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इतिहास में उपेक्षित है सिनगी, कईली और चंम्पा दई आदिवासी वीरागंनाओं के नाम
इतिहास में आदिवासी महिलाओं की वीरगाथा भरे पड़े है। उन वीरगाथा में से एक 'जनी शिकार' का त्योहार हैं। जो बारह वर्षों में एक बार मनाया जाता है। ये त्योहार आदिवासी महिलाओं की वीरगाथा को दर्शाती है। 'जनी शिकार ' साहस व वीरता का प्रतीक हैं। जनी शिकार मनाने के पीछे एक ऐतिहासिक मान्यता हैं। कहा जाता कि रोहतासगढ में बसे उराॅव आदिवासियों पर तुर्क सेना के द्वारा कई बार आक्रमण हुआ था। बार -बार आक्रमण करने के बावजूद वे रोहतासगढ़ पर फतेह हासिल नहीं कर पा रहे थे।
दुश्मन आदिवासियों की कमजोरी तलाशने लगे। तभी इन दुशमनों को पता चला कि आदिवासियों का सबसे बड़ा त्योहार 'सरहुल' होता हैं । इस त्योहार में वे 'साल'(सखुआ) पेड़ और उसके ' फूल' की करते हैं। जिसको तोड़ने के लिए गाँव के सारे पुरूष नाचते - गाते हुए जंगल की ओर जाते है। और महिलाएं घर में रहकर पकवान बनाती है। दुशमनों को इससे अच्छा मौका नहीं मिल सकता था। 'सरहुल' के दिन गाँव के सारे पुरूषों को जंगल जाते देखते ही दुशमनों ने रोहतासगढ़ में आक्रमण कर दिया।
रोहतासगढ़ में आक्रमण होता देख महिलाएं अपने राज्य को बचाने के लिए पुरूषों का वेष धारण कर हाथ में टांगी, बलूआ, फरसी, हॅसूआ, बैंठी, दौवली एंव तीर-धनुष लेकर रोहतासगढ़ के राजा रूईदास की बेटी सिनगी दई, कईली दई ,चंम्पा दई की अगुवाई में दुश्मनों से कड़ा मुकाबला किया था। सभी दुशमनों को 'नाकों तले चना चबवा ' दिया था। युद्ध के बाद विजय स्वरूप सभी महिलाएं माथे में 'गोदना ' (टैटू) गोदवाई। यह निशान उनकी दृढ़ता का प्रतीक है। आदिवासी महिलाओं की इसी वीरता की याद में हर 'बारह वर्ष' में रोहतासगढ़ की विरागंनाओं की याद में 'जनी शिकार ,' का आयोजन महिलाओं के द्वारा किया जाता है।
पहाड़िया विद्रोह में रमना मंराडी ने अंग्रेजों को धूल चटा दी थी। बाबा तिलका मांझी आन्दोलन में *फूलमणि मंझियाईन ने लगान नहीं देने के लिए अंग्रेजों से डटकर मुकाबला की थी। तेलंगा खड़िया की पत्नी रत्नी खड़िया अपने पति के साथ मिलकर अपनी माटी जमीन, जंगल से अँग्रेजों को हटाने के लिए युवा वर्ग को तीर , तलवार और गदका चलाने की शिक्षा दी। तेलंगा खड़िया को 14 साल की सजा होने पर रत्नी खड़िया ने ही पति के अधूरे काम को ईमानदारी से पूरा किया
बीर बुद्धू भगत आन्दोलन में , बीर बुद्धू भगत की बहन रूनवा - झूनवा ने अपने भाई से गुरिल्ला युद्ध का प्रशिक्षण लेकर अपने क्षेत्र शीलागाई से अंग्रेज़ों को मार भगाया था। बाद में अंग्रेजों ने रूनवा - झूनवा का अपहरण कर इनकी हत्या कर दी थी। सिद्धू - *कान्हु की बहन फूलो - झानों की वीरता का बखान करना अपने में गौरव की बात हैं। इन दोनों बहनों ने 21 अंग्रेज़ों की हत्या की थी। इन दोनों बहनों ने अंग्रेजों के नाक में दम कर रखा था, बाद में इन दोनों बहनों की हत्या कर दी गई। बिरसा अन्दोलन में *मकी मुंडा, सली, थिगी, नागी, महि मुंडा ने बढ़ - चढ़ कर हिस्सा लिया। जतरा टाना भगत आन्दोलन में बंधनी उराॅव की अगुवाई में 500 महिलाओं ने पुरजोर आन्दोलन किया।
इन दोनों बहनों ने अंग्रेज़ों के नाक में दम कर रखा था। बाद में अंग्रेजों ने इन दोनों बहनों की हत्या कर दी। पर इतिहास ने इन वीरागंनाओ के साथ बहुत ज्यादा न इन्साफी की हैं। जयपाल सिंह मुण्डा आन्दोलन के समय झारखण्ड माॅग को लेकर लगभग 10 हजार महिलाएॅ झारखण्ड से पुरूलिया (बंगाल)पद यात्रा की थी। 80 के दशक में अलग झारखण्ड की मांग को लेकर सैकडों महिलाएॅ जेल में बन्द थी। दर्जन भर से ज्यादा महिलाओं की हत्या आन्दोलन के दौरान हो गई थी। वीरों को जन्म देने वाली मातृशक्ति कभी कमजोर नहीं हो सकती हैं। फिर भी आज इतिहास में आदिवासी विरागनाएॅ कहीं उल्लेखित नहीं हैं?
जबकि बिरसा मुण्डा, सिद्ध-कान्हु का जिक्र इतिहास में है। अगर ईमानदारी पूर्वक बात करें , तो आदिवासी नेताओं ने भी कभी आदिवासी वीरागंनाओ के लिए कुछ नहीं किया और न ही कोई सरकारी योजनाओं में इन वीरागंनाओ के नाम से पारित किया गया है । जबकि इन्दिरा गाॅधी के नाम से हजारों योजनाएं झारखण्ड में चल रही हैं , पर इन आदिवासी वीरागंनाओ के नाम से न ही एक स्टेचू है और न ही एक विश्वविद्यालय है। इतिहास ने भी इन वीरागंनाओ को हमेशा उपेक्षित रखा।
(बरखा लकड़ा)