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सुरेंद्र किशोर
स्वतंत्रता सेनानी व समाजवादी नेता दिवंगत रामानंद तिवारी पुलिस से पुलिस मंत्री तक बने थे। निधन से पहले वे लोक सभा (1977)के सदस्य भी चुने गए थे। पर, अंगे्रजी का ज्ञान नहीं रहने के कारण वे केंद्र में मंत्री नहीं बन सके। समाजवादी नेता मधु लिमये के बारे में रामानंद तिवारी यह कहा करते थे कि 'अंगेजी हटाओ ' का नारा देने वाली सोशलिस्ट पार्टी के नेता मधु लिमये द्वारा यह कहा जाना कि आप केंद्र में मंत्री इसलिए नहीं बन सकते क्योंकि आप अंग्रेजी नहीं जानते, शर्म की बात है। मधु लिमये ने यही कह कर उनके मंत्री बनने का विरोध कर दिया था। यानी, यदि उन्हें अंग्रेजी आती तो वे केंद्र में भी मंत्री बने होते। बिहार में तो वे दो -दो बार पुलिस मंत्री रहे।
पर ये तिवारी जी थे कौन ?
तिवारी जी का जन्म उन्हीं के शब्दों में 'एक कंगाल द्विज' के घर हुआ था। वे अविभाजित शाहाबाद जिले के मूल निवासी थे। उनके होश सम्भालने से पहले ही उन पर से पिता का साया उठ गया। उनकी मां ने किसी तरह उन्हें बड़ा किया। पहले तो तिवारी जी रोजी-रोटी की तलाश में कलकत्ता गये। पर उन्हें वहां काफी कष्ट उठाना पड़ा तो वे लौट आये । उन्हें हाॅकर, पानी पांड़े और कूक के भी काम करने पड़े। वे पुलिस में भर्ती हो गये।सन् 1942 में महात्मा गांधी के आह्वान पर आजादी की लड़ाई में शामिल हो गये। उन्होंने अपने कुछ साथी सिपाहियों को संगठित किया और आजादी के सिपाहियों पर गोली चलाने से इनकार कर दिया।तिवारी जी गिरफ्तार कर लिये गये। हजारीबाग जेल भेज दिये गये। जेल में उनकी जयप्रकाश नारायण से भेंट हुई।
जेपी से प्रभावित होने की घटना के बारे में तिवारी जी ने एक बार इन पंक्तियों के लेखक को बताया था। उन्होंने कहा कि दूसरे बड़े नेता जेल में अलग खाना बनवाते थे । पर, जेपी जेल में अपने साथियों के साथ ही खाते और रहते थे। इसी बात ने तिवारी जी को जेपी की ओर मुखातिब किया । वे भी समाजवादी बन गये।
आजादी के बाद सन् 1952 के चुनाव में ही तिवारी जी शाह पुर से समाजवादी विधायक बन गये। वे लगातार सन 1972 के प्रारंभ तक विधायक रहे। सन् 1972 में वे हार गये। सन् 1977 में वे बक्सर से जनता पाटी के सांसद बने । इस बीच वे सन् 1967 में महामाया प्रसाद सिंहा सरकार और सन् 1970 में कर्पूरी ठाकुर सरकार में वे पुलिस मंत्री थे। पुलिस मंत्री के रूप में उन्होंने बिहार पुलिसमेंस असोसियेशन को मान्यता दिलवाई। ऐसी मान्यता देने वाला बिहार पहला राज्य बना।
तिवारी ने पुलिसकर्मियों की दयनीय सेवा शत्र्तों की ओर पहली बार लोगों का ध्यान खींचा। उनके प्रयासों से आम सिपाहियों की स्थिति में थोड़ा सुधार हुआ। पर अब भी सिपाहियों की हालत ठीक नहीं है। उनके काम के घंटे अधिक हैं। उनके लिए रहने की उचित व्यवस्था नहीं है । और, डयूटी के समय उन्हें समुचित भोजन तक नहीं दिया जाता। कोई सरकार यदि सिपाहियों की सेवा शत्र्तें मानवीय बना दे तो वह तिवारी जी को श्रद्धांजलि होगी।
वे आज के अधिकतर नेताओं से अलग थे। उनमें पद और पैसा के प्रति लोभ नहीं था। जिस तरह सन 1996 में ज्योति बसु को उनकी पार्टी ने प्रधान मंत्री नहीं बनने दिया,उसी तरह सन 1970 में रामानंद तिवारी को उनकी पार्टी संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी ने मुख्य मंत्री नहीं बनने दिया। यानी यूं कहें कि पार्टी के कुछ नेताओं ने ऐसी स्थिति पैदा कर दी कि खुद तिवारी जी ने मुख्य मंत्री बनने से इनकार कर दिया। उनसे कहा गया कि वे ऐसी सरकार के मुख्य मंत्री कैसे बनेंगे जिस सरकार में जनसंघ शामिल रहेगा ? बिहार विधान सभा के सदस्यों का बहुमत तिवारी जी को मुख्य मंत्री बनाने के लिए तैयार था। तिवारी जी को राज भवन जाकर सिर्फ मुख्य मंत्री पद की शपथ लेनी थी। यानी, बारात सज गई थी,पर दूल्हा भाग चला। कारण सैद्धांतिक था।
क्या सैद्धांतिक कारण से कोई मुख्य मंत्री पद छोड़ता है ?
