पश्चिमी यूपी में बदलाब के सुराग, 2013 का दंगा कैसे दस साल के भीतर भाईचारे का पलड़ा पलट देता है!
दस साल में दुनिया इतनी बदल गई कि एक मामूली स्कूल की छोटी सी घटना तक सुप्रीम कोर्ट में पहुंचने लगी। मुजफ्फरनगर के गांव-कस्बों में लोग इस बदलाव को कैसे देख रहे हैं? क्या सोच रहे हैं? मुजफ्फरनगर से लौटकर अभिषेक श्रीवास्तव की मंजरकशी
मुजफ्फरनगर में दस साल पहले दंगा हुआ था। सितंबर 2013 का महीना था। तब यूपी में सरकार भाजपा की नहीं थी। कमीशन बना, रिपोर्ट आई, समाजवादी सरकार बरी हो गई। समाज ने धीरे-धीरे खुद को संभाला। फिर हाइवे बने, किसान आंदोलित हुए, यूट्यूब चैनल पनपने लगे। दस साल में दुनिया इतनी बदल गई कि एक मामूली स्कूल की छोटी सी घटना तक सुप्रीम कोर्ट में पहुंचने लगी। मुजफ्फरनगर के गांव-कस्बों में लोग इस बदलाव को कैसे देख रहे हैं? क्या सोच रहे हैं?
मुजफ्फरनगर से लौटकर अभिषेक श्रीवास्तव की मंजरकशी
देश की राजधानी दिल्ली से पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले की दूरी 2013 के मुकाबले दो घंटा कम हो चुकी है। मेरठ एक्सप्रेसवे से होते हुए वाया परतापुर बाइपास, मंसूरपुर तक पहुंचने में बमुश्किल दो घंटे या उससे भी कम लगते हैं। यह दूरी एक और मायने में कम हुई है, हालांकि उसकी सूरत ठीक उलटी है। जमीन पर तो हाइवे खूब बन गए हैं, लेकिन सूचना की दुनिया के पुराने हाइवे इधर बीच अप्रासंगिक हुए हैं और उनके बरक्स छोटे-छोटे डिजिटल गलियारे उग आए हैं। इन गलियारों से खबरें बहुत तेजी से गांव-खेड़ों में पहुंच रही हैं। केवल खबरें नहीं पहुंच रहीं, अफसाने भी बन रहे हैं।
मसलन, यह बात मुझे मुजफ्फरनगर पहुंच कर पता लगी कि मंसूरपुर के प्राइवेट स्कूल में एक हिंदू शिक्षिका और एक मुसलमान बच्चे की पिटाई वाले कांड की एफआइआर एक लोकप्रिय यूट्यूब चैनल के पत्रकार के कारण दर्ज हो सकी थी।
मुजफ्फरनगर के खुब्बापुर गांव में एक प्राइवेट स्कूल की शिक्षिका के वायरल वीडियो वाले मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को ढीली जांच पर उत्तर प्रदेश सरकार को कड़ी फटकार लगाते हुए कहा था कि हफ्ते भर के भीतर एक वरिष्ठ आइपीएस अधिकारी को नियुक्त कर के इस मामले की फिर से जांच करवाई जाए। इस आदेश के अगले ही दिन संभल जिले के एक प्राइवेट स्कूल में इसके ठीक उलट एक घटना हो गई। यहां एक मुस्लिम शिक्षिका पर इस आरोप में मुकदमा दर्ज कर लिया गया कि उसने एक मुस्लिम बच्चे से एक हिंदू बच्चे की पिटाई करवाई है। मुजफ्फरनगर के बाशिंदों को इस घटना की सूचना भी अगले ही दिन मिल चुकी थी, हालांकि चर्चा के केंद्र में स्थानीय मामले पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला ही था।
यूट्यूब चैनल वाली बात कितनी सही है या गलत, बहस इस पर नहीं है। बेशक, यहां के गांवों के बाशिंदों के बीच इस बात पर सहमति है कि फलाना यूट्यूब चैनल न होता, तो लखनऊ के ढिकाने वकील साहब ने याचिका बनाकर यहां न भेजी होती और मामला सुप्रीम कोर्ट तक नहीं पहुंच पाता। यहां किरदार उतने अहम नहीं हैं, जितनी कहानी अहम है। इस कहानी में हालांकि कुछ पेंच हैं। इस पेंच को खोलना दिल्ली में बैठ कर संभव नहीं है। खासकर इसलिए क्योंकि 2013 के भयावह दंगे से गुजरने के बाद गंग नहर में बहुत पानी बह चुका है। मुजफ्फरनगर दस साल में बदल चुका है। लेकिन कितना? और कैसे?
