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विमलेंदु सिंह
बिहार भाजपा की रणनीति समझ में नहीं आती है। भाजपा के समर्थकों को भी नहीं। आखिर वह बिहार में कैसी व्यूह रचना करना चाहती है? कोई एक चेहरा नहीं। वजह सिर्फ एक। अंदरूनी कलह नेपथ्य से निकलकर ऑन स्टेज नजर आने लगेगी। मोदी के चेहरे का ग्लो स्टेट में फीका हो रहा है। कब तक इस चेहरे से काम चलाएंगे।
सम्राट चौधरी विधान परिषद में पार्टी के नेता बनाए गए हैं। वजह? लव कुश समीकरण में फिट बैठते हैं। पार्टी को यह समझना चाहिए कि लाख आप कोयरी कुर्मी को तवज्जो दें जाति के लोग नीतीश कुमार को छोड़ उपेंद्र कुशवाहा, आरसीपी और नागमणि के नहीं हुए। सम्राट चौधरी के क्यों हो जाएंगे?
सम्राट चौधरी की बड़ी पहचान बस यह है कि वह शकुनी चौधरी जी के पुत्र हैं। शकुनी चौधरी ने बेशक राजनीति में अपने बूते पहचान बनाई थी। वह भी तब जब तारापुर में तारिणी बाबू जैसे निष्कलंक और बेदाग छवि के नेता थे। यह कहने में कोई संकोच नहीं कि शकुनी चौधरी की छवि सीधे सादे राजनेता की नहीं रही है। बहरहाल मसला यह नहीं है। बात वोट ट्रांसफर की है। जातीय वोटों के भाजपा के पक्ष में ध्रुवीकरण की है।
बिहार में जब यह निर्णय लिया गया था कि सुशील मोदी डिप्टी सीएम नहीं बनाए जाएंगे तो लोगों को उतनी हैरानी नहीं हुई थी जितनी हैरानी तार किशोर प्रसाद और रेणु देवी को डिप्टी सीएम बनाने से हुई थी। लोगों को पूछना पड़ गया था कि ये दोनों कौन हैं। कहां से हैं। वगैरह वगैरह। एक बनिया समाज से और दूसरे नोनिया समाज से। नीतीश जी ने गठबंधन बदला, जैसा कि वे अक्सर ऐसा करते हैं, तो डिप्टी सीएम पैदल हो गए। जब वे इतने खास थे आगे भी कोई महत्वपूर्ण जिम्मेवारी मिलनी चाहिए थी। और नहीं मिली तो माना जाना चाहिए कि पिछली मर्तबा डिप्टी सीएम बनाने के निर्णय में बड़ी चूक हुई थी।
अब यादव वोट को ही लीजिए। बिहार में तमाम दलों में कोई भी यादव नेता कमान संभाल ले लालू यादव के वर्चस्व को कोई नहीं तोड़ पाएगा। टूटने वाला था। 2015 के चुनाव में। लेकिन तब तेजस्वी के 'पलटू' नीतीश चाचा ने ऐसी संजीवनी दी कि सदन में तेजस्वी जी अपने नीतीश चाचा से ही यह सवाल पूछने की हिम्मत जुटा बैठे कि चाचा यह बताएंगे कि उनके कितने बच्चे हैं और कहां हैं। सवाल चरित्र पर था। नीतीश जी मूड़ी गोंत कर मुस्कुराते हुए भतीजे के इस तंज से कन्नी काट गए थे। बहरहाल मूल सवाल पर लौटते हैं।
सम्राट चौधरी की छवि कभी मुखर राजनेता की नहीं रही है। सत्ता पक्ष से सवाल पूछने का कौशल इनके पास नहीं है। अपने पिता जितना भी नहीं। भाजपा से इनके राजनीतिक जीवन की शुरुआत नहीं हुई है। राजनीतिक सफर में थर्ड स्टॉपेज है भाजपा। इससे पहले लालू जी और नीतीश जी दोनों की वफादारी कर चुके हैं और तब मोदी की वफादारी में कदम बढ़ाए हैं। मतलब राजद और जदयू के स्टेशनों पर रुकते हुए इनकी पॉलिटिकल एक्सप्रेस अब भाजपा जंक्शन पर ईंधन ले रही है। संघ से जुड़ाव कभी रहा नहीं। हिंदूवादी कभी रहे नहीं। रहते तो राजनीति की शुरुआत ही भाजपा से होती।
बात विजय सिन्हा जी की। विधान परिषद में नेता बनाए गए हैं। बधाई। मंगलकामनाएं। बतौर विधानसभा अध्यक्ष उन्होंने ऐसी क्या छाप छोड़ दी जो यह इनाम मिला? विवादों में रहे। विवादों को जन्म दिया इसलिए। मुख्यमंत्री ने आसन को जिस तरह से ललकारा उससे लोकतंत्र के इतिहास में काला अध्याय जुड़ा। मुख्यमंत्री समान रूप से इस विवाद के साझीदार रहे। लेकिन गरिमा कलंकित हुई आसन की। उस दिन बेलगाम हुए मुख्यमंत्री को सदन से निष्कासित करने की चेतावनी भर दे देते तो लगता कि निर्वीर्य नहीं है। रीढ़ सलामत है। लेकिन दोष जब खुद में हों तो दोष किस्मत को नहीं दे सकते।