तिवारी जी के मुख्य मंत्री नहीं बनने के कारण दारोगा प्रसाद राय मुख्य मंत्री बन गये। पर जनसंघ को लेकर वह बहाना भी बोगस था। संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी ने सन् 1967 में उसी जनसंघ के साथ बिहार में भी सरकार बनाई थी। फिर जब दारोगा प्रसाद राय की सरकार गिर गई तो उसी जनसंघ के ही साथ मिलकर संसोपा के ही कर्पूरी ठाकुर ने सरकार बना ली। यानी जनसंघ का बहाना सिर्फ तिवारी जी को मुख्य मंत्री पद तक पहुंचने से रोकने के लिए था।
हालांकि तिवारी जी भी जब कर्पूरी ठाकुर मंत्रिमंडल में शामिल हो गये तो अनेक लोगो ंको आश्चर्य हुआ। इसको लेकर तिवारी जी की आलोचना हुई। पर इस बात को लेकर उनकी तारीफ जरूर हुई कि भले ही कारण जो भी रहा हो ,पर रामानंद तिवारी ने पास आए मुख्य मंत्री पद को ठुकरा दिया। आज जब ऐसे नेता नहीं पाये जाते तो यह सब देख कर तिवारी जी की याद आती है। रामानंद तिवारी के बारे में बिहार के पूर्व डी.जी.पी.,आर.आर.प्रसाद ने लिखा है,
'फौज की नौकरी के बाद जब मैं बिहार काॅडर में आया तो मेरी उनसे फिर मुलाकात पटना में हुई। तब वे पुलिस मंत्री थे। मुझे याद है,उन्होंने कहा था,'जो आदमी बेजुबान घरेलू पशु नहीं रखता है,वह पुलिस विभाग में अच्छा अफसर नहीं हो सकता है। क्योंकि यहां आरक्षी बेजुबान होता है।'
उन्होंने यह भी बताया था कि ब्रिटिश शासन के दौरान जिस पुलिस अफसर ने उन्हें सेवामुक्त किया था, उसे आज भी देख कर वे खड़े हो जाते हैं और उनकी इज्जत करते हैं।' 'तिवारी जी ने कहा था कि सामान्यतः पदाधिकारी आरक्षियों से ऐसा काम करवाते हैं जिनसे उनकी मान मर्यादा को ठेस पहुंचती है। तिवारी जी यह भी कहते थे कि जो खतरा फौज में है,उससे अधिक खतरा पुलिस में है।
क्योंकि फौज में तो पता होता है कि दुश्मन किधर है,पर पुलिस को नहीं मालूम कि किस गली में दुश्मन है।पुलिस को तो रोज ही जंग लड़नी पड़ती है।' तिवारी जी से संबंधित एक प्रकरण मुझे भी याद है। सत्तर के दशक की बात है। पटना के आर.ब्लाॅक स्थित उनके आवास के बरामदे में समाजवादी विधायक वीर सिंह बैठे थे। मैं भी वहां था।वीर सिंह एक खास आग्रह लेकर तिवारी जी के पास आये थे। वे चाहते थे कि रोगी महतो हत्याकांड के मुकदमे को तिवारी जी समाप्त करा दें।
दरअसल साठ के दशक में चम्पारण के चनपटिया के एक बड़े व्यापारी के फार्म हाउस की जमीन पर तिवारी जी के नेतृृृृृृृत्व में भूमि आंदोलन हुआ था। वह आंदोलन सच्चा था। समाजवादियों की मांग थी कि भूमिपतियों की जमीन गरीबों में बंटे। तिवारी जी उस जमीन पर जबरन हल चला रहे थे। उनके साथ कुछ अन्य कार्यकत्र्ता और गरीब लोग थे। भूमिपति के लठैतों ने हमला करके तिवारी जी को भी बुरी तरह घायल कर दिया। उस हमले में रोगी महतो नामक एक कार्यकत्र्ता की मौत हो गई।
