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मायावती का बीजेपी को 'समर्थन' और ओवैसी की चुप्पी का बिहार चुनाव पर क्या है असर?
बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख और उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने कहा है कि समाजवादी पार्टी को हराने के लिए अगर ज़रूरत पड़ी तो उनकी पार्टी बीजेपी का भी समर्थन कर सकती है. बीएसपी के कुछ विधायकों के समाजवादी पार्टी से मिल जाने के बाद मायावती ने उत्तर प्रदेश में होने वाले विधान परिषद चुनाव के संदर्भ में गुरुवार को समाचार एजेंसी एएनआई पर अपना वीडियो बयान जारी किया.
उनका कहना था, "जब यहां एमएलसी के चुनाव होंगे तो सपा के दूसरे उम्मीदवार को हराने के लिए बसपा अपनी पूरी ताक़त लगा देगी. और इसके लिए चाहे पार्टी के विधायकों को इनके (सपा) उम्मीदवार को हराने के लिए बीजेपी या अन्य किसी भी विरोधी पार्टी के उम्मीदवार को अपना वोट क्यों न देना पड़ जाए, तो भी देंगे."
क्या है बयान की वजह
मायावती ने बीजेपी को वोट देने की बात क्यों कही? मायावती ने बेशक यह बातें विधान परिषद चुनाव के संदर्भ में कहीं हैं, लेकिन इसकी जड़ में नौ नवंबर को होने वाले राज्य सभा चुनाव हैं.
यूपी में राज्यसभा की 10 सीटों के लिए नौ नवंबर को चुनाव होने वाले हैं. बीजेपी विधानसभा में अपनी संख्या बल के आधार पर आठ सीटें जीत सकती है और नौवें उम्मीदवार को किसी दूसरी पार्टी की मदद से जीत दिला सकती है लेकिन बीजेपी ने अपना नौवां उम्मीदवार नहीं उतारा है.
मायावती के पास केवल 18 विधायक हैं और जीतने के लिए कम से कम 37 विधायकों की ज़रूरत है. मायावती ने इसके बावजूद रामजी लाल गौतम को राज्यसभा के लिए अपनी पार्टी का उम्मीदवार बनवाया. जानकार कहते हैं कि मायावती और बीजेपी के बीच इस मामले में सहमति बन गई थी और बीजेपी ने अपने बचे हुए 24 वोट मायावती के उम्मीदवार के पक्ष में डालने का वादा किया था. लेकिन मायावती की मुश्किलें उस वक़्त बढ़ गईं जब उनके सात विधायकों ने पाला बदला और समाजवादी पार्टी से जा मिले.
इसके अलावा जो दस विधायक रामजी लाल गौतम की उम्मीदवारी में प्रस्तावक बने थे उनमें से पांच विधायकों ने अपना प्रस्ताव वापस ले लिया है. कांग्रेस महासचिव और यूपी की प्रभारी प्रियंका गांधी ने मायावती के बीजेपी समर्थन वाले बयान के बाद ट्वीट कर कहा, "इसके बाद भी कुछ बाक़ी है?"
सपा का क्या है कहना
समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी ने कहा कि मायावती का बयान इस बात की स्वीकारोक्ति है कि उनकी भाजपा से पहले ही सांठगांठ थी. उन्होंने कहा कि भाजपा से इसी अंदरूनी समझौते की वजह से मायावती ने विधानसभा में पर्याप्त संख्या बल न होने के बावजूद अपना प्रत्याशी मैदान में उतारा और अब यह कहकर कि सपा को हराने के लिए वह भाजपा तक का समर्थन कर सकती हैं, बसपा प्रमुख ने अपनी पोल ख़ुद ही खोल दी है.
लखनऊ स्थित वरिष्ठ पत्रकार सुनीता एरॉन कहती हैं कि इस पूरे मामले से लगता है कि मायावती ख़ुद कन्फ़्यूज़ हैं.
