सरकार ने बताए पूर्वांचल एक्सप्रेस वे के फायदे, जानिए क्या हैं नुकसान
Government told the benefits of Purvanchal Expressway, know what are the disadvantages
पूरे देश में एक्सप्रेस वे को विकास का कीर्तिमान मानते हुए स्थापित किया जा रहा है. कहीं गंगा, कहीं यमुना, कहीं बुंदेलखंड तो कहीं ताज एक्सप्रेस वे पर फर्राटा मारती गाड़ियों से दूर उन एक्सप्रेस वे के किनारे के गांवों की क्या हालत है इस पर सरकार बात नहीं करती.
विकास अगर देश कर रहा है तो जिनकी जमीनों को लेकर विकास का ढिंढोरा पीटा जा रहा है उनका कितना विकास हुआ इस बात पर भी सोचना होगा. वहीं किसान फसलों को बचाने के लिए अपने खेतों में लोहे की बाड़ लगाए तो उसको अपराध मानते हुए मुकद्दमा पंजीकृत किया जाता है. वहीं सरकार एक्सप्रेस वे के किनारे कटीले तारों की बाड़ लगाती है तो उसे सुरक्षा का मापदंड कहा जाता है. बाड़ लगाकर फसलों की सुरक्षा करना अपराध है तो एक्सप्रेस वे के किनारे सुरक्षा के नाम पर बाड़ लगाना क्यों नहीं अपराध की श्रेणी में आता है. क्या उससे टकराकर जानवर घायल नहीं होते. एक व्यक्ति द्वारा पशु क्रुरता करने से बड़ा अपराध सरकार द्वारा की गई पशु क्रूरता है. जब राज्य यह जानते हुए कि बाड़ लगाने से पशु घायल हो जाएंगे और यह गैरकानूनी है तो भी अपने ही बनाए कानून के खिलाफ जानते हुए जाना गंभीर अपराध है. इसे इसलिए अपराध नहीं माना जाएगा क्योंकि यह आधुनिक विकास का मापदंड बना दिया गया है.
बहुफसली जमीनों को खत्म करके एक्सप्रेस वे की दीवार खड़ी की गई है. इसने न सिर्फ सदियों से बसे गावों के आवागमन को प्रभावित कर दिया है बल्कि बारिश के मौसम में बहुतायत इलाकों में जल जमाव हो जाता है. एक्सप्रेस वे बनाने के लिए मिट्टी की जरूरत के चलते बड़े पैमाने पर उपजाऊ भूमि का खनन करके खेतों को गड्ढा बना दिया गया है. यह कैसा विकास जिसके चलते जो इलाके जल जमाव से ग्रसित नहीं थे उनमें जल जमाव होने लगा. जिसके कारण बड़े पैमाने पर मच्छर की वजह से मलेरिया, डेंगू जैसी बीमारियां पैदा हो रही हैं. पिछले बारिश के मौसम में पूर्वांचल में फैले डेंगू की वजह से बड़े पैमाने पर लोगों की मौत हुई जिसमें बड़ा कारण विभिन्न सड़कों के जाल की वजह से हो रहा जल जमाव रहा है. जल निकास की समुचित व्यवस्था नहीं हो पा रही है और यह संभव भी नहीं प्रतीत होता है.. बड़े-बड़े महानगरों में डेंगू फैलता है तो सरकार जल जमाव पर त्वरित कार्रवाई करती है वहीं दूसरी तरफ गांव में सरकार की नीतियों के चलते जल जमाव हो रहा. जिसके कारण डेंगू जैसी जानलेवा बीमारी लोगों की जान ले रही है.
सवाल कर सकते हैं कि एक्सप्रेस वे किनारे बाड़े नहीं लगाए जाएंगे तो सड़क पर दुर्घटना का खतरा बना रहेगा. जिस नीति के तहत सरकार एक्सप्रेस वे के किनारे बाड़े लगा सकती है तो उसी नीति के तहत खेतों के किनारे बाड़े सरकारी खर्च पर क्यों नहीं लगने चाहिए. सड़क के बगैर जीवन की कल्पना की जा सकती है पर अनाज के बगैर जीवन की कल्पना असंभव है.