छोटी-छोटी बातें
अबकी संयोग से अनंत चतुर्दशी के दिन ही ईद मिलाद-उन-नबी का पर्व था। मिलाद की सरकारी छुट्टी थी, लेकिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश से लेकर दिल्ली तक गणेश प्रतिमा के विसर्जन जुलूस में डीजे बमबमा रहे थे। ऐसा ही एक छोटा सा जुलूस नगाड़े बजाते हुए पास से गुजरा, जब कुछ लोगों के साथ मुजफ्फरनगर के एक छोटे से गांव में बैठकर यही सब चर्चाएं चल रही थीं। यह गांव 2013 के दंगे से अछूता रहा था।
‘’आप लोग बरावफात नहीं मना रहे?” मैंने जिज्ञासावश पूछा। एक बुजुर्गवार ने बताया कि वे देवबंदी हैं, इसलिए नहीं मनाते। बरेलवी मनाते हैं।
तब तक मैं उनका नाम नहीं जानता था। गांव के पुराने बस अड्डे पर कुछ लड़के मिल गए थे। उन्हीं के साथ बात करते हुए एक आंगन में आकर मैं बैठ गया था। लड़कों ने पानी पिलाया। तभी दो बुजुर्गवार वहां चले आए थे और ऐसे ही हलके-फुलके परिचय के साथ बातचीत शुरू हो गई थी।
बुजुर्ग बोले, ‘’मिलाद पर ‘उनका’ बर्थडे मनाते हैं। हम लोग बर्थडे नहीं मानते। अरे भाई, उन्हें मानते हो तो उनके रास्ते पर चलकर दिखाओ।‘’
वहीं बैठे जवान लड़कों की ओर इशारा करते हुए मैंने पूछा, ‘’आजकल के लड़के रास्ते पर हैं या भटक चुके हैं?” वे हंसने लगे। फिर थोड़ा शांत हुए और देखते-देखते उदास से हो गए और बोलते रहे:
‘’बहुत कुछ बदल गया है। छोटी-छोटी चीजों को इतना बड़ा बना दिया जा रहा है। पहले ऐसा नहीं था। दसेक साल में हुआ है। कौन नहीं मार खाता स्कूल में? हम तो मास्टरों से कहते थे कि बच्चा न पढ़े तो मेरी तरफ से चार डंडे और लगाओ। मास्टर चाहे किसी भी बिरादरी का हो…।‘’
बीच में टोकते हुए उनके छोटे भाई बोले, ‘’वो तो बच्चे का चाचा था जिसने वीडियो बनाई। आप देखो वीडियो में, वो भी हंस रिया था। वो तो ऐसे ही वीडियो बना रिया था। बवाल तो बाद में हुआ। सब पॉलिटिकल गेम है।‘’
मतलब, जो कहा जा रहा है कि बच्चे को मुसलमान होने के कारण दूसरे हिंदू बच्चों से पिटवाया गया, और जो सुप्रीम कोर्ट कह रही है, वो गलत है क्या?
बुजुर्ग बोले, ‘’इन्होंने ठीक से एफआइआर की होती तो मामला इतना बढ़ता ही नहीं। ये तो जान-बूझ के मामले को ढीला छोड़ देते हैं कि पॉलिटिक्स हो। अब देखो, सुप्रीम कोर्ट ने कैसे कह दिया? अब ये इसका फायदा उठाएंगे। माना कि कुछ लोगों के दिमाग में गंदगी भरी है। मास्टर भी अलग थोड़े हैं, लेकिन इतना बड़ा मामला ये नहीं था।‘’
एक नौजवान ने हस्तक्षेप किया, ‘’वो मेरठ वाले मामले में भी तो पॉलिटिक्स हुई थी। ये आश्रम वाले उसके यहां पहुंच गए थे और फोटो खिंचाई थी इन्होंने, जबकि सिम्पल केस था।‘’
लड़के का इशारा मेरठ के पवई खास नामक गांव के उस मामले की ओर था जहां से खबर आई थी कि ग्यारहवीं कक्षा की एक लड़की को टीका लगाने के कारण स्कूल से निकाल दिया गया था। जिस आश्रम का वह जिक्र कर रहा था, वह इस गांव से पंद्रह किलोमीटर की दूरी पर बघरा में था। हम उसी आश्रम से होते हुए जसोई आए थे।
बैंक, बस और बाजार
जसोई यानी बीते जमाने का जसमौर गढ़ी, जहां दस साल पहले मुसलमानों ने हिंदुओं को बचाया था, उन्हें पनाह दी थी। जसोई, जहां घुसते ही बाएं हाथ पर किसान मजदूर इंटर कॉलेज का नाम आपको चौंकाता है।
हम जहां बैठे थे, वह इस गांव के एक पुराने खानदान का आंगन था। यह आंगन बीती सात-आठ पीढि़यों का गवाह रहा है। कोई चार सौ साल पुरानी हवेली के खंडहर बीते जमाने में उसकी भव्यता का पता देते हैं। आसपास जब 2013 में दंगे फैले थे, तब बहुत से लोगों को इसी हवेली ने पनाह दी थी।
छोटे से बाजार में हिंदू और मुसलमान दोनों की दुकानें हैं। बाहरगांव के भी कुछ जाट, सैनी, राजपूत यहां काम-धंधा करने आते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि यहां एक पंजाब नेशनल बैंक है। आसपास के कोई पांच गांव इस बैंक पर निर्भर हैं। इसके अलावा, बाकी गांवों में यातायात के साधन नहीं थे जबकि यहां से बाकायदा चार बसें चला करती थीं। बसों के कारण यहां ठीकठाक बाजार भी बन गया था। उन गांवों के लिए बैंक, बस और बाजार के नाम पर इकलौता ठिकाना जसोई ही था। यहां जसोई में कुछ जाट परिवार थे, बाकी ज्यादातर हिंदू और मुस्लिम राजपूत व अन्य बिरादरी के लोग थे। आसपास की आबादी की संरचना भी तकरीबन ऐसी ही थी।
