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हाय रे ! सुशासन की संवेदनहीनता, नीतीश कुमार की अपनी छवि बेहद पाक-साफ है, पर ये कैसे संभव होगा!
प्रो दिग्विजय नाथ झा
''नजर आती नहीं बेईमान की आंखों में तंगहाली,
कहां तुम रात-दिन झूठे हमें सपने दिखाते हो।''
मशहूर शायर अज्ञात से उधार ली गई इस खूबसूरत शेर से अपनी बात यहां इसलिए शुरू कर रहा हूं कि बिहार में सुशासन सुप्रीमो के सर्वाधिक पसंदीदा कई गजेटेड ऑफिसर ऐसे हैं जिन्हें कि देखते ही जाननेवाला आदमी अपना बटुआ संभालने लगता है, बावजूद इसके नीतीश सरेआम दावा करते हैं कि बिहार में लोक शिकायत निवारण अधिकार अधिनियम के लागू होने के बाद राज्य सरकार की साख बढ़ी है। बेशक, नीतीश कुमार की अपनी छवि बेहद पाक-साफ है, पर ये कैसे संभव होगा कि समस्तीपुर जिला लोक शिकायत निवारण पदाधिकारी के गत् 16 अगस्त, 2018 के आपत्तिजनक खुलासे से मुख्यमंत्री सचिवालय के अधिकांश बड़े अधिकारी वाकिफ हों और बेचारे मुख्यमंत्री को इसकी भनक ही न लगे कि समस्तीपुर जिला लोक शिकायत निवारण पदाधिकारी की शिकायतों पर समस्तीपुर जिला भू-राजस्व विभाग के अपर समाहर्ता संज्ञान नहीं लेते।
कोई अच्छी शुरूआत किस तरह बेहतर परिणाम देने में सफल नहीं हो पाती इसका बेस्ट उदाहरण बिहार में लागू सूचना का अधिकार और लोक शिकायत निवारण अधिकार अधिनियम है। कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव सरीखे मशहूर अंतर्राष्ट्रीय गैर सरकारी संस्था की वर्ष 2018 की रिपोर्ट चीख-चीखकर बयां कर रही है कि सूचना का अधिकार अधिनियम लागू होने के बाद वर्ष 2006 से 2018 के बीच भारत में कुल 79 आर.टी.आइ. एक्टिविस्ट की हत्या की जा चुकी है तथा इनमें से करीब 20 फीसदी यानी कि 15 आर.टी.आइ. एक्टिविस्ट की हत्या सिर्फ व सिर्फ बिहार में नीतीश कुमार के मुख्यमंत्रित्वकाल में हुई है और सर्वाधिक चैंकानेवाली हकीकत तो यह कि सूचना का अधिकार अधिनियम के सुसंगत प्रावधानों के तहत प्रशासनिक क्रियाकलापों की प्रमाणिक जानकारी हासिल करने के इच्छुक 613 आवेदकों के खिलाफ बिहार के विभिन्न पुलिसथानों में फर्जी एफ.आई.आर. बीते 12 सालों में दर्ज किए गए हैं एवं आर.टी.आइ. एक्टिविस्ट पर जानलेवा हमले की भी सर्वाधिक नौ घटनाएं बिहार में ही बीते 12 वर्षों में हुई है।
आर.टी.आइ. एसेसमेंट एंड एनालिसिस ग्रुप और नेशनल कैंपेन फॉर पीपुल्स राइट टू इनफॉर्मेशन (एन.सी.पी.आर.आइ.) ने अभी हाल ही में अपने एक शोध में खुलासा किया है कि सूचना का अधिकार अधिनियम के सुसंगत प्रावधानों के तहत बिहार में 45 फीसदी आवेदकों को 30 दिनों के भीतर मांगी गई सूचनाएं नहीं दी जाती है और 20 फीसदी आवेदकों को सूचना का अधिकार अधिनियम के सुसंगत प्रावधानों के अंतर्गत 30 दिनों के भीतर भ्रामक एवं गलत सूचनाएं दी जाती है, जबकि सूचना का अधिकार अधिनियम के सुसंगत प्रावधानों के तहत प्राप्त आवेदनों में से 15 फीसदी को बिहार के लोक सूचना