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क्या बिहार में नीतीश-तेजस्वी सरकार को बर्दाश्त कर पाएगी बीजेपी?
9 अगस्त को भारत छोड़ो आंदोलन के 80 बरस पूरे हुए थे और इसी दिन नीतीश-तेजस्वी सरकार ने शपथ ली थी। चार साल पहले 16 अगस्त को बीजेपी के भीष्मपितामह अटल बिहारी वाजपेयी ने अंतिम सांस ली थी। 16 अगस्त को ही नीतीश-तेजस्वी सरकार ने अपनी कैबिनेट बनायी।
महागठबंधन ने अंग्रेजों भारत छोड़ो को बीजेपी के गद्दी छोड़ने से जोड़ा है। जबकि, अटल बिहारी वाजपेयी को एक वोट से बहुमत खो देने लेकिन खरीद-फरोख्त की सियासत नहीं करने के लिए जाना जाता है।
इसी संदर्भ में यह सवाल उठ रहे हैं कि क्या बीजेपी नीतीश-तेजस्वी सरकार को उसका बचा हुआ जीवन बख्श देगी? या फिर मोदी-शाह की बीजेपी बिहार में महागठबंधन सरकार का भी वैसा ही हश्र करेगी जैसा उसने कभी गोवा, अरुणाचल, उत्तराखण्ड, कर्नाटक, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में किया था?
नवगठित नीतीश सरकार में क्या लोकतांत्रिक प्रतिरोधक व्यवस्था (Democratic Immune System) है जो भविष्य में कभी ऐसे संक्रमण का सामना कर सके जो इस सरकार पर प्रवर्तन निदेशालय, सीबीआई, इनकम टैक्स जैसी केंद्रीय एजेंसियों के इस्तेमाल के रूप में या फिर ऑपरेशन लोटस के तौर पर दस्तक दे?
महाराष्ट्र में नवाब मलिक, अनिल देशमुख जैसे कद्दावर मंत्रियों की गिरफ्तारी के बावजूद जब उद्धव सरकार नहीं गिरी तो एकनाथ शिंदे मॉडल सामने आ गया। यह कहानी क्या बिहार में भी दोहरायी जा सकती है? क्या इसके आसार हैं?
नीतीश-तेजस्वी सरकार के भविष्य को लेकर उठ रहे सवालों के पीछे वजह यह नहीं है कि इस सरकार में ऐसा कोई शुरुआती संकेत हो जो इन सवालों को जन्म दे। इसके बजाए वजह ये है कि बीजेपी क्या नीतीश कुमार की बगावत को बर्दाश्त कर सकेगी? क्या बीजेपी अपनी जनादेश वाली गठबंधन सरकार का छीन लिया जाना और समांतर तरीके से नयी सरकार का गठन बर्दाश्त कर पाएगी? खुद बीजेपी ने भले ही जनादेश को तोड़कर सरकार बनाने का काम किया हो, लेकिन यह देश में पहला उदाहरण है जब बीजेपी की गठबंधन सरकार को तोड़कर किसी ने ऐसी गुस्ताखी की हो।
मजबूत है गठबंधन का आधार
नीतीश-तेजस्वी सरकार के पास दो तिहाई बहुमत है। न सिर्फ सदन में, बल्कि प्रतिशत वोटों के रूप में भी। चुनाव बाद गठबंधन होने के बावजूद यह बहुत बड़ा गठबंधन है। बीते विधानसभा चुनाव में तेजस्वी यादव के नेतृत्व वाला गठबंधन सत्ता से थोड़ी दूर रह गया था। मगर, तेजस्वी की ओर से रोज़गार को लेकर दिए गये नारे या फिर ए टू जेड जैसे सामाजिक एकजुटता वाले भावों को पसंद किया गया था। नयी सरकार में नीतीश कुमार ने 20 लाख रोजगार देने का ऐलान कर तेजस्वी की सियासत को मजबूती दी है।
वहीं, मंत्रिपरिषद का गठन बताता है कि मुस्लिम, यादव, ओबीसी, दलित सभी वर्गों को जगह दी गयी है। सवर्ण भी उपेक्षित नहीं रखे गये हैं।
नीतीश-तेजस्वी की युति बिहार में एक ऐसे राजनीतिक समीकरण को खड़ा करने की ओर बढ़ रही है जिसे कभी लालू प्रसाद ने मंडल आंदोलन के बाद खड़ा किया था।
सत्ता की जरूरत के अलावा जातीय आधार पर जनगणना का नारा नये सिरे से पुराने आधारों को खड़ा करने का अवसर देता है। अगर इस आधार पर नीतीश-तेजस्वी ने सियासत को मजबूत करना जारी रखा, तो हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद के नारे से इस सियासत की बुनियाद को बीजेपी कमजोर नहीं कर पाएगी।
बीजेपी और उसके लिए आनन्द मोहन जैसे कुख्यात अपराधियों का जेल से बाहर रहने का आधार पर्याप्त होगा। अपहरण उद्योग दोबारा अगर पैदा हुआ तो बीजेपी के लिए विपक्ष के तौर पर मजबूत प्रदर्शन करते हुए सार्थक सियासत का अवसर बनेगा और वह 'जंगलराज' की समझ को दोबारा जिन्दा कर सकती है।
पिछला प्रदर्शन दोहरा पाएगा एनडीए?
