास जातिगत दुराव या थोड़ा बचने की प्रवृति आ ही जाती है।

मुश्किल डिक्लास (अपने उच्चवर्गीय अहंकार को छोड़कर सबसे गरीब के साथ खड़ा होना) होना भी है। मगर फिर भी प्रगतिशील चेतना रखने वाले बहुत से लोग डिक्लास होते हैं। लेकिन डिकास्ट (जाति के श्रेष्ठागत दंभ से मुक्त होकर सबसे दमित जाति के साथ खुद को जोड़ना) होना तो बहुत ही मुशिकल है। बड़े बड़े दलित, ओबीसी नेताओं, विचारकों को भी यहां फेल होते देखा। हम यह कहते हैं कि भारत में सबसे मुश्किल काम डिकास्ट होना है। जाति व्यक्ति के रेशे रेशे तक इस कदर भरी हुई है कि वह चाहकर भी इससे मुक्त नहीं हो पाता। लेकिन यहीं हम यह भी कहेंगे कि अभी जिसने आगरा में अरुण वाल्मिकी की मां, पत्नी, बच्चों को गले लगाती प्रियंका गांधी को देखा है वह मान गया होगा कि भारत में इससे पहले ऐसे दृश्य पहले कभी नहीं देखे गए। सफाईकर्मियों को गले लगाते, उनका दर्द बांटते प्रियंका ने वह सारे अवरोधक तोड़ दिए जो हमारी चेतना में सदियों से जमे हुए थे। भारतीय राजनीति का यह नया अध्याय था।

दलित और महिला दो हमारे यहां ऐसे वर्ग हैं जिनके मामलों में हम सबसे ज्यादा क्रूर, द्वेष भाव रखते हैं। इन दोनों के विरोध में अलग अलग सोच विचार के लोगों में गजब की एकता भी बन जाती है। दलित के मामले में जैसा आम सवर्ण व्यवहार करते है, वैसा ही ओबीसी भी। और महिला के मामले में सवर्ण, ओबीसी, दलित सबका सोच एक जैसा हो जाता है। मजेदार यह है कि इन दोनों मामलों में हिन्दु मुसलमान लगभग एक जैसा ही सोचते हैं। दलित और पिछड़ों के मामले में मुसलमानों का सोच कमोबेश वही होता है जो सवर्ण हिन्दुओं का। इसी तरह जब महिलाओं को अधिकार देने की बात आती है तो इसके विरोध में हिन्दु मुसलमान एक ही मंच पर आ जाते हैं।

हम हमेशा से कहते आए हैं कि संघ और भाजपा का मुसलमान विरोध राजनीतिक है। असल में वे अपना शत्रु तो दलित, ओबीसी और महिला को मानते हैं। इन तीनों का सशक्तिकरण उनके यथास्थितिवाद को बनाए रखने की कोशिशों को चोट पहुंचाता है। लेकिन ध्रुविकरण होता है मुसलमान के खिलाफ माहौल बनाने से। इसलिए निशाने पर मुसलमान होता है। अगर बीच से मुसलमान हट जाए तो दलित, ओबीसी, महिला सीधे निशाने पर होंगे। मुसलमान इनकी ढाल बन जाता है। लेकिन जब मामला आंतरिक होता है तो सीधे दलित, ओबीसी, महिला पर चोट की जाती है। और यहीं वह आश्चर्य और दुःख होता है जब मुसलमानों का बड़ा वर्ग भी दलित, ओबीसी और महिलाओं के खिलाफ खड़ा दिखता है।

प्रियंका गांधी ने आधी रात को आगरा पहुंचकर जिस तरह पुलिस हिरासत में मारे गए अरुण वाल्मिकी के साथ किए गए बर्बर व्यवहार को जाना, उनके परिवार पर ढाए गए जुल्मों को जाना और फिर सबके सामने लाईं वह इस मामले में असाधारण काम था कि अगर पुलिस से लड़ भिड़कर प्रियंका वहां नहीं जाती तो वाल्मिकी परिवारों पर हुआ यह जुल्म लोगों के सामने आ ही नहीं पाता। दो दिन तक बात दबी रही। परिवार रोता रहा। आगरा के वाल्मिकियों में ही गुस्सा भरता रहा।

मगर प्रियंका के वहां जाने की कोशिशों उन्हें रोकने, हिरसात में लेने की खबरों और फिर आधी रात को प्रियंका के वहां पहुंचकर परिवार को 30 लाख रुपए और हर तरह की सहायता की घोषणा के बाद ही सब जगह हलचल मची। यह अलग बात है कि फिर भी दलितों की सबसे बड़ी नेता होने का दावा करने वाली मायवती और अन्य पिछड़े वर्ग के नेता होने का गुमान पाले अखिलेश यादव वहां नहीं गए। लखीमपुर, हाथरस, सोनभद्र कहीं भी नहीं गए। दलितों के साथ प्रेम प्रदर्शन के राजनीति में कई नाटक होते हैं। उनके घर जाया जाता है और बाहर से मंगाया हुआ नए पहुंचाए बर्तनों में खाया जाता है। मगर इसमें भी दूसरी जाति के लोगों के यहां।

वाल्मिकियों के यहां वह भी नहीं। प्रियंका ने इस तरह उन्हें गले लगाकर जो भरोसा और अपनापन दिया है वह हमारे समाज में नई घटना है। अभी उसके बाद शनिवार को बाराबंकी में खेतो में धान काट रही महिलाओं के बीच वे चली गईं। क्या प्यार और अपनेपन से किसान महिलाओं ने उन्हें अपने हाथ से खिलाया! देखने लायक दृश्य था। मगर यह प्यार का मंजर था इसलिए टीवी वालों ने इसे उस तरह लोगों तक नहीं पहुंचाया जिस तरह वे नफरत और विभाजन की खबरें पहुंचाते हैं।

खैर इस परिवार को नफरत और वैमनस्य से कोई फर्क नहीं पड़ता। परिवार के दो सदस्यों इन्दिरा गांधी और राजीव गांधी ने प्रेम, एकता और देश की अखंडता के लिए अपनी जानें कुर्बान कर दीं। मगर फर्क पड़ता है महिलाओं की हालत से। उनके पीछे रह जाने और अधिकारों के न मिलने से। प्रियंका ने इसीलिए यूपी में एक क्रान्तिकारी घोषमा कर दी। चुनावों में 40 प्रतिशत टिकट महिलाओं को। इस खबर को भी मीडिया ने दबाने की बहुत कोशिश की। प्रियंका ने जब यह देखा कि इससे मीडिया को तकलीफ हो रही है तो वे समझ गईं कि स्कीम बहुत अच्छी है। इन दिनों मीडिया को जिस बात से तकलीफ हो समझ लीजिए कि वह कोई अच्छा काम है। मीडिया जिस बात का समर्थन करे समझ लीजिए कि वह जनविरोधी, अंबानी अडानी के हित की चीज है। अच्छाई और बुराई के बीच, जनहित और जनविरोध के बीच मीडिया ने एक सही पैमाना दे दिया है। जिसके साथ मीडिया है वह गलत, देश को नुकसान पहुंचाने वाला, समाज को बांटने वाला है। और मीडिया अगर विरोध करता है तो प्रियंका समझ गईं कि यह महिलाओं के लिए अच्छा फैसला है। उन्होंने तत्काल एक फैसला और ले लिया। सरकार बनने पर इंटर पास लड़कियों को टच फोन ( गांव में स्मार्ट फोन को टच फोन ही कहा जाता है या बड़का वाला फोन) और ग्रेजुएट लड़कियों को स्कूटी।

मीडिया के साथ दूसरे राजनीतिक दलों में हड़कम्प मच गया। बेहतर तो यह होता कि वे महिलाओं के लिए और अच्छी योजनाएं लेकर सामने आते। मगर महिला विरोधी मानसिकता ने एक गंदी बहस शुरू कर दी। ऐसी ही बहस 2010 में जब सोनिया गांधी ने राज्यसभा में महिला आरक्षण बिल पास करवाया था तब हुई थी। और इससे पहले जब पंचायतों में 33 प्रतिशत आरक्षण महिलाओं को दिया गया था तब हुई थी। महिलाओं का सशक्तिकरण पुरुषों के एक बड़े वर्ग को अपना निशक्तिकरण लगता है।

यह सबसे मुश्किल लड़ाई है। सारे पुरुष एक हो जाते हैं। डायरेक्ट, इन डायरेक्ट तरह तरह के संदेह व्यक्त किए जाते हैं। आरोप लगाए जाते हैं। और घटिया होने की सारी सीमाएं लांघ दी जाती है।

हम कहते हैं कि पुलिस, टीचर में पचास प्रतिशत महिला आरक्षण होना चाहिए। सब दलों को इस पर विचार करना चाहिए। और दोनों नौकरियां राज्य सरकारों के पास होती हैं। इसलिए जो भी राज्य सरकार खुद को महिला सशक्तिकरण का समर्थक बता रही है। उसे अपने यहां तत्काल यह लागू कर देना चाहिए। कांग्रेस के पास भी तीन राज्य सरकारें राजस्थान, पंजाब और छत्तीसगढ़ हैं। प्रियंका वहां भी कह सकती हैं!


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