जब दंगे फैले, तो जाट परिवार डर के मारे गांव छोड़कर जाने लगे। बाहरगांव के जिन हिंदुओं की दुकानें थीं, वे दुकानें बंद रखने लगे। बाजार में सन्नाटे की स्थिति आ गई। ऐसे में सबसे पुराने खानदान ने हिंदुओं को गांव में टिकाए रखा। उनकी दुकानें दोबारा खुलवाईं। उन्हें आश्वासन दिया कि इनके रहते उन्हें कुछ नहीं होगा।
एक नौजवान दुकानों की ओर इशारा करते हुए बताते हैं, ‘’वो देख रहे हैं, वो दुकानवाले यहां के नहीं हैं। दंगों में चाचा ने उन्हें दुकान खोलने को राजी किया और कहा कि मेरे होते हुए कुछ नहीं होगा।‘’ चारों ओर की दुकानों और मकानों की मिल्कियत के बारे में समझाते हुए वे कहते हैं, ‘’पुराने लोग और थे, वे समझदार थे इसलिए चीजें कायम रहती थीं। हमारी पीढ़ी में सब्र नहीं है।‘’
फिर वे बसों के गायब होने की कहानी सुनाने लग जाते हैं। पांचेक गांवों का सहारा यहां की चार बसें कुछ साल पहले ही बंद की गई हैं। मामला केवल इतना सा था कि एक महिला ने टिकट के पैसे पर हुए विवाद के चलते बसों की शिकायत कर दी थी।
वे बताते हैं, ‘’फिर क्या था, अगले ही दिन यहां पूरा अमला आ पहुंचा। पुलिस, आरटीओ, सब। उन्होंने सारे कागज जांचे। सब सही निकला। फिर पॉल्यूशन के नाम पर उन्होंने चारों बसों पर जुर्माना कर दिया और बसों को सील कर दिया। प्रशासन ने कहा कि जब तक जांच पूरी नहीं हो जाती, बसें बंद रहेंगी।‘’
जहां बस अड्डा था, वहां फल का एक ठेला और एक चाउमीन-बर्गर की एक रेहड़ी लगी हुई थी। दो बैटरी रिक्शा खड़े थे। दो-चार लोग बैठे सुस्ता रहे थे। इस गांव से चार बसों का एक साथ गायब हो जाना पांच गांवों का नुकसान है।
‘’बैटरी वाले बिना भरे चलेंगे नहीं। रोडवेज की बसें बीच में रुकती नहीं हैं। पहले क्या था कि घर से ही आवाज मार दी तो बस एक आदमी के लिए रुक जाती थी। गांव में ऐसे ही होता है। अब बहुत दिक्कत है। ये सब कुछ लोगों के कारण होता है, बाकी जनता भुगतती है।‘’
कुछ लोग
जिस लहजे में उन्होंने ‘कुछ लोग’ कहा था, वह दिल्ली में रहने वालों के लिए ‘फ्रिंज एलेमेन्ट’ जैसा आभास देता था। यानी, हाशिये के छिटपुट तत्व! मुजफ्फरनगर में कौन हैं ये ‘कुछ लोग’? मैं जिज्ञासा से पूछता हूं।
वे बताते हैं कि गांव के कुछ लड़के आरएसएस के साथ काम करते हैं। उनके वॉट्सएप ग्रुप हैं। वे लोग ग्रुप्स में तय करते हैं कि क्या करना है, किसे टारगेट करना है।
वे कहते हैं, ‘’मेरे सारे दोस्त हिंदू लड़के हैं। सारे उसी तरह सोचते हैं। कुछ आरएसएस के लिए काम करते हैं। बचपन में अपनी क्लास में मैं अकेला मुस्लिम था। इसके बावजूद, मेरे साथ तो वे सही से रहते हैं। मुझसे उन्हें कभी शिकायत नहीं रहती। वे कहते हैं कि तुम अच्छे वाले मुसलमान हो। खराब वाले दूसरे हैं।‘’
उनके बुजुर्ग ताया हंसते हुए कहते हैं, ‘’अरे, वे तीन नहीं थे, (कोई नाम लेते हुए) के लड़के, जो नूंह गए थे। एक तो पैर तुड़वाकर आया था। बोल रहा था मोटरसाइकिल से गिर गया। हम नहीं जानते कि कौन-कौन है? हैं इस गांव में ऐसे लोग, लेकिन ठीक है। सब अल्लाह की मर्जी है, अपने यहां सब शांत है।‘’
जानकर आश्चर्य होता कि मुजफ्फरनगर के किसी गांव के तीन लड़के नूंह की हिंसा में शामिल थे। यहां के लोगों के लिए यह सामान्य बात है। वे इस पर चौंकते नहीं हैं। बुजुर्गवार के छोटे भाई बताते हैं, ‘’मेरे बीच में भी ऐसे लोग हैं। मेरे अच्छे ताल्लुकात हैं उनसे। ये सब पॉलिटिक्स करवा रही है उनसे। कामधाम है नहीं, क्या करेंगे।‘’
क्या बेरोजगारी के कारण लोग ऐसे समूहों में शामिल होते हैं? वे हंसते हुए कहते हैं, ‘’अरे जी, इनका तो धरम-ईमान ही ना है। पैसे दे दो तो हिंदू बन जाएंगे, और पैसे दो तो मुसलमान बन जाएं। यहां तो ये चलता ही रहता है। ऐसे कुछ ही लोग हैं, ये सच्चे हिंदू या मुसलमान नहीं हैं। बेगैरत हैं, बेकार हैं।‘’
हफ्ते भर पहले ही मुजफ्फरनगर से धर्मांतरण की खबर आई थी। कुछ ऐसे मुसलमान परिवारों को हिंदू बनाया गया था जो पहले भी हिंदू थे। ये धर्मांतरण जिस आश्रम में हुए थे, लड़के ने उसी का जिक्र थोड़ी देर पहले मेरठ वाली घटना के संबंध में किया था।
‘’आप लोग जानते हैं कि वहां धर्मांतरण हुआ था?” मैंने पूछा।
बुजुर्ग खान साहब बोले, ‘’बेकार की बातें हैं।‘’ फिर वे अपने छोटे भाई की तरफ देखकर गांव के किसी व्यक्ति की याद दिलाने लग जाते हैं जो कुछ दिनों के लिए पैसे लेकर हिंदू बना था, पैसे खत्म हो गए तो उसने माला निकाल के फेंक दी।