पूर्वांचल एक्सप्रेस वे के किनारे के गांव के लोग जिनकी जमीनें एक्सप्रेस वे में गईं उनका कहना है कि सरकार ने कहा था कि नौकरी देंगे, नौकरी तो नहीं मिली पर आज यदि उनके बकरे-बकरी एक्सप्रेस वे के बाड़े के अंदर चले जाते हैं तो अथॉरिटी वाले न सिर्फ उठा ले जाते हैं बल्कि मुकदमे की धमकी देते हुए अवैध वसूली भी करते हैं. एक्सप्रेस वे में जिन किसानों की पट्टे की जमीन गई उनको मुआवजा नहीं दिया गया. सवाल यह है कि अगर किसी व्यक्ति के नाम से कोई जमीन किसी भी रुप में है तो उसका वह मुआवजे का अधिकारी होना चाहिए. पट्टे पर जमीन सरकार ने उन्हीं को दिया होगा जिनके पास जमीनें नहीं थीं. इसका मतलब वह भूमिहीन थे. एक भूमिहीन व्यक्ति जिसको सरकार द्वारा पट्टे पर जमीन दी गई उसकी जमीन को एक्सप्रेस वे जैसी विकास परियोजना के द्वारा छीन लेना क्या यही विकास का मापदंड है.
भूमि वाले को भूमिहीन बनाने वाला यह कैसा विकास है. होना तो यह चाहिए कि अभी तक जिनके पास जमीन नहीं है उन्हें भी जमीन आवंटित की जाए. पर इसके विपरीत यहां जमीन छिनी जा रही है. एक्सप्रेस वे में बड़े पैमाने पर ग्रामसभा की भी जमीनें गईं हैं. उनका कोई मुआवजा नहीं दिया गया है. यह एक मजबूत धारणा बनती जा रही है जिसके तहत शासन ग्रामसभा की जमीन को अधिग्रहण कर लेता है, जिसके पीछे वह तर्क देता है कि वह सरकारी जमीन है. अगर वह सरकारी जमीन है तो ग्राम सभा से सहमति लेने की क्या जरूरत है, लेकिन जरूरत इसलिए पड़ती है क्योंकि वह सरकारी जमीन नहीं है बल्कि ग्राम सभा की जमीन है. ग्रामसभा की जो जमीनें चाहे घूर गड्ढा, कब्रिस्तान, चारागाह, खेल का मैदान यह सभी ग्रामवासियों की जमीन से ही चकबंदी में काटकर उनके सामूहिक इस्तेमाल के लिए बनाई गई हैं. लेकिन आज उसको सरकारी जमीन कहकर छीना जा रहा है.
तालाब को पाटने या उसके किनारे भीटे पर घर बनाने पर बुलडोजर चला दिया जाता है. पेड़ काटने पर पुलिस पकड़ ले जाती है. वहीं सरकार विकास के नाम पर जलाशय, पेड़ों को कैसे काट सकती है. कृषि संकट और वनभूमि का क्षेत्रफल लगातार कम हो रहा जिसके चलते हीट वेव, हीट स्ट्रोक के चलते लोगों की मौत हो रही है. सवाल यह है कि आम नागरिक करे तो गैर कानूनी और सरकार करे तो विकास यह कैसे संभव है. जबकि होना यह चाहिए कि अगर सरकार कोई क्राइम करे तो उसकी सजा नागरिक की सजा से ज्यादा होनी चाहिए. क्योंकि कानून का पालन करना, करना उसकी जिम्मेदारी और जवाबदेही होती है. और अगर खुद कानून तोड़ेगी तो किस अधिकार से पालन कराएगी. होना तो यह चाहिए कि ग्राम सभा की जिन जमीनों को अधिग्रहित किया गया है उसके नुकसान के एवज में ग्रामसभाओं को मुआवजा दिया जाए. पर यहां पर उनकी जमीन को लेकर पीपीपी मॉडल पर मुनाफाखोर पूंजीपतियों को दे दिया जाता है.
विकास परियोजनाओं में देखा जाता है कि दूर दराज से मजदूर लाए जाते हैं, माना जाता है कि पास का मजदूर रहेगा तो वह कामचोरी करेगा. इस मानसिकता के चलते जिनकी जमीनें जाती हैं उनको कोई रोजगार नहीं मिलता. आमतौर पर सड़कों के बनने से यह धारणा विकसित है कि रोजगार के अवसर उपलब्ध होंगे, उन सड़कों के किनारे छोटी दुकानों से रोजगार मिलेगा. पर एक्सप्रेस वे इस धारणा को तोड़ देता है. अपनी ही जमीन पर बनी सड़क पर किसान को टोल देना पड़ता है, यहां तक कि बाइक को भी.
