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यूपी चुनाव के लिए बसपा बिहार में कर रही है नया प्रयोग, खेलेगी यूपी में ये बड़ा गेम!
अलग-अलग राज्यों में चुनाव के मौके पर बसपा प्रमुख मायावती कई दलों के साथ पहले भी गठबंधन कर चुकी हैं. लेकिन उनका गठबंधन एक बार को छोड़कर आज तक कभी कामयाब नहीं हुआ है और ना ही कभी लंबा चल पाया है. लगभग हर मौके पर चुनाव के नतीजे आने के बाद ही सहयोगी दल से उनकी नाराजगी सामने आती है वह और वह अपने गठबंधन को तोड़ने का सबसे पहले ऐलान कर देती हैं.
पहली बार बसपा ने उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के साथ 1993 में चुनावी गठबंधन किया था. वह इस मायने में कामयाब कहा जा सकता है कि भले ही इस गठबंधन को पूर्ण बहुमत ना मिला हो लेकिन अन्य दलों के समर्थन से यह गठबंधन राज्य में तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में सरकार बनाने में कामयाब हो गया था. लेकिन यह सरकार महज डेढ़ साल का अपना कार्यकाल पूरा कर पाई इस दौरान दोनों दलों के बीच में रिश्ते इतने बिगड़े बसपा ने समर्थन वापस लेकर धरती पकड़ मुलायम सिंह जी सरकार को एक ही झटके में चारों खाने चित कर दिया और जल्द ही मायावती ने भाजपा के समर्थन से सरकार बना कर मुख्यमंत्री का सेहरा अपने सर पर सजा लिया.
इस पुराने घटनाक्रम का विस्तृत जिक्र इसलिए कहा गया बिहार में बसपा कई छोटे दलों के साथ ही गठबंधन कर ग्रैंड डेमोक्रेटिक फ्रंट नाम दिया गया है. उसके नाम पर चुनाव मैदान में जा रहे हैं इस गठबंधन के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के उपेंद्र कुशवाहा होंगे. एक समय एनडीए का हिस्सा हुआ करते थे. साथ ही मोदी की पहली सरकार में मंत्री बने थे लेकिन सियासी गलियारों में दूसरी बजह से एनडीए से अलग है दरअसल इस गठबंधन के जरिए बसपा मुखिया मायावती और ऑल इंडिया मजलिस इत्तेहादुल मुसलमान एआईएमआईएम के चीफ असदुद्दीन ओवैसी ने पहली बार हाथ मिलाया है. ओवैसी की पार्टी एआईएमआ एम ग्रैंड डेमोक्रेटिक फ्रंट का हिस्सा है. ओवैसी से गठबंधन के मायने दर्शन इस गठबंधन को बसपा सुप्रीमो एक प्रयोग के तौर पर देख रही हैं. उनकी नजर तो इस प्रयोग के माध्यम से उत्तर प्रदेश पर टिकी हुई है. जहां मैच डेढ़ साल बाद चुनाव होने हैं.
इस गठबंधन में यूपी की दो पार्टियाँ शामिल है. जहां मायावती की बसपा पार्टी दलितों का प्रतिनिधित्व करती है वैसे ही यूपी राजभर समाज के प्रतिनिधित्व करने वाली सुहेलदेव राजभर समाज पार्टी भी शामिल है.इस पार्टी के मुखिया ओमप्रकाश राजभर बिहार की पांच विधानसभा सीटों पर अपने उम्मीदवार उतार रहे है. यूपी के चुनाव से पहले अगर इस प्रयोग में कामयाबी मिली तो इसका ख़ासा असर यूपी विधानसभा चुनाव २०२२ में पड़ेगा.
उधर ओवेसी भी 18% मुस्लिम आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश पर काफी समय से निगाह जमाए हुए हैं. लेकिन उन्हें एक बार भी अपने जहाज को टेक आप करने का एक भी मौका आज तक हासिल नहीं हुआ. इसके लिए उन्हें राज्य में किसी एक बड़े दल का साथ मिलना चाहिए .इसी सब बातों को लेकर ओवैसी और मायावती बिहार में एक प्रयोग करते नजर आ रहे हैं. हैदराबाद से बाहर निकलकर पहले महाराष्ट्र उसके बाद बिहार में जमीन तलाश रहे ओबीसी भी दलित मुस्लिम समीकरण पर काम करना चाहते हैं. इस बार तो ओवैसी महाराष्ट्र में अपना एक सांसद जिताने में भी कामयाब रहे हैं और पिछले साल बिहार में उपचुनाव के दौरान एक विधानसभा सीट भी अपने खाते में कर चुके हैं.
उधर कई अलग-अलग राजनीतिक समीकरण का प्रयोग कर चुकी मायावती भी अब उत्तर प्रदेश में 2017 के दलित और मुस्लिम समीकरण का बेस बनाने को आतुर दिख रही है. लेकिन उन्हें इसमें अब तक कामयाबी नहीं मिली है. इस कामयाबी में उनका अपना स्वाभिमान भी उनकी राह में रोड़ा बन रहा है जहां उनके विश्वस्त मुस्लिम साथी रहे नसीमुद्दीन सिद्दीकी जैसे चेहरे उनकी पार्टी को इस बीच भंवर में छोड़कर अपना नया स्थान कांग्रेस में बना चुके हैं.
क्या यूपी में भी गठबंधन होगा
अगर बिहार में दलित मुस्लिम वोट इन दोनों पार्टियों को मिला तो उत्तर प्रदेश में भी ओवैसी और मायावती यह प्रयोग निश्चित रूप से दोहराएंगे राज्य में ओवैसी की पार्टी को बसपा के साथ सीटों का तालमेल करने में बहुत ज्यादा दिक्कत नहीं आएगी क्योंकि उनका अभी संगठनात्मक ढांचा उत्तर प्रदेश में नहीं है तो उन्हें ज्यादा सीटें भी नहीं चाहिए मायावती के साथ होने का असर पूरे राज्य की मुस्लिम बेल्ट पर पड़ सकता है उत्तर प्रदेश में इस वक्त बड़े नाम बड़े चेहरे वाले मुस्लिम लीडरशिप की सबको जरूरत दिख रही है क्योंकि उत्तर प्रदेश में अभी कोई बड़ा चेहरा मुस्लिमों की नुमाइंदगी में सामने नहीं आ रहा है एक वक्त समाजवादी पार्टी में आजम खान मुस्लिम शेष हुआ करते थे लेकिन योगी सरकार के आने के बाद वह जेल के मुकदमों के चक्कर में फस कर रह गए जबकि मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व वाली समाजवादी पार्टी के साथ मुसलमानों का भरोसे का जो रिश्ता था वह नेतृत्व परिवर्तन के बाद अखिलेश के साथ वैसा नजर नहीं आ रहा है ऐसे में जो रिश्ता आई है सतपाल पर ओवैसी के रूप में पेश करके भुलाने की कोशिश में लगी हुई है