वे ठहाका लगाते हुए बोले, ‘’…फिर से मुसलमान बन गया। एक एफिडेविट बनवाया था उसने, एक माला पहनी थी, लॉकेट जैसी होवे है। कुछ पैसे-वैसे मिले थे। पैसा खत्म, वापस मुसलमान।‘’
फिर वे गंभीर होकर कहते हैं, ‘’ये सब इधर नहीं चलता। जो जिस धर्म का है अपना मानता है। जिनके पास कामधाम नहीं है, पैसे चाहिए, वही ये सब करते रहते हैं। कुछ लोग मीडिया में आ के बयान दे देते हैं कि हमने इतनों को हिंदू बनाया। वे बस अपना भला चाहते हैं।‘’
वे बताते हैं कि जिस आश्रम ने मुसलमानों को हिंदू बनाने का दावा किया था, वह महज दस-पंद्रह साल पहले की पैदाइश है। उसका पूरा नाम योग साधना यशवीर आश्रम है। पास के बघरा में है। इसे कोई यशवीर स्वामी चलाते हैं। आश्रम की मानें तो उसे खुले 21 साल हो गए। स्थानीय लोग बताते हैं कि उसके स्वामी आसपास के किसी गांव के जाट हैं। कुछ और लोगों का दावा है कि स्वामीजी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के गुरुभाई हैं।
एक आश्रम
मुजफ्फरनगर से शामली के बीच बघरा में मुख्य सड़क से कोई पचासेक मीटर भीतर जंगल-झाड़ के बीच लोहे का बड़ा सा फाटक है जिस पर योग साधना यशवीर आश्रम का बैनर बंधा है। दो दिन पहले ही यहां वार्षिकोत्सव मनाया गया है। बाहर पड़ी प्लास्टिक की प्लेटें और गिलासें और एक बुझ चुकी यज्ञवेदी की राख इसकी तसदीक करती है।
इस आश्रम में घुसना दिल्ली के नॉर्थ ब्लॉक से भी ज्यादा कठिन है। कोई पंद्रह मिनट तक बाहर खड़े-खड़े मैं भीतर वाले शख्स से बात करता रहा, लेकिन वे टस से मस नहीं हुए। उनका कहना था कि किसी ऐसे व्यक्ति से कहलवाना पड़ेगा जिसे वे जानते हों और भरोसे का हो।
‘’सुरक्षा का मसला है, पता नहीं पत्रकार के भेस में कोई गुंडा हो’’, कह कर वे हंस दिए थे। पूरा परिचय देने, पहचान पत्र दिखाने, मोबाइल जमा करने आदि की शर्त पर भी वे नहीं माने। उनका कहना था कि महाराज जी किसी अनजान से नहीं मिलते, चाहे वे कहीं से भी आवे। एक स्थानीय पत्रकार की भी मदद ली गई, लेकिन उसे भी यही जवाब मिला कि रेफरेंस लेकर आओ।
आश्रम के बाहर मुख्य सड़क पर महाराजा सूरजमल की एक बड़ी सी प्रतिमा लगी है। इसकी स्थापना आश्रम के स्वामी यशवीर ने की थी। सड़क किनारे एक बड़ा सा ढाबा है, उसका नाम भी सूरजमल ढाबा है। सूरजमल के इस स्मारक पर पिछले साल दिसंबर में उनका बलिदान दिवस मनाया गया था जिसे आश्रम ने आयोजित किया था।
सूरजमल वर्तमान राजस्थान राज्य के भरतपुर के एक जाट शासक थे। उनके अधीन जाट शासन में आगरा, अलीगढ़, भरतपुर, धौलपुर, इटावा, हाथरस, मैनपुरी, मथुरा और रोहतक के वर्तमान जिले शामिल थे। दिल्ली के शहादरा में रोहिल्ला सैनिकों के हाथों उनकी मौत हुई थी। शहादरा में उनके नाम पर बने सूरजमल पार्क के भीतर उनकी एक समाधि बनाई गई है और बाहर का इलाका सूरजमल विहार कहलाता है। वैसे, सूरजमल की मूल समाधि गोवर्धन में है।
इससे यह तो समझ में आता है कि आश्रम के साथ जाट राजा सूरजमल का सीधा रिश्ता है, लेकिन योगी आदित्यनाथ, भाजपा या संघ प्रभृति संगठनों के साथ इसका रिश्ता बहुत जटिल है। योगी 2015 में आश्रम आए थे। तब वे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री नहीं, सांसद हुआ करते थे। उस वक्त मुसलमानों की जनसंख्या पर यहां उनके दिए बयान की खबरें अब भी इंटरनेट पर मौजूद हैं।
मिलाद से दो दिन पहले 26 सितंबर को हुए आश्रम के 21वें वार्षिकोत्सव में मुख्य अतिथि विश्व हिंदू परिषद के महामंत्री मिलिन्द परांदे थे। इससे पहले भी यहां नेता आते रहे हैं। इसी तरह, स्वामी यशवीर भी सामाजिक कार्यक्रमों में नेताओं के साथ मंच साझा करते रहे हैं। मसलन, 5 जून 2022 को मेरठ के आदर्श ग्राम नैड़ू में हुई एक दौड़ प्रतियोगिता में विशिष्ट अतिथि स्वामी यशवीर थे और मुख्य अतिथि मुजफ्फरनगर के भाजपा सांसद और केंद्रीय मंत्री संजीव बालियान थे।
जाहिर है, ऐसे बड़े नेताओं के साथ आश्रम के महाराज की उपस्थिति सुरक्षा को लेकर आश्रम की अतिरिक्त चिंताओं को स्वाभाविक बनाती है। इसलिए हमने तो जिच करने के बजाय आगे बढ़ने का फैसला कर लिया, लेकिन आश्रम की सुरक्षा फिर भी जरूरी रही होगी इसलिए बघरा से लेकर जसोई तक एक पुलिस जीप हमारे साथ लुकाछुपी खेलती रही।