पदाधिकारी शुरूआती दौर में ही खारिज कर देते हैं, बावजूद इसके सूचना का अधिकार अधिनियम के सुसंगत प्रावधानों के प्रति लापरवाही बरतने वाले 98 फीसदी लोक सूचना पदाधिकारियों को बिहार में कोई सजा नहीं दी जाती है और सच पूछिये तो 27 जुलाई, 2017 को छठी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ग्रहण करने बाद नीतीश संभवतः यह भूल गए हैं कि बिहार की जनता ने ही जद(यू) के नेतृत्वाली बिहार की सरकार को चुना है और बिहार की जनता को यह जानने का पूरा हक है कि जो सरकार उनकी सेवा में है, वह आखिर बिहार अर्बन इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन लिमिटेड (बुडको) में हुई व्यापक वित्तीय हेराफेरी के संदर्भ में आर.टी.आइ. एक्टिविस्ट अमित कुमार मंडल व अषोक कुमार मिश्र तथा बिहार बालिका गृह रेपकांड के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट और समस्तीपुर सदर अंचल में नियमविरूद्ध पूरी की गई भू-नामांतरण की प्रक्रिया के मामले में दरभंगा प्रमंडलीय आयुक्त के सचिव के सवालों का जवाब क्यों नहीं दे रही है ?
निःसंदेह बिहार की प्रशासनिक निर्लज्जता पर बिहार राज्य सूचना आयोग की शर्मसार करने वाली 18 सितम्बर, 2015 की टिप्पणी और गजेटेड अफसरों की निकृष्ट कार्यशैली के 16 अगस्त, 2018 के डी.पी.जी.आर.ओ. के आपत्तिजनक खुलासे के साथ ही बिहार के भागलपुर, सहरसा व बांका के सरकारी कोषागार से हुई 1200 करोड़ रूपए से अधिक की अवैध निकासी व बुडको में 1300 करोड़ रूपए से ज्यादा की हुई लूट की सी.ए.जी. की वर्ष 2017-18 की ऑडिट रिपोर्ट के बाद 07 फरवरी, 2019 को बिहार सरकार के अधिवक्ता गोपाल सिंह को सुप्रीम कोर्ट में चैथी बार सी.जे.आई. की लगी कड़ी फटकार की घटनाएं बताती है कि गुड गवर्नेंस, जो नीतीश सरकार की सबसे बड़ी पूंजी थी, उसी पर डाका पड़ने लगा है और नीतीश स्वयं भी हिट एंड रन के फार्मूले पर चल रहे हैं। जनभावनाओं के अनुरूप कोई एक सनसनीखेज मुद्दे उठाओ, खूब प्रचार पाओ और बिना अंजाम तक पहुंचे चैंकानेवाला कोई अन्य मुद्दा खोज लो, ताकि लोग आसानी से भूल जायें कि जोर-षोर से उठाये गए पिछले मुद्दे का परिणाम क्या आया ? दुर्भाग्य से बिहार में वे सभी संस्थाएं बेअसर और निरर्थक होती जा रही है, जिनपर सरकार को सावधान करने और पुराने वायदों की याद दिलाते रहने की जिम्मेवारी है।
यद्यपि, नीतीश कुमार के तीसरे मर्तबा वर्ष 2010 में मुख्यमंत्री पद की शपथ ग्रहण के बाद से बिहार में सबकुछ ''जय हो'' की तर्ज पर चल रहा है, बिना इस उदाहरण की परवाह किए हुए कि समय आने पर जनता खुद विकल्प का निर्माण कर लेती है। जनाधार के लिहाज से नीतीश कुमार एक दौर में लालू प्रसाद के सामने कहीं नहीं टिक सकते थे। मगर, लालू प्रसाद के मन में बैठे विकल्पहीन होने के भाव ने नीतीश को मुख्यमंत्री के पद पर बिठा दिया तथा वह साधारण जनाधार वाले नेता होने के बावजूद लालू-राबड़ी शासनकाल के रिकॉर्ड को छूने की ओर बढ़ रहे हैं और फिलहाल उनके सामने कोई चुनौती नजर नहीं आ रही है, मगर लोगों के मन में उनके प्रति पहले वाला सम्मान का भाव रोज-रोज कमजोर तो हो ही रहा है। भ्रष्टाचाररहित पारदर्शी प्रशासनिक व्यवस्था कायम करने के मोर्चे पर वर्ष 2005 से 2010 के बीच उनकी कामयाबी शानदार रही, लेकिन 24 नवम्बर, 2010 को 15वीं बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजे घोषित किए जाने के बाद बिहार की प्रशासनिक व्यवस्था वर्ष 2005 से पूर्व के ढर्रे की ओर बढ़ने लगा और वर्ष 2015 के बाद तो सरेआम ही भ्रष्टाचार के खिलाफ जीरो टॉलरेंस की नीतीश सरकार की नीति पर सवाल खड़े होने लगे हैं। आज की तारीख में मुझे नहीं पता कि वर्ष 1998 में केन्द्रीय ग्रामीण विकास विभाग के तत्कालीन सचिव एन.सी. सक्सेना की ओर से बिहार सरकार के तत्कालीन मुख्य सचिव बी.पी. वर्मा को भेजे गए एक संवेदनशील नोट की जानकारी भी सुशासन सुप्रीमो को है अथवा कि नहीं, क्योंकि अफसरशाही पर नीतीश की निर्भरता इतनी अधिक बढ़ गयी है कि जमीनी सच्चाई उन्हें चुनाव परिणाम के बाद ही समझ में आती है। इस सच्चाई से वह 2014 के लोकसभा और 2015 के विधानसभा चुनाव में रूबरू हुए थे।
लोकसभा चुनाव में इन्हीं अफसरों ने बताया था कि जनता बेचैन है कि कितनी जल्द नीतीश कुमार प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठ जायें। रिजल्ट आया तो प्रधानमंत्री के बदले मुख्यमंत्री की कुर्सी भी खुद ही खिसका दी। 16वीं बिहार विधानसभा चुनाव में महागठबंधन के तीनों घटक दलों में सबसे अधिक खराब सक्सेस रेट जनता दल (यू) का ही रहा। जद(यू) को 70 और राजद को 80 फीसदी सीटों पर कामयाबी मिली। पांच विधायकों के साथ चुनाव में गयी कांग्रेस 27 सीटों पर काबिज हुई। राजद 22 से 80 पर चला गया, जबकि लोकप्रियता के चरम पर पहुंचे नीतीश कुमार 2010 के चुनाव में जीती तीन दर्जन से अधिक सीटें गंवा बैंठे, पर आज की तारीख तक बिहार की जनता को ये पता नहीं चल सका कि आईएस अधिकारी एन.सी. सक्सेना के 05 फरवरी, 1998 के नोट पर बीते इक्कीस सालों क्या कुछ हुआ, बावजूद इसके कि अपने नोट में उन्होनें साफ-साफ लिखा था कि ''बिहार में भ्रष्टाचार चूंकि ब्यूरोक्रेसी के ऊपरी स्तर पर व्यापक है, इसलिए निचले स्तर के अफसरों को भी लूट की खुली छूट मिली हुई है और बिहार में भ्रष्टाचार कम जोखिम व अधिक लाभ वाला काम है।'' सक्सेना ने तत्कालीन मुख्य सचिव बी.पी. वर्मा को भेजे गए अपने पत्र में यहां तक लिखा था कि ''बिहार की प्रशासनिक व्यवस्था में सामंती प्रवृति भरी पड़ी है और गरीबों के दमन का सिलसिला बदस्तूर जारी है व नियमों, प्रावधानों तथा कानूनों की लगातार अनदेखी हो रही है व आप चाहें तो हमारे इस नोट को बिहार में सिविल सेवा के सदस्यों के बीच बंटवा दें।
