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आलोक सिंह
एक मुंहफट नेता, ठेठ बिहारी बोलने की नयाब शैली, चुटीले अंदाज में गुदगुदाने की कला में महारात और बिरोधियों पर तंज कसने का कोई मौका नहीं चूकने वाले बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद की आज 73वां जन्मदिन है। लालू प्रसाद इस मौके पर जेल ( रिम्स अस्पताल) में बंद है। आज उनके बारे में न लिखूं तो ठीक नहीं होगा इसलिए सोचा कीबोर्ड चला ही दूं। लालू प्रसाद का नाम आते ही बिहार के जंगल राज की तस्वीर हम सभी के सामने उभर कर सामने आ जाती है। उनके शासन काल में लूटपाट, डकैती, अपहरण बिहार में एक संगठित कारोबार का रूप ले रखा था तो जातिवाद अपने चरम पर था। लेकिन, एक दूसरी सच्चाई जो इससे बिल्कुल इतर और वह है बिहार के सामाजिक बदलाव में लालू प्रसाद की अहम भूमिका।
शायद उनका करिश्माई व्यक्तित्व ही था कि सामाजिक न्याय के नेता के तौर पर उन्होंने बिहार में नए सामाजिक बदलावों का ताना-बाना बुना। पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यकों को समाज अपना हक दिलाने का साहस दिया। सिर्फ #बिहार ही नहीं बल्कि उत्तर भारत में 'सामाजिक न्याय' के प्रतीक और पिछड़ों तथा दलितों के नेता बने। अगर वह परिवार मोह में नहीं फंसते और अपनी राजनीतिक यात्रा में जातिवाद की राजनीति में नहीं उलझे होते तो आज के समय में उनको उम्बेडकर बनने से कोई नहीं रोक सकता है। लेकिन ऐसा नहीं हो सका। लालू प्रसाद को परिवारिक लालच ने सुनहरे इतिहास लिखने से रोक दिया।
लालू प्रसाद ने सामाजिक बदलाव को ताक पर रखकर अपने परिवार को चांदी का चम्मच देने शुरू कर दिया। इस चक्कर में उन्होंने बिहार को गर्त में घकेलने से गुरेज नहीं किया। साला से लेकर पत्नी को सत्ता सुख दिलाने के लिए खुलेआम सरकारी तंत्र के जरिये लूट की छूट दी। दौलत की हबस ऐसी जगी कि #चारा घोटाले को करने में भी कदम नहीं डगमगाएं। इस सब का दंश से बिहारी आबाम को पलायन और बेरोजगारी झेलने को मजबूर कर दिया। माई समीकरण के दम पर लालू ने वोट बैंक का ऐसा कॉकटेल तैयार किया कि पत्नी को भी सीएम बनाने में उनको परेशानी नहीं हो वह भी तब जब वो जेल की यात्रा पर जा रहे थे।
शायद, वह उस समय भूल गए थे कि गलत का नतीजा एक दिन गलत ही होता है। आज लालू प्रसाद जिस हालत में हैं उसके लिए वह खुद जवाबदेह हैं। इन दिनों फिर से बिहार में राजनीति पारा गर्म है लेकिन मैदान में #लालू नहीं बल्कि उनके दो लड़के हैं। अब देखना होगा कि वह राजनीतिक की पीच पर कैसे खेलते हैं।