चाक-चौबंद आश्रम के भीतर से स्वामी यशवीर मीडिया और ट्विटर पर खूब सक्रिय हैं। हाल की खबरों और उनके ट्वीट की मानें तो इस आश्रम ने पिछले डेढ़ साल में हजार से ज्यादा मुसलमानों की ‘घर वापसी’ करवाई है। यह खुद आश्रम का दावा है। चूंकि बाहर से किसी को प्रवेश की यहां इजाजत नहीं, तो दावे की जांच करना मुमकिन नहीं है। इसके अलावा, पिछले दिनों टीका लगाने के चलते स्कूल से निकाली गई मेरठ की एक छात्रा का भी स्वामी ने तलवार थमाकर सम्मान किया और उसका दूसरे स्कूल में नाम लिखवा दिया, ऐसा उनका दावा है।
सबसे दिलचस्प दावा यह है कि स्वामी यशवीर शास्त्रार्थ के लिए जमीयत-उल उलेमा हिंद के मौलाना अरशद मदनी को न्योता दे चुके हैं। स्थानीय मीडिया में इसकी खूब खबरें छपी थीं। दिल्ली में जमीयत के लोगों से बात करने पर पता चलता है कि यह एकतरफा मामला था, इस पर जमीयत की ओर से कोई प्रतिक्रिया ही नहीं दी गई। स्वामी अपने कुछ समर्थकों को लेकर देवबंद के लिए निकले थे लेकिन उन्हें मुजफ्फरनगर में ही रोक लिया गया था।
जमीयत धर्म परिवर्तन की बातों को एकदम से नकारता है। जमीयत के लोगों का कहना है कि यशवीर आश्रम धर्म परिवर्तन के जैसे दावे करता है, वह सड़क पर पड़े बंजारों और मुफलिसों को उठाकर कुछ खिलाने-पिलाने तक ही सीमित मामला है। उनकी जानकारी में न तो हिंदू और न ही मुसलमानों में धर्म परिवर्तन जैसा कुछ मुजफ्फरनगर में घटा है। जो खबरें आती हैं, वे पब्लिसिटी स्टंट से ज्यादा कुछ नहीं हैं।
बघरा के लोगों को भी इस आश्रम और इसकी गतिविधियों का ज्यादा पता नहीं है। यहां के पत्रकार भी बहुत कुछ नहीं जानते, हालांकि 1 अगस्त को स्वामी यशवीर का किया यह ट्वीट बताता है कि मामला उतना भी लो प्रोफाइल नहीं है: ‘’आज मेवात जाने से रोका है कल तुम्हें मथुरा वृंदावन से रोकेंगे फिर तुम्हें हरिद्वार से रोकेंगे बताओ तुम जाओगे कहां’’।
नूंह से लौटे जसोई के तीन लड़कों की बात जो वहां के बुजुर्ग बता रहे थे, इस बात की ओर संकेत है कि यह हलचल वॉट्सएप समूहों से काफी आगे की है।
जाट संसद
मेरठ से मुजफ्फरनगर के बीच हाइवे के किनारे अंतरराष्ट्रीय जाट संसद के बड़े-बड़े होर्डिंग लगे हुए हैं। यह सम्मेलन 1 अक्टूबर को मेरठ में होना है। पिछले कुछ दिनों से राज्यों में जाटों के प्रांतीय सम्मेलन हो रहे हैं जिनमें भारी भीड़ जुट रही है।
जाटों की पहली अंतरराष्ट्रीय संसद एक ऐसे वक्त में होने जा रही है जब दावे हैं कि पश्चिमी यूपी में जाटों और मुसलमानों के बीच रिश्ते पहले की तरह सौहार्दपूर्ण हो चुके हैं। खासकर साल भर चले किसान आंदोलन के बाद लगातार हमें बताया गया है कि जाटों और मुसलमानों के बीच की दरार भर चुकी है।
जसोई के बुजुर्ग खान साहब कहते हैं, ‘’लड़ाई तो जाटों और मुसलमानों की थी। राजपूत तो उसमें कहीं था ही नहीं। जिन भी गांवों में हिंदू और मुसलमान राजपूतों की आबादी थी, वहां दंगे नहीं हुए। दस साल में जाट अब बिलकुल ठीक हो चुका है, अब वह नहीं हिलेगा। कई गांवों के तो जाट खुद आकर कैम्पों से मुसलमानों को वापस लेकर गए हैं।‘’
अगर जाटों और मुसलमानों के बीच सब कुछ ठीक है, तो लोकसभा चुनाव और कुछ विधानसभा चुनावों से ठीक पहले मेरठ में हो रही अंतरराष्ट्रीय जाट संसद के क्या मायने हैं? क्या इसका कोई राजनीतिक निहितार्थ है?
अव्वल तो, इस जाट संसद का सीधा लेना-देना राजस्थान के चुनावों से है। अप्रैल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से अंतरराष्ट्रीय जाट संसद के संयोजक रामावतार पलसानिया (जयपुर) और पीएस कलवानिया (नागौर) ने दिल्ली में मुलाकात की थी। इस मुलाकात में संयोजकों ने मांग उठाई थी कि अगर भारतीय जनता पार्टी की सरकार राज्य में दोबारा बनती है तो मुख्यमंत्री किसी जाट को बनाया जाए। संयोजकद्वय ने प्रधानमंत्री को महाराजा सूरजमल की एक तस्वीर भी भेंट की थी।
जाट संसद की परिकल्पना इतनी भी नई नहीं है। इसे पिछले तीन साल से पकाया जा रहा था। जाट संसद के पहले सत्र का आयोजन दिल्ली के विज्ञान भवन में 1 मार्च 2020 को 62 देशों से आए जाट समाज के लोगों की उपस्थिति में हुआ था और दूसरा सत्र जयपुर के बिड़ला ओडिटोरियम में 12 जून 2022 को हुआ। यह वही दौर था जब साल भर से ज्यादा समय तक किसान आंदोलन चला था। इसके बाद 18 सितम्बर 2022 को बेंगलुरू के टाउनहॉल में ‘प्रवासी जाट अधिवेशन’ आयोजित किया गया। अब चुनाव नजदीक आने पर इस प्रक्रिया में अचानक तेजी ला दी गई है।