एक्सप्रेस वे बनने की प्रक्रिया में बड़े पैमाने पर मिट्टी का दोहन किया जाता है. खेतों से मिट्टी निकालकर सड़क बनाई जाती है. एक विशालकाय सड़क तो बन जाती है लेकिन खेतों की उपजाऊ मिट्टी बरबाद हो जाती है. खेतों से बेतहाशा मिट्टी निकालने की वजह से उर्वर भूमि खत्म हो जाती है और समतल खेत गड्ढों में तब्दील होते जाते हैं. किसान ने वर्षों में हाड़तोड़ मेहनत से जमीन को उपजाऊ बनाया उसे एक झटके में समाप्त कर दिया जाता है. खेत सड़क के एक किनारे और घर दूसरे किनारे. सदियों से बसे एक गांव से दूसरे गांव के संबंधों को न सिर्फ खत्म कर दिया जाता बल्कि औद्योगिक पार्क, एयरपोर्ट के नाम पर गांव का अस्तित्व इतिहास समाप्त कर दिया जाता है.
जिस तरीके से नदियों पर बने बांधों से गावों को खतरा होता है उसी तरह से एक्सप्रेस वे के किनारे बसे गांव भी संकट में हैं. सरकार ने कई एक्सप्रेसवे की परियोजनाएं नदियों के किनारे बना कर हमारी नदी घाटी सभ्यता को तहस नहस कर दिया है. जिन नदियों के किनारे उपजाऊ खेत थे उनपर एक्सप्रेस वे को बनाना देश को खाद्य संकट की तरफ ले जाना है. क्योंकि आज जिस तरीके से एक्स्प्रेस वे के किनारे के गावों में औद्योगिक क्षेत्र और पार्क के नाम पर जमीनें छीनने की साजिश हो रही है उससे इन इलाकों के गावों की जल, जंगल और जमीन प्रभावित होंगे. इसका असर न सिर्फ अधिग्रहित क्षेत्र पर पड़ेगा बल्की आसपास की खेती किसानी पर भी पड़ेगा. क्योंकि उद्योगों के चलते जल का बड़े पैमाने पर दोहन के साथ प्रदूषण होगा, जिसका खेती पर व्यापक असर होगा. जमीन जाने के डर से लोग परेशान रहते हैं कि घर, जमीन जाने के बाद कहां जाएंगे. सरकारें कई बार सामान्य तौर से कह देती हैं की सिर्फ जमीन ली जाएगी. लेकिन जिसकी जीविका ही जमीन से जुड़ी हो उसका घर न लेकर जमीन लेने के बाद उसके जीविका का साधन क्या होगा. इससे घबराहट बनी रहती है. जमीन जाने के बाद मुआवजे में मिले पैसों को लेकर भी व्यक्ति परेशान होता है.
अन्य कहीं जमीन लेने जाता है तो मुआवजे का जो हौव्वा खड़ा किया गया है उसके चलते उसको महंगी जमीन मिलती है. खेती की जमीन के अधिग्रहण के बाद किसान फिर खेती के लिए जमीन नहीं ले पाता. मतलब कि जमीन अधिग्रहण के बाद किसान, किसान नहीं रह जाता. आम तौर पर मुआवजे के बाद गाड़ी खरीदने का ट्रेंड बढ़ा है. मुआवजे का पैसा जब उपभोक्तावाद की भेंट चढ़ जाता है तो उसी किसान को जमीन याद आती है. क्योंकि गाड़ी की एक्सपायरी होती है जमीन की नहीं. दादा, परदादा जिस जमीन का वारिस बनाए थे वो जमीन गंवाकर अपने आने वाली नस्लों को न दे पाने की छटपटाहट आजीवन रहती है. जल का दोहन होगा, भूमिगत जल खत्म होता जाएगा. पेड़ कटेंगे जिससे पर्यावरण असंतुलित होगा, जिसका असर इंसान से लेकर जीव जंतु तक होगा. जिनकी जमीन लेकर विकास का पहाड़ खड़ा किया जा रहा है, पहाड़ के नीचे किसान मजदूर दब कर मरने की स्थिति में हैं. आइए पूर्वांचल एक्सप्रेस वे के किनारे के गावों की खेती किसानी परंपरा को बचाने के मुहिम में शामिल हो.