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तो क्या इंडिया गठबंधन का भविष्य अंधेरे में है? सवाल ये है कि नीतीश का अध्यक्ष बनना इतना अहम क्यों हैं?
बिहार में अब बदलाव तय है! जेडीयू की मीटिंग के बाद केसी त्यागी ने कहा कि राजनीति में कोई दुश्मन नहीं होता है! और पटना में 18 साल से नीतीश कुमार का राज है. वो जिधर मुड़ते हैं राजनीति उधर ही घूमती है. 29 दिसंबर 2023 को नीतीश एक बार फिर जेडीयू अध्यक्ष बन गए। सवाल ये है कि नीतीश का अध्यक्ष बनना इतना अहम क्यों हैं? इससे पहले ये भी जानिए कि ममता बनर्जी ने साफ कर दिया है कि वह इंडिया गठबंधन में हैं, लेकिन बंगाल में किसी भी पार्टी के साथ गठबंधन नहीं होगा, तो क्या इंडिया गठबंधन का भविष्य अंधेरे में है? अब आते हैं नीतीश पर... 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद जब नीतीश कुमार बीजेपी का साथ छोड़कर 2015 का विधानसभा चुनाव लालू यादव के साथ मिलकर लड़े तो ये पहली बार था जब नरेंद्र मोदी को करारी हार का सामना करना पड़ा था.
लेकिन उस समय जेडीयू के प्रेसिडेंट शरद यादव थे. खैर 2015 में नरेंद्र मोदी को हराने के बाद अप्रैल 2016 में नीतीश कुमार ने शरद यादव की जगह पार्टी प्रेसिडेंट की कुर्सी संभाल ली. खुद पार्टी अध्यक्ष बन गए. जब शरद यादव की जगह नीतीश कुमार जेडीयू के पार्टी प्रेसिडेंट बने तब भी यही कहा गया कि नीतीश कुमार 2019 के लोकसभा चुनाव की तैयारी कर रहे हैं और उनकी तैयारी राष्ट्रीय राजनीति में बड़ा रोल निभाने की है. अब आ जाते हैं 2017 में, अप्रैल 2017 में नीतीश कुमार ने कांग्रेस की तत्कालीन अध्यक्ष सोनिया गांधी से मुलाकात की थी, इस मीटिंग में सोनिया गांधी से नीतीश कुमार की वही बातें हुई जो इस समय इंडिया गठबंधन में हो रहा है, बीजेपी के खिलाफ एक सीट पर एक उम्मीदवार उतारने और कांग्रेस की अगुवाई में एक बड़ा गठबंधन बनाने की कोशिशें.
लेकिन सूत्रों के हवाले से ये कहा जाता है कि इसी मीटिंग में नीतीश कुमार ने सोनिया गांधी से कहा था कि गठबंधन की अगुवाई तो कांग्रेस करे लेकिन उन्हें (नीतीश को) पीएम पद का चेहरा बना दिया जाए... लेकिन सोनिया गांधी तैयार नहीं हुईं और ठीक दो महीने बाद नीतीश कुमार जुलाई 2017 में महागठबंधन से अलग होकर बीजेपी के साथ चले गए और बिहार में महागठबंधन की सरकार गिर गई. नीतीश कुमार एक बार फिर जेडीयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं तो क्या वे फिर पलटी मारेंगे. तो इसका जवाब है कि इस संभावना को खारिज नहीं किया जा सकता. पलटी मार लें तो हैरान नहीं होइएगा. नीतीश कभी भी बीजेपी से लड़ाई लड़ने के मूड में नहीं थे, और अब नीतीश के सामने दो ही ऑप्शन हैं. या तो इंडिया के साथ रहें या बीजेपी के साथ चले जाएं. हां एक बात अब छुपी नहीं है कि नीतीश खुद को पीएम पद का चेहरा घोषित करवाना चाहते हैं, लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है.
ममता और केजरीवाल ने पीएम पद के लिए खरगे का नाम प्रस्तावित कर दिया तो शरद पवार ने कह दिया कि पीएम पद के चेहरे की जरूरत नहीं है. जाहिर है कि सबसे ज्यादा निराशा नीतीश को हुई है. अगर नीतीश को लगता है कि वह प्रधानमंत्री नहीं बन पाएंगे तो फिर उन्हें इंडिया गठबंधन में रहने का फायदा क्या है? मुख्यमंत्री तो वह बीजेपी के साथ भी रह सकते हैं, तो इसका जवाब है कि अब बीजेपी नीतीश कुमार से अपनी शर्तों पर हाथ मिलाएगी. लेकिन बीजेपी और मोदी के साथ 10 साल की सत्ता विरोधी लहर है तो नीतीश कुमार के लिए लोकसभा चुनाव की तैयारी करने खातिर समय कम है, बीजेपी के साथ राम मंदिर और सरकारी मशीनरी है, जिसके दम पर वह मोदी के खिलाफ जनाक्रोश को कुंद कर सकती है, ऐसे में बीजेपी को नीतीश कुमार की जरूरत क्या है? तो इसका जवाब है कि बिहार में अभी जो समीकरण हैं उसमें बीजेपी के पास ज्यादा मौका नहीं है, अगर नीतीश कुमार वापस बीजेपी के साथ जाते हैं तो बीजेपी बिहार में वापसी कर सकती है और राम मंदिर के दम पर बिहार में पिछली बार की तरह स्वीप कर सकती है.
यूपी की 80 और बिहार की चालीस सीटों को मिलाकर बीजेपी को बड़ा फायदा है. इसलिए बीजेपी नीतीश कुमार को मना नहीं करेगी, लेकिन गठबंधन होगा तो बीजेपी की शर्तों पर... ऐसे में नीतीश कुमार की पार्टी का भविष्य क्या होगा, कोई नहीं जानता. हां इसके लिए अलावा नीतीश के पास एक ही विकल्प है इंडिया के साथ रहने का. लेकिन इस पूरे खेल में लालू यादव को गौण मानकर मत चलिए. राहुल गांधी को नीतीश कुमार से ज्यादा लालू यादव पर भरोसा है. भले ही समीकरण अभी तक वैसे न हों, जिसकी आशंका लग रही है.
लेकिन आशंकाएं ऐसी बन रही हैं कि राम मंदिर आंदोलन के रथ को बिहार के समस्तीपुर में रोक आडवाणी को गिरफ्तार करने वाले धर्म निरपेक्षता के पर्याय लालू यादव को अपनी सियासत के आखिरी दौर में एक बड़ी भूमिका निभानी पड़ेगी. राम मंदिर आंदोलन के बाद राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के बाद हिंदुत्व के मकनाए सांड़ को भी पाटलिपुत्र में ही नाथना होगा. और इस काम को लालू यादव से बेहतर कौन कर पाएगा.