जाट संसद के प्रस्तावित मुद्दों को देखने पर पता चलता है कि जाटों के लिए आरक्षण, सियासी प्रतिनिधित्व और महाराजा सूरजमल के ‘गौरवशाली’ इतिहास के इर्द-गिर्द गोलबंदी इसके तीन मुख्य तत्व हैं। मेरठ के एक शिक्षक बताते हैं कि पिछले लोकसभा चुनाव में पश्चिमी यूपी में हारी सात सीटों का हिसाब चुकाने का यह खेल हो सकता है। इसके अलावा राष्ट्रीय लोकदल को भी अपने साथ लाने की भाजपा की यह कवायद हो सकती है।
जाट संसद के संयोजकों ने रालोद के जयन्त चौधरी को भी आने का न्योता दिया है। चौधरी फिलहाल कांग्रेसनीत गठबंधन ‘इंडिया’ का हिस्सा हैं और उनके भाजपा के साथ जाने की चर्चाएं बीते कई महीनों से रह-रह के चल रही हैं।
इसका अर्थ यह है कि किसान आंदोलन के बाद जिस जाट-मुसलमान एकता की बहाली की बात की जाती रही है उसमें जाट दोफाड़ है, एकवट नहीं। यदि महाराजा सूरजमल को जाट गौरव के एक प्रतीक के तौर पर देखें, तो बघरा के योग साधना यशवीर आश्रम के बाहर लगी उनकी विशाल प्रतिमा कुछ कहती है।
दूसरी ओर, राजपूतों के पास भाजपा के अलावा कोई ठिकाना नहीं है। मुजफ्फरनगर में वकालत की शिक्षा ले रहे एक छात्र बताते हैं कि कुछ महीने पहले महाराजा मिहिर भोज की एक प्रतिमा को लेकर सहारनपुर और हरियाणा में राजपूतों और गुर्जरों के बीच संघर्ष हुआ था। वे बताते हैं, ‘’यूपी की योगी सरकार ने राजपूतों के हक में जाते हुए प्रतिमा के नीचे गुर्जर सम्राट लिखवा दिया। तब से उनसे गुर्जर नाराज हैं। राजपूतों को कोई दिक्कत नहीं है।‘’
यदि पश्चिमी यूपी के हिंदू राजपूत और जाटों का एक धड़ा भाजपा के साथ चला जाता है, तो उसे पिछड़ी जातियों की चिंता करने की जरूरत नहीं रहेगी। जसोई के खान साहब कहते हैं, ‘’पिछड़ों को आगे रख कर ही तो इन्होंने सारी मारकाट मचाई है। पिछड़े, खासकर सैनी, भाजपा के साथ ही रहेंगे। दलितों में, खासकर युवा दलितों में बसपा से मोहभंग की स्थिति है। उनके बीच चंद्रशेखर की अपील बहुत जबरदस्त है। अब वह कहां जाता है, देखने वाली बात होगी।‘’
तो क्या साम्प्रदायिक सौहार्द और चुनावी नतीजों का आपस में कोई सीधा रिश्ता नहीं है? बुजुर्ग खान साहब कहते हैं, ‘’हम तो चाहते हैं कि सरकार बदले, लेकिन हमारे चाहने से क्या होता है। दस साल में हालात बिगड़े हैं, अगर और पांच साल ये रह गए तो और बिगड़ेंगे। वैसे, अब हिंदू-मुसलमान वाली दिक्कत उतनी नहीं है पर पॉलिटिक्स का क्या भरोसा।‘’
‘पॉलिटिक्स’ बनाम सौहार्द
एक स्थानीय पत्रकार जितेंद्र भी इस बात से आश्वस्त दिखते हैं कि मुजफ्फरनगर को बदनाम ज्यादा किया गया है, सांप्रदायिक दिक्कत यहां उतनी है नहीं।
वे कहते हैं, ‘’पहले हम लोग रात दस बजे कहीं जाने के लिए किसी को फोन कर के साथ चलने के लिए कहते थे। इतना डर लगता था निकलने में, लेकिन अब आप बारह बजे कहीं भी चले जाओ कोई डर नहीं है। 2013 से स्थिति एकदम उलट है।‘’
क्या यह किसान आंदोलन के कारण हुआ है?
‘’नहीं, हो भी सकता है, लेकिन कानून प्रशासन बहुत टाइट है। अब कोई बदमाशी कर के देख ले!” “लेकिन पॉलिटिक्स तो वही है, बदली नहीं। अगर पॉलिटिक्स वही है तो समाज कैसे बदल गया अपने आप?” मेरे पूछने पर वे समझाते हैं कि लोगों ने अब भाजपा के राज को स्वीकार कर लिया है। पलट कर वे पूछते हैं, ‘’किसान आंदोलन के पहले राकेश टिकैत भी क्या था? टिकट के लिए ही तो परेशान था?‘’
यही बात खान साहब भी कह रहे थे, ‘’वह रोया नहीं होता तो आज टिका नहीं होता। पॉलिटिक्स करनी है, ऐसे चाहे वैसे। उससे भाजपा का क्या लेना-देना?‘’ उनके भतीजे ने तभी टोकते हुए कहा था, ‘’अब गांव-गांव में आरएसएस, बजरंग दल है। पहले नहीं था। लोग इनको जान गए हैं, इन्हीं के साथ रहना भी है। इसी में एकाध बातें हो जाती हैं। जो हत्थे चढ़ जाते हैं, मारे जाते हैं। तो लोग कोशिश करते हैं कि इनके हत्थे न चढ़ें। लोगों को बचना आ गया है। अब सब, सबको जानते हैं।‘’
बुजुर्ग बताते हैं कि यह पश्चिमी यूपी के लिए नई स्थिति है जो बीते दसेक साल में बनी है। पहले यहां संघ, बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद को कोई नहीं जानता था। अब ये परिचित संगठन हैं। इनके चेहरे भी लोगों के बीच में ही रहते हैं, भले इनकी स्वीकार्यता न बढ़ी हो। इसीलिए, अब संगठनों, पार्टियों और धार्मिक आश्रमों का अंतर धुंधला हो गया है।