बिहार भाजपा की दुर्दांत गाथा यह है कि संगठन और संगठन के नेता ही लुंजपुंज रहे हैं। सुशील मोदी हटे तो एक ऐसे व्यक्ति बनाए गए जो सिर्फ मोदी जी की कठपुतली थे। जी हां मंगल पांडेय जी की ही बात कर रहा हूं। उनकी योग्यता बस इतनी थी कि वे अयोग्य थे। मतलब सर ऊपर नीचे कर सकते थे। दाएं बाएं नहीं। ठीक वैसे ही जैसे नीतीश जी ने कभी जीतन राम मांझी में सर ऊपर नीचे की योग्यता पहचानी थी। वह तो महत्वाकांक्षा जागी कि सिर को अगल बगल हिलाने की भी हिम्मत जुटा पाए। और आगे जो हुआ वह भली भांति ज्ञात है।
फिर आए संजय जायसवाल। कोई छाप नहीं छोड़ पाए हैं। न अच्छे वक्ता। न मुखर। न राजनीतिक अवसरों की पहचान। बस तकरीबन बेदाग माने जाते हैं। लेकिन बिहार में संगठन को जो मजबूती मिलनी चाहिए थी वह नहीं मिली। कैडर वोट पर ज्यादा काम नहीं हो रहा। व्यवसायी समाज पारंपरिक रूप से भाजपा समर्थक रहे हैं। महंगाई और करभार ने इनकी कमर तोड़ रखी है। जीएसटी का पेंच इस तरह अबूझ है कि लोग राहत कम आहत ज्यादा महसूस कर रहे हैं। पिछड़ों को खुश करने के चक्कर में अगड़ा समाज की अनदेखी की जाती है। परिणाम, पिछड़े जुड़ते नहीं अलबत्ता अगड़ों का मोहभंग जरूर हो रहा है।
बिहार में आप यादव वोट को नजरंदाज कर रह हैं मतलब सुसाइड का मन बना लिया है। यादवों की अनदेखी नहीं की जा सकती लेकिन तब यह है कि राजद मेरा मतलब है लालू जी के वोट बैंक में सेंध भी नहीं लगाया जा सकता। यादवों में ले देकर बस एक नेता हैं जो संयोग से संघ से भी जुड़े रहे हैं। वे हैं नित्यानंद राय। लेकिन बात वही कि कद्दावर ऐसे भी नहीं कि लालू जी का आधार वोट बांट सकें। अपने चुनाव क्षेत्र में प्रभावशाली हो सकते हैं लेकिन पूरे सूबे में हरगिज नहीं। फिर भी एक ऐसी शख्सियत जरूर हैं जिन पर दांव खेला जा सकता है।
बिहार में पुराने भाजपाइयों की शिखा आपस में ही उलझी हुई है। कोई एक दूसरे के बढ़ते कद को बर्दाश्त नहीं कर सकता। अब इन्हें खोटा सिक्का मान लिया जाना चाहिए। न चमक न मोल। इसलिए नए नेतृत्व को बढ़ावा देना चाहिए। केंद्रीय मंत्री राजकुमार सिंह और श्रेयसी सिंह को बढ़ावा दिया जा सकता है। एक मंझे हुए ब्यूरोक्रेट्स हैं तो दूसरी यूथ आइकॉन। बिहार की बेटी श्रेयसी सिंह इंटरनेशनल शूटर हैं। आप इन्हें जिम्मेवारी देंगे तब तो इनकी काबिलियत का पता चलेगा।
भाजपा हिंदूवादी कांग्रेस बनने की कोशिश करती नजर आती है। अक्सर। पिछड़ों को लुभाएगी। अन्य पिछड़ी जातियों को लुभाएगी। अनुसूचित जनजातियों को लुभाएगी। बेकार है यह कोशिश। ये आपके वोटर्स नहीं बनेंगे। इस कोशिश में भाजपा के पारंपरिक वोटर्स हाथ से निकल जाएंगे।
आपने आदिवासी महिला को राष्ट्रपति बनवाया। तो क्या आदिवासी अब आंख मूंदकर भाजपा को वोट करेंगे? हरगिज नहीं। इसका मतलब यह नहीं है कि आप पिछड़ों, अल्पसंख्यकों, महिलाओं, अन्य पिछड़ा वर्गों के हित में काम करना बंद कर दें। बिल्कुल नहीं। लेकिन याद रखें दो से तीन सौ का सफर आपने किनके बूते पूरा किया। उसे भूलेंगे तो 'पुनर्मुषिको भव ' होते देर नहीं लगेगी।
चिड़िया के खेत चुगने के बाद पछताने का कोई औचित्य नहीं।