साथ ही इस नोट पर आप और आपके सहयोगियों के विचार का मैं स्वागत करूंगा।'' 05 फरवरी, 1998 के सक्सेना के इस नोट के बाद बिहार की अफसरशाही की कार्यशैली या कार्यप्रणाली में आखिर क्या कुछ सुधार हुआ कि अन्य भारतीय राज्यों के मुकाबले बिहार में आरटीआइ एक्टिविस्ट की अधिक हत्याएं हो रही है, सूचना का अधिकार अधिनियम के सुसंगत प्रावधानों के तहत बिहार में दूरभाष के जरिये जानकारी हासिल करने की सुविधाएं भी पूरी तरह से बंद है, बिहार राज्य सूचना आयोग की वेबसाइट भी लगभग निष्क्रिय है तथा हाईकोर्ट में मुकदमों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है और राज्य की आम जनता ताज्जुब कर रही है कि बिहार की सरकार के अधिकतर फैसले को कोर्ट में चुनौती क्यों दे दी जाती है कि सरकारी कोषागार पर बोझ पड़ता है व राज्य सरकार की बदनामी होती है। हालांकि, अब तो स्पेशल पॉक्सो कोर्ट के प्रभारी न्यायाधीश मनोज कुमार ने मुजफ्फरपुर शेलटर होम सेक्स स्कैंडल मामले में सुशासन सुप्रीमो की स्वयं की भूमिका की सी.बी.आई. जांच की अधिवक्ता सुधीर कुमार ओझा की अर्जी को भी सी.बी.आई. को सूचनार्थ अग्रसारित कर दिया है तो कह सकते हैं कि सामाजिक लोक-लाज भी नीतीश की हिट एंड रन की नीति की भेंट चढ़ गया। लेकिन यह भी सत्य है कि नेताओं के मूल सिद्धांत में कई रासायनिक तत्व होते हैं और कब किन तत्वों की प्रतिक्रिया से कौन-सा नया सिद्धांत पैदा होगा कहना मुश्किल है। रविशंकर प्रसाद सरीखे बीजेपी के बड़े नेता व मशहूर अधिवक्ता ने तो वर्ष 2015 में सार्वजनिक तौर पर बिहार के चर्चित चारा घोटाला मामले में नीतीश कुमार की भूमिका की सीबीआई जांच की मांग की थी तथा राजद के बलबूते नीतीश ने जब पांचवीं मर्तबा मुख्यमंत्री पद की शपथ ग्रहण की थी तब राजद सुप्रीमो सजायाफ्ता थे और हम तो अब वाकई हतप्रभ हैं कि इंडियन रेलवे कैटरिंग एंड टूरिज्म कॉरपोरेशन घोटाला मामले में 07 जुलाई, 2017 को लालू एंड फैमिली के खिलाफ सीबीआई की कार्रवाई के बाद जो शख्स तेजस्वी से उनकी बेगुनाही का सरेआम सबूत मांग रहे थे उन्हीं से 07 फरवरी, 2019 को बिहार शेल्टर होम्स सेक्स स्कैंडल मामले में राज्य सरकार को लगी सुप्रीम कोर्ट की चैथी कड़ी फटकार के बाद उनकी बेगुनाही का सबूत तेजस्वी इन दिनों सार्वजनिक तौर पर मांग रहे हैं।
बहरहाल, नीतीश कुमार से मेरा असली मोहभंग तब हुआ जब उन्होंने बिहार लोकायुक्त बिल - 2011 का अनुसरण करने की सलाह डा0 मनमोहन सिंह के नेतृत्ववाली केन्द्र की यूपीए सरकार को दे डाली थी और सम्यक विचार किए बिना सम्पूर्ण विपक्ष के बर्हिगमन के बीच बगैर बहस के बिहार विधान मंडल में पारित बिहार लोकायुक्त बिल - 2011 को भ्रष्टाचार पर असरदार नियंत्रण का मजबूत हथियार करार दिया था, बावजूद इसके कि बिहार लोकायुक्त अधिनियम, 2011 की धारा-26 के अनुसार बिहार के लोकायुक्त बगैर सरकार की सहमति के भ्रष्ट नौकरशाहों के खिलाफ सख्त कानून सम्मत कार्रवाई करने की कुव्वत से लैस नहीं है और लोकायुक्त की संस्था भी बिहार में महज निगरानी विभाग की तरह एक सरकारी संस्था बनकर रह गयी है तथा मुकदमों के बोझ तले दबी अदालत की आत्मा कराह रही है। आखिर मुकदमें बढ़ क्यों रहे हैं ? एक बानगी से समझिये! सरकार के कई महकमो में ठेका पर काम होता है। ऐसे ही एक विभाग की यह कहानी है। एक ठेकेदार नियमित रूप से मंत्री को उपकृत करता था। उसने विभाग के एमडी की कभी कद्र नहीं की। एक दिन एमडी ने उसे तलब किया और अपना पावर बताया तथा यह भी बता दिया कि हम सबसे पावरफुल हैं व हम काट लें तो मंत्री भी नहीं बचा सकते। ठेकेदार ने एमडी के कहे की अनदेखी कर दी। अगले दिन उसे फल मिल गया। सब जगह से पास हो कर आया बिल एमडी की जांच में फेल हो गया। ठेकेदार को गलती का एहसास हुआ। वह दौड़ा-भागा एमडी के पास आया और स्वीकार किया कि असली पावर एमडी के पास ही है। उसने पहली किस्त का भुगतान भी कर दिया और मंत्री की किस्त रोक दी। मंत्री ने कई बार ठेकेदार तक संवाद भिजवाया कि भैया, आकर मिल तो लो मगर ठेकेदार ने ध्यान नहीं दिया। मंत्री आ गए गुस्से में, उन्होंने अपना पावर दिखा दिया और अपने जिले के एक अधिकारी से ठेकेदार की एजेंसी पर प्राथमिकी दर्ज करवा दी व इसी आधार पर ठेकेदार की कंपनी को ब्लैकलिस्टेड करने का आदेश एमडी ने दे दिया। ठेकेदार एक बार फिर एमडी की शरण में आया, उसे सलाह दी गई कि ब्लैकलिस्टेड करने के सरकार के आदेश के खिलाफ हाईकोर्ट चले जाओ, हम विरोध नहीं करेंगे। अंततः एक और मामला रिश्वतखोरी के चलते कोर्ट में चला गया।
आमतौर पर इसी तरह की कारगुजारी से बिहार की अदालतों में मुकदमों की संख्या बढ़ती जा रही है। सरकार चाहे तो जांच करा ले, उसके जिस विभाग में नीचे से ऊपर तक आपसी रजामंदी से लूटपाट होती है, उस विभाग में तो मुकदमों का अंबार लग जाता है। आगामी लोकसभा चुनावों में वोट डालने से पहले सुशासन सुप्रीमो के भ्रष्टाचार विरोधी स्कीमों को श्रद्धांजलि देना मत भूलियेगा। वर्ष 2006 से 2010 के बीच भू-नामांतरण की प्रक्रिया पूरी करने की आड़ में बिहार के सर्किल अफसरों ने करोड़ों की कमाई की पर सर्किल अफसरों के काले-कारनामें की भनक नीतीश बाबू को बिहार लोक शिकायत निवारण अधिकार अधिनियम के दो वर्ष पूरे होने के मौके पर पटना के अधिवेशन भवन में वर्ष 2018 में आयोजित समारोह में लगी, बावजूद इसके कि बिहार राज्य निगरानी अन्वेषण ब्यूरो को पुलिस महकमे के बाद सबसे अधिक षिकायतें राजस्व एवं भूमि सुधार विभाग के खिलाफ ही लगातार मिलती रही है यानी कि भ्रष्टाचार के चैंपियन विभागों में पुलिस और भू-राजस्व महकमा शीर्ष पर है, पर बिहार के जिलों में पदस्थापित सुशासन सुप्रीमो के पसंदीदा आईएएस अधिकारी राज्य के 45103 राजस्व ग्रामों में मची लूट को बेशर्मी की हद तक संरक्षण प्रदान करने की कोशिश में मशगूल हैं तथा तमाम जिला लोक शिकायत निवारण पदाधिकारी के कार्यालयों में इन दिनों अफरातफरी का माहौल है और ऐसा लगता कि राजस्व व भूमि सुधार विभाग को सुशासन सुप्रीमो ने अपनी किस्मत पर छोड़ दिया है। हालात ये हैं कि भूमि अधिग्रहण न होने से बिहार में केन्द्र सरकार की दर्जनों बड़ी विकास परियोजनाओं का कार्य तो धीमा पड़ा ही है, कई औद्योगिक इकाइयां भी सिक्योरिटी मनी वापस लेकर लौट गई हैं।