तिवारी को तब कई महीने तक अस्पताल में रहना पड़ा था।उसी केस को रफादफा करने के लिए वीर सिंह तिवारी जी के पास आये थे। अभियुक्त व्यापारी बहुत ही अधिक पैसे वाला था।वीर सिंह की बात सुन कर तिवारी जी सबके सामने रोने लगे। उन्होंने वीर सिंह से साफ -साफ कह दिया, 'तुमको उस व्यापारी से मिल जाना है तो मिल जाओ। पर मैं मरते दम तक शहीद रोगी महतो की लाश पर समझौता नहीं कर सकता।' तिवारी जी उस समय विधायक नहीं थे।उनके दल के विधायक राम बहादुर सिंह के नाम पर आवंटित सरकारी मकान में वे रहते थे।
तिवारी जी गाय पालते थे।उसके दूध में से कुछ दूध वे बगल के मकान में रह रहे विधान पार्षद कुमार झा को बेचते थे। तिवारी जी के घर के खर्चे को उठाने में उस दूध से मिले पैसे का भी योगदान था। वैसी स्थिति में आज का कोई नेता क्या वही बात कहता जो बात तिवारी जी ने वीर सिंह से कही ? अनुमान लगा लीजिए कि वह मशहूर व्यापारी हत्या के एक मुकदमे से बचने के लिए कितनी बड़ी राशि खर्च कर सकता था। आजादी के बाद के वर्षों में मशहूर समाजवादी नेता कर्पूरी ठाकुर और रामानंद तिवारी के बीच संबंध ठीकठाक ही था।
पर बाद के वर्षों में बिगड़ गया।बिहार के इन दो दिग्गज समाजवादी नेताओं के बीच के पत्र व्यवहार को पढ़ना अपने आप में एक अनुभव है। तिवारी जी का वह पत्र 14 जनवरी 1973 के दिनमान में छपा था। उसमें रामानंद तिवारी ने कर्पूरी ठाकुर को लिखा कि 'मैं कभी सामंत नहीं रहा।परंतु एक कंगाल द्विज के घर मंे जन्म अवश्य लिया है जिसमें न मेरा कसूर है और न किसी और का। क्योंकि इस देश में जब तक वर्ण व्यवस्था रहेगी, तब तक हर कोई किसी न किसी जाति में पैदा होता रहेगा।
परंतु मुझ कंगाल द्विज पर यह यह आक्रोश और द्वेष क्यों ? मैं जब से समाजवादी आंदोलन में आया,तब से मैंने यज्ञोपवीत निकाल दिया,चोटी काट दी। अपने छोटे बेटे का यज्ञोपवीत नहीं किया। परंपरा थी कि ब्राह्मण हल नहीं चलाता। मगर मैंने उस परंपरा को तोड़ कर हजारों लोगेां के सामने हल चलाकर अपने को शूद्र की श्रेणी में लाने का प्रयास किया। सारी द्विजवादी परंपराओं को छोड़ने के बाद भी यदि मेरे ऊपर द्विजवाद का आरोप लगाया जाये तो मैं क्या कर सकता हूं ?
रामानंद तिवारी के उस पत्र से उनके व्यक्तित्व की एक महत्वपूर्ण तस्वीर सामने आती है। इस पत्र से उस कशमकश का भी पता चलता है जो लोहियावादी समाजवादी आंदोलन में सवर्ण नेताओं और कार्यकत्र्ताओं के मन में था। यहां कर्पूरी ठाकुर और रामानंद तिवारी के बीच के विवाद पर कोई टिप्पणी नहीं की जा रही है। उस विवाद पर अलग से चर्चा हो सकती है। पर उस कशमकश की चर्चा प्रासंगिक है जो तिवारी जी जैसे जन्मना द्विज समाजवादियों के मन में था।
इससे उपजी पीड़ा की भी कल्पना की जा सकती है। इस तरह पीड़ित समाजवादी कार्यकत्र्ताओं को तो कांग्रेस में कोई सम्मानपूर्ण स्थान भले नहीं मिलता,पर रामानंद तिवारी चाहते तो उन्हें कोई बड़ी जगह आसानी से मिल सकती थी। पर वे अपने विचारों की खातिर अपने जीवन की अंतिम बेला तक लड़ते-झगड़ते समाजवादियों के साथ ही रहे। वैसी परिस्थिति में आज का कोई पदलोभी नेता होता तो क्या करता,इस सवाल का जवाब कठिन नहीं है।