बीजेपी के पक्ष में उसका मजबूत संगठन है। बिहार में आज बीजेपी संगठनात्मक रूप से जितनी मजबूत है पहले कभी नहीं थी। जेडीयू से बड़ी पार्टी बन जाने की यह सबसे बड़ी वजह है। नीतीश कुमार का बीजेपी से अलग हटकर तेजस्वी के साथ सरकार बनाना एक तरह से बीजेपी के लिए मौका भी है। दो ध्रुवों वाली सियासत बीजेपी के लिए फायदेमंद रही है। आने वाले चुनाव में यह पहला मौका होगा जब बीजेपी को द्विध्रुवीय सियासत का फायदा मिलेगा।
लेकिन, बड़ा सवाल यह है कि क्या एनडीए को बीते आम चुनाव की तरह बिहार से 40 में से 39 सीटें मिलेंगी? अगर, नहीं तो बीजेपी के पास इंतजार करने का वक्त नहीं है और यही चिंता का सबब है।
2015 का विधानसभा चुनाव
2015 में दो ध्रुवीय चुनाव में महागठबंधन ने बिहार विधानसभा चुनाव में 243 में से 178 सीटें जीती थी। 2024 के आम चुनाव में अगर यही प्रदर्शन दोहराया गया तो बीजेपी बमुश्किल से दहाई का आंकड़ा छू पाएगी। पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र में भी बीजेपी की सीटें बढ़ने के कोई आसार नहीं दिखते। इस कड़ी में अगर बाकी राज्य भी शुमार होते हैं तो बीजेपी के हाथ से देश निकलता हुआ दिखाई देगा। बिहार में महागठबंधन की सियासत का यही महत्व है और यही बीजेपी के लिए चिंता का सबब भी।
महागठबंधन का प्रयोग
अक्सर उत्तर प्रदेश का उदाहरण दिया जाता है जहां एसपी और बीएसपी साथ चुनाव लड़कर भी बीजेपी का बड़ा नुकसान नहीं कर सकी थी। इसके बावजूद बीएसपी को लोकसभा की 10 सीटें मिलना कोई छोटी घटना नहीं थी। अगर कांग्रेस समेत दूसरी छोटी राजनीतिक पार्टियां भी महागठबंधन का हिस्सा होती तो यूपी में भी दो ध्रुवीय चुनाव के नतीजे बीजेपी को बड़ा नुकसान पहुंचा सकते थे। कहने का अर्थ यह है कि बिहार में महागठबंधन का प्रयोग अगर देश भर में दोहराया गया तो बीजेपी के लिए मुश्किलें बड़ी हो सकती हैं।
निश्चित रूप से बीजेपी की कोशिश बिहार में महागठबंधन की सियासत को चोट पहुंचाकर ऐसी किसी भी आशंका को हमेशा के लिए खत्म कर देने की होगी जो उसकी सत्ता को राष्ट्रीय स्तर पर चुनौती दे। यही जरूरत इस आशंका को मजबूत करती है कि नीतीश-तेजस्वी की युति के खिलाफ बीजेपी चुप रहने वाली नहीं है। समीकरण के आधार पर मजबूत नीतीश-तेजस्वी की जोड़ी को भ्रष्टाचार और जंगलराज के नैरेटिव से जोड़कर बीजेपी हमलावर होगी।
देखना यह है कि केंद्रीय एजेंसियों के दुरुपयोग या ऑपरेशन लोटस जैसी तरकीबों से बिहार सरकार को अस्थिर करने की कोशिश आगे बढ़ती है या फिर बीजेपी राजनीतिक संघर्ष के बूते जनता के बीच अपनी पैठ मजबूत बनाते हुए ऐसा करना चाहेगी।
Prem Kumar
प्रेम कुमार देश के जाने-माने टीवी पैनलिस्ट हैं। 4 हजार से ज्यादा टीवी डिबेट का हिस्सा रहे हैं। हजारों आर्टिकिल्स विभिन्न प्लेटफ़ॉर्म पर प्रकाशित हो चुके हैं। 26 साल के पत्रकारीय जीवन में प्रेम कुमार ने देश के नामचीन चैनलों में महत्वपूर्ण पदों पर काम किया है। वे पत्रकारिता के शिक्षक भी रहे हैं।