हालांकि, राजद से जद(यू) के रिश्ते टूटने के बाद केन्द्र सरकार ने लंबित पड़ी परियोजनाओं के बारे में बोलना बंद कर दिया है, अन्यथा जुलाई 2017 से पूर्व केन्द्र की नरेन्द्र मोदी सरकार ने कई बार बिहार के मुख्यमंत्री से कहा था कि जिला पदाधिकारियों को वे सीधे निर्देशित करें कि भूमि अधिग्रहण प्रक्रिया को तेज कर परियोजनाओं को आगे बढा़एं। हद तो यह है कि कहीं भूमि अधिग्रहण हुआ भी तो उस पर दबंगों ने कब्जा जमा लिया अथवा कि घोटाले-घपले में फंसी हुई है। एग्रो प्रोडक्टस की बड़ी कंपनियों में शुमार केलवेनेटर वर्ष 2013 में सरकार से सिक्योरिटी मनी लेकर बैरंग वापस इसलिए लौट गई कि सरकार की ओर से उद्योग लगाने के लिए जो जमीन उसे भागलपुर में आवंटित की गई थी, वह किसी स्थानीय भू-माफियाओं के कब्जे में था और आज की तारीख में भी भागलपुर स्थित बिहार औद्योगिक क्षेत्र विकास प्राधिकार (बियाडा) की करीब एक हजार एकड़ भूमि पर स्थानीय दबंगों का कब्जा है, बावजूद इसके कि भागलपुर-कहलगांव का मेगा फूड पार्क सूना पड़ा है। बिहार इंडस्ट्रीज एसोसिएशन के दावे पर यकीन करें तो केलवेनेटर का वापस जाना ऐसे वायरस की तरह उद्योगपतियों में फैला कि मेगा फूड पार्क में प्रस्तावित अमृत सीमेंट, हैंडलूम यूनिट सहित छोटे-बड़े दर्जन भर उद्यमी सिक्योरिटी मनी लेकर बैरंग लौट गए और इसी का असर था कि देश में केनवॉल (गन्ना क्षेत्र) नाम से मशहूर उत्तर बिहार से करीब आध दर्जन चीनी मिलों ने भी अपने प्रस्ताव समेट लिए। राज्य के राजस्व एवं भूमि सुधार विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार को लेकर नीतीश कुमार की खतरनाक खामोशी की वजह भूमि के अभाव में सॉफ्टवेयर टेक्नोलॉजी पार्क, तारामंडल, महात्मा गांधी केन्द्रीय विश्वविद्यालय समेत कई रेलवे ओवरब्रिज व केन्द्रीय विद्यालयों के निर्माण अधर में लटके हैं और जुलाई 2017 में जद(यू)-भाजपा में हुई दोस्ती के बाद अधर में लटकी केन्द्रीय परियोजनाओं पर नरेन्द्र दामोदरदास मोदी की चतुर चुप्पी भी इन दिनों सवालों के घेरे में है।
न्याय के साथ विकास के नीतीश के दावे पर भी बिहार की जनता सरेआम सवाल खड़े कर रही है। वर्ष 1995 के बाद केन्द्र व राज्य सरकार की ओर से विकास मद में आवंटित राशि के बड़े हिस्से का उपयोग तो लगातार सुशासन सुप्रीमो के गृह जिले नालंदा में हुए हैं और बेशर्मी की सारी हदें तो तब पार हो गई जब बिहार पुलिस के रिक्त पड़े 9500 पदों में से 4500 पदों पर सिर्फ व सिर्फ नालंदा के नौजवानों की नियुक्ति हुई तथा 9500 में से महज पांच पदों पर सामान्य जाति के गैर नालंदावासी युवकों की नियुक्ति हुई। नीतीश बाबू ! भागलपुर, बांका व सहरसा के सरकारी कोषागार समेत बुडको में हुई सरकारी राशि की व्याप्त लूट भले आमजनों को