यह किसी संयुक्त परिवार जैसा मामला है। धर्मांतरण का दावा करने वाले बघरा के यशवीर आश्रम में 28 सितंबर को विश्व हिंदू परिषद के अखिल भारतीय महामंत्री मिलिन्द परांदे मुख्य अतिथि थे, तो चार दिन पहले विहिप के कार्यक्रम में मुजफ्फरनगर के सांसद संजीव बालियान मुख्य अतिथि थे। मुजफ्फरनगर की सरधना विधानसभा के गांव समोली में राधा अष्टमी के मौके पर 24 सितंबर को विहिप और बजरंग दल द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में भाजपा के सांसद न सिर्फ शामिल हुए, बल्कि उन्होंने इसकी तस्वीरें भी साझा कीं। इस संयुक्त परिवार में अब अठारहवीं सदी के महाराजा सूरजमल को भी जाट गौरव के बरास्ते शामिल किया जा रहा है। उस पर आरक्षण का तड़का अलग से है।
इस संयुक्त परिवार की ‘पॉलिटिक्स’ का चरित्र नहीं बदला है। वैसा ही है जैसा भाजपा सांसद रमेश बिधूड़ी की भाषा में संसद में सत्र के आखिरी दिन झलका था। बदला है तो लोगों का चरित्र और ‘पॉलिटिक्स’ की उनकी समझदारी। दिल्ली से दूरियां कम होने का यही लाभ हुआ है।
सरधना का महातीर्थ
यह बदलाव देखना हो, तो सरधना चले आइए। वहीं, जहां संजीव बालियान 24 तारीख को थे। सरधना में दो सौ साल पुराना एक चर्च है। चर्च भी नहीं, बसिलिका यानी महागिरजाघर। यह भारत की दूसरी बसिलिका है। पहली गोवा में है। इस 4 अक्टूबर को यह इमारत 201 साल की हो जाएगी। इसे भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने अपने संरक्षण में लिया हुआ है। यहां आपको पश्चिमी यूपी का पूरा समाज मां मरिया को सिर नवाते, मसीह को याचिकाएं लिखते दिख जाएगा।
एक मुसलमान औरत अपनी बेटी के साथ गेट पर आती है और भीतर जाने को कहती है। वहां आठ साल से मैनेजर का काम कर रहे मध्यम कद के एक सुंदर सांवले शख्स उन्हें टिकट खिड़की की ओर जाने को कहते हैं। वह समझ नहीं पाती। फिर वे बताते हैं कि पांच रुपये का टिकट लगेगा।
‘टिकट? पूजा करने के लिए?’
मैनेजर मुस्कुरा देता है। मां-बेटी टिकट लेती हैं और चप्पल उतारकर भीतर चली जाती हैं। उस विशाल इमारत में- जिसके बीच में इस्लामिक गुंबद है और जिसके दोनों किनारों पर ग्रीको-रोमन मीनारें हैं- घुप्प सन्नाटा है। दो युवक बेंच पर बैठकर कुछ लिख रहे हैं। सामने एक पेटी है जिस पर लिखा है- अपनी ‘पिटीशन’ और दान यहां जमा करें। पिटीशन मने मन्नत कह लीजिए। दोनों लड़के बेरोजगार हैं। अकसर आते हैं। मैनेजर ने बताया कि दोनों ईसाई नहीं हैं, बाकी चाहे जो हों।
बेगम समरू का बनवाया यह चर्च पिछले साल इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के एक सेमिनार में एक परचे का विषय था। बेगम समरू सरधना की जागीरदार थीं। वे मूल कैथोलिक थीं और उनका नाम था जोआना नोबिलिस सॉम्बर। परचे में बताया गया था कि कैसे यह चर्च मिलीजुली संस्कृति का एक नायाब उदाहरण है, जो खुद बेगम समरू की जिंदगी की एक झलक देता है- जिस तरह उन्होंने रूढ़ छवियों और पहचानों को तोड़ा और एक से दूसरी संस्कृति का बेलौस सफर किया। बेगम की मौत यहीं सरधना में हुई थी।
चर्च के बाहर लगे ठेलों पर बिक रही मालाएं, झुमके, औरतों के श्रृंगार की चीजें, छिटपुट खिलौने, आदि मिलकर एक मेले जैसा माहौल बनाते हैं। इस मेले की सांस्कृतिक पहचान नहीं की जा सकती, न ही वहां आने वाले स्थानीय लोगों को किसी एक पहचान में कैद किया जा सकता है। कस्बे की ओर बांहें फैलाए ईसा मसीह की विशाल प्रतिमा गोया सबका खुले दिल से स्वागत करती हो।
चर्च के मैनेजर और गार्ड यहां के मिजाज की तसदीक अपनी बातचीत में करते हैं। वे बताते हैं कि 2013 में इस चर्च पर, इसकी सेमिनरी पर, इसके कॉलेज और स्कूल पर कोई आंच नहीं आई थी। ईसाई होने की अलग पहचान यहां किसी के लिए दिक्कत वाली बात न पहले थी, न अब है।
मैनेजर कहते हैं, ‘’आज भी सब कुछ ठीकठाक है। कहीं कोई दिक्कत नहीं। हर तरह के लोग आते हैं, प्रे करते हैं, बाहर ठेलों से रोजरी खरीदते हैं। कभी संडे को आइए, देखिए।‘’
यदि सब कुछ वाकई ठीक है, तो ये जो घटनाएं सुनने में आती हैं स्कूलों से, गांवों से, नफरत की, ये क्या हैं? गार्ड साहब कहते हैं, ‘’सर, वो सब पॉलिटिक्स है। कुछ लोगों का दिमाग गड़बड़ हो गया है, ठीक हो जाएगा। लोग अब थक चुके हैं।‘’
भाईचारे का तराजू
कोई नहीं मानता कि मुजफ्फरनगर में कुछ बदला है। क्या दस साल में हुए बदलाव इतने ही मामूली हैं? क्या समाज पीछे भी लौटता है?