प्रत्यक्ष तौर पर प्रभावित नहीं करते, लेकिन सूचना का अधिकार, लोकायुक्त एवं लोक शिकायत निवारण अधिकार अधिनियम के लागू होने के बाद भी अतिअनिवार्य लोक सेवाओं के लिए बिहार की आम जनता को सरकारी कर्मचारीयों की जेब गर्म करनी पड़ती है और सर्वाधिक शर्मनाक तो यह कि लोक शिकायत निवारण पदाधिकारी तक के दफ्तरों में भी शिकायतकर्ताओं को अपनी लिखित आपत्तियों की ओर ध्यान आकृष्ट कराने के लिए कार्यालय कर्मियों की जेब गर्म करनी पड़ती है। भ्रष्टाचार के खिलाफ बिहार राज्य निगरानी अन्वेषण ब्यूरो व आर्थिक अपराध इकाई की संयुक्त कवायद के बावजूद बाबूओं की घूसखोरी से आजीज बड़ी आबादी को भ्रष्टाचार के विरूद्ध बिहार सरकार की प्रतिबद्धता पर संदेह है। सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज की वर्ष 2018 की सर्वे रिपोर्ट कहती है कि भूमि का म्यूटेशन के लिए बिहार के अंचल कार्यालयों में आमतौर पर न्यूनतम दो हजार व अधिकतम पचास हजार रूपए, भवन निर्माण की अनुमति के लिए नगर निकायों में न्यूनतम दो हजार व अधिकतम पंद्रह हजार रूपए, भू-अभिलेख की सच्ची प्रतिलिपि प्राप्त करने के लिए बिहार भू-निबंधन कार्यालयों में न्यूनतम पांच सौ रूपए व अधिकतम डेढ़ हजार रूपए, भवन कर निर्धारण के लिए नगर निकायों में न्यूनतम पांच सौ रूपए व अधिकतम पांच हजार रूपए, बिजली कनेक्शन के लिए विद्युत विभागों को न्यूनतम दो हजार रूपए व अधिकतम चार हजार रूपए, त्रुटिपूर्ण बिजली बिल को त्रुटिरहित कराने के लिए विद्युत कार्यालयों में न्यूनतम दो सौ रूपए व अधिकतम दस हजार रूपए, नया ड्राइविंग लाइसेंस के लिए परिवहन कार्यालयों में न्यूनतम तीन हजार रूपए व अधिकतम पांच हजार रूपए, आधार, वोटर आईडी व पैन कर्ड तक के लिए विभाग से जुड़े प्राइवेट दलालों को न्यूनतम तीन सौ व अधिकतम पांच सौ रूपए, जन्म एवं मृत्यु प्रमाण पत्र के लिए अनुमंडल कार्यालयों में न्यूनतम दो सौ रूपए व अधिकतम एक हजार रूपए, पुलिस थानों में चरित्र वेरिफिकेशन के लिए न्यूनतम एक हजार रूपए व अधिकतम तीन हजार रूपए, एफ.आई.आर. दर्ज कराने के लिए न्यूनतम पांच सौ व अधिकतम दो हजार रूपए तथा मोबाइल फोन की चोरी की शिकायत दर्ज कराने के लिए न्यूनतम दो सौ रूपए व अधिकतम पांच सौ रूपए, जाति, आय और आवासीय प्रमाण पत्रों के लिए प्रखंड कार्यालयों में न्यूनतम एक सौ व अधिकतम पांच सौ रूपये, विवाह पंजीकरण के लिए निबंधन कार्यालयों में न्यूनतम पांच सौ व अधिकतम दो हजार रूपए तथा शस्त्र लाइसेंस के लिए कलक्ट्रेट स्थित आर्स्त शाखाओं में न्यूनतम 75 हजार रूपए व अधिकतम एक लाख रूपए नीतीश कुमार के मौजूदा मुख्यमंत्रित्वकाल में जरूरतमंदों घूस देनी पड़ती है। सुशासन सुप्रीमो की भ्रष्टाचार विरोधी नीति किसी काम के नहीं हैं। वर्ष 1995 से पूर्व पशुओं के चारे की ढुलाई बिहार में व्यापक पैमाने पर स्कूटर से हुई थी और वर्ष 2015 के बाद ईटों की ढुलाई बिहार में बड़े पैमाने पर स्कूटर से हुई है।