यही सब बातचीत हाइवे किनारे एक ढाबे पर जितेंद्र के साथ चल रही थी, तभी उनके जानने वाले एक पुलिस अधिकारी वहां मिल गए। तीन स्टार थे। परिचय हुआ। पता चला इलाके के सीओ रह चुके हैं। दंगों के दौरान भी पश्चिमी यूपी में ही कहीं थे। रहने वाले भी गाजियाबाद के ही हैं। वही सवाल उनसे मैंने किया- 2013 से अब तक क्या बदला है?
वे दो मिनट तक सोचते रहे, फिर किसी सधे हुए बौद्धिक की तरह उन्होंने एक लाइन में जवाब दिया:
‘’बदलाव यह हुआ है कि पहले हिंदू भाईचारे की बात करता था, अब मुसलमान भाईचारा-भाईचारा चिल्ला रहा है।‘’
‘’थोड़ा विस्तार से समझाएं’’, मैंने आग्रह किया।
वे बोले, ‘’देखिए, 2014 के पहले हिंदू आराम से रहता था, सबको मिला के रखता था, फिर भी छिटपुट बातों के चलते परेशान तो रहता था। खुद को दबाए रखता था। चाहता था कि शांति बनी रहे, मामला बिना झगड़े के निपट जाए। इसीलिए ज्यादा बोलता नहीं था, रिएक्ट नहीं करता था। लगातार 2014 और 2019, फिर 2017 और 2022 यानी चार चुनाव में एक ही नतीजे के बाद आज हालत उलटी है। हिंदू पलट कर न केवल मार रहा है बल्कि मुकदमा भी करवा रहा है। हिंदू अशांत हुआ है।‘’
‘’क्या अंदाजा है, ये सिलसिला कहां तक पहुंचेगा?” मैंने पूछा।
‘’दस साल पहले जो हुआ सो हुआ, फिलहाल तो स्थिति कानून के नियंत्रण में है। माहौल ठीक है। जरूरत है कि हिंदू भी अब वापस लौट जाए। आप संख्या को देखिए, फिर सोचिए, किसका अशांत होना समाज के लिए ज्यादा नुकसानदायक है।‘’
मैंने जितेंद्र की ओर देखा।
‘’आपका क्या खयाल है?”
‘’क्या कहूं सर, आप तो जानते ही हैं। मैं पत्रकारिता छोड़ने की सोच रहा हूं। जहां जाओ, पूछते हैं किसके आदमी हो। किस पार्टी से हो। लोग पार्टीवाला मान के देखने लगे हैं। अब इज्जत से बात नहीं करते।‘’
उसने एक किस्सा सुनाया। दिल्ली के किसी पत्रकार ने किसी मित्र को रिपोर्ट कवरेज में मदद के लिए उसके पास भेजा था। उस पत्रकार ने जो रिपोर्ट लिखी, उसमें किसी के नाम से कोई वाक्य डाल दिया। उस आदमी का गुस्से से भरा फोन जितेंद्र के पास आ गया कि ऑफ द रिकॉर्ड बातचीत को कैसे उसके नाम से छाप दिया गया।
‘’वो दिन और आज का दिन, मेरी बात नहीं हुई उससे। रिश्ता खराब हो गया। अब कोई पत्रकार दिल्ली से आता है तो मैं संभल जाता हूं,‘’ दुखी मन से उसने कहा।
मैंने चुहल में पूछा, ‘’वो जो बच्चे वाले मामले पर सुप्रीम कोर्ट का आदेश आया है, उस टीचर से आप मुझे मिलवाएंगे?”
उसने उत्साह से कहा, ‘’मेरे ही गांव की है। मैंने रिपोर्ट की थी। होगी घर पर ही…।‘’ फिर थोड़ा सोचते हुए बोला, ‘’जाने दो सर, क्या फायदा। अब तो मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंच चुका है। बात बेबात इतना बड़ा मामला बन गया।‘’
सीओ साहब बोले, ‘’मुझे लगता है कि हमें कोशिश करनी चाहिए कि कोई बात जरूरत से ज्यादा न बढ़े। माहौल खराब होता है। निश्चित रूप से कुछ लोग हैं जो गलत सोचते हैं। हम उसे दिखाकर बढ़ावा क्यों दें?”
जितेंद्र ने जोड़ा, ‘’हां सर, आप देख लीजिए, जहां जरूरत होगी मैं पूरी मदद कर दूंगा। बाकी, लोग शांत हैं। सब कुछ बढि़या चल रहा है। आजकल तो केवल नाम छाप देने से ही भरोसा उठ जाता है पत्रकारों पर से।‘’
काली टीशर्ट की इबारत
जितेंद्र का अंतिम वाक्य मन में घूम रहा था। पत्रकारिता के नियम शाश्वत नहीं हैं। समाज के हिसाब से नियम बदलते रहने चाहिए। जरूरी नहीं कि कोई व्यक्ति ‘नाम न छापने की शर्त पर’ ही कुछ बोले। या यह मानकर बोले कि आप तो नाम छाप ही देंगे। ज्यादातर वक्त सामने वाला आदमी पत्रकारों को इंसान समझ कर ही बात करता है। बदले में पत्रकार को भी उसे समाज का एक आम प्रतिनिधि मानकर उसकी बात कह देनी चाहिए, नाम लिए बगैर।
यह काम थोड़ा मुश्किल है, लेकिन उतना भी नहीं जितना बगैर तस्वीर के किसी तस्वीर के बारे में लिख देना।
मसलन, मुजफ्फरनगर से वापसी में अपर गंग नहर के किनारे गणेश विसर्जन के एक जुलूस में नाचते हुए कई लोगों के बीच एक व्यक्ति दिखा। उसकी काली टीशर्ट के पीछे लिखा था- ‘हिंदू राष्ट्र’। जाहिर है, उसकी तस्वीर नहीं है मेरे पास। मैंने खींची नहीं। क्यों?
यह सोचकर, कि हो सकता है वह आदमी भी उन ‘कुछ लोगों’ में एक हो, जिनकी राह बेगम समरू की बसिलिका में बांहें फैलाए खड़ा मसीहा देख रहा है।