उन्होंने कहा, "बीजेपी से मायावती का गठबंधन करना या फिर बीजेपी का साथ देना कोई नई बात नहीं है लेकिन इस समय जो कुछ भी हो रहा है उससे यह लग रहा है कि वो ख़ुद तय नहीं कर पा रही हैं कि उन्हें क्या करना है. आप बिहार को देख लीजिए. वहां उन्होंने ओवैसी की पार्टी से गठबंधन किया हुआ है. दूसरे राज्यों में वो कांग्रेस के ख़िलाफ़ दिखती रहती हैं, यूपी में भी राज्य सरकार पर कभी-कभी ट्विटर इत्यादि पर नाराज़गी दिखाती रहती हैं लेकिन कभी बीजेपी सरकार के ख़िलाफ़ आक्रोशित होते नहीं दिखी हैं."
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में इतिहास पढ़ाने वाले प्रोफ़ेसर मोहम्मद सज्जाद कहते हैं कि पिछले कुछ दिनों में बिहार की लोक जनशक्ति पार्टी और बीएसपी में इस बात की होड़ लगी है कि कौन बीजेपी के ज़्यादा क़रीब है.
प्रोफ़ेसर सज्जाद के अनुसार, रामविलास पासवान की मौत के बाद उनके बेटे और एलजेपी के अध्यक्ष चिराग़ पासवान एक तरफ़ तो बिहार में एनडीए से अलग होकर चुनाव लड़ रहे हैं और एनडीए के मुख्यमंत्री उम्मीदवार नीतीश कुमार का जमकर विरोध कर रहे हैं लेकिन दूसरी तरफ़ ख़ुद को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का हनुमान बता रहे हैं.
मायावती क्या कहना चाहती हैं
प्रोफ़ेसर सज्जाद कहते हैं कि मायावती इस बयान से बीजेपी को बताना चाह रही हैं कि बीजेपी उन्हें भी अपनों में शुमार कर सकती है. प्रोफ़ेसर सज्जाद के अनुसार, मायावती का यह ताज़ा बयान सिर्फ़ बीएसपी के विधायकों को बीजेपी के पक्ष में वोट देने के लिए नहीं है, बल्कि आम दलित वोटरों को भी इशारा है कि वो बीजेपी को वोट दें. अगर ऐसा है तो क्या यह इशारा बिहार में जारी विधानसभा चुनाव के लिए भी है.
मायावती बिहार में हैदराबाद से लोकसभा सांसद असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ऑल इंडिया मजसिल-ए-इत्तेहाद-उल-मुस्लिमीन (एआईएमआईएम), मोदी सरकार में रहे पूर्व केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा, एक और पूर्व केंद्रीय मंत्री देवेंद्र प्रसाद यादव के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ रही हैं.
मायावती के बीजेपी समर्थन वाले बयान के बाद बिहार में अब लोग यह सवाल पूछ रहे हैं कि इस मामले में असदुद्दीन ओवैसी का क्या कहना है. अभी तक ओवैसी की तरफ़ से इस मामले में कोई बयान नहीं आया है. बीबीसी ने उनसे और उनकी पार्टी के बिहार प्रदेश अध्यक्ष अख़्तरुल ईमान से संपर्क करने की कोशिश की लेकिन उन दोनों से बात नहीं हो सकी.
पार्टी के प्रवक्ता आसिम वक़ार से बात हुई और उन्होंने थोड़ी देर में फ़ोन करने के लिए कहा, लेकिन दोबारा उनका न फ़ोन आया और न ही उन्होंने मैसेज का जवाब दिया.
ओवैसी की ख़ामोशी पर उठते सवाल
प्रोफ़ेसर सज्जाद कहते हैं कि ओवैसी को तो मायावती और कुशवाहा के साथ गठबंधन में जाने से पहले ही बिहार के मतदाताओं के सामने अपनी स्थिति साफ़ करनी चाहिए थी.
प्रोफ़ेसर सज्जाद के अनुसार, "पिछले कुछ वर्षों से दलितों के भगवाकरण के साफ़ संकेत मिल रहे हैं. इसके अलावा मायावती पहले तो बीजेपी के समर्थन से यूपी में सरकार बना ही चुकी हैं, हाल के वर्षों में भी उनका रुख़ साफ़तौर पर बीजेपी के पक्ष में रहा है."
प्रोफ़ेसर सज्जाद के अनुसार, "ओवैसी मुस्लिम आइडेंटिटी (पहचान), मुस्लिम सश्क्तिकरण और सत्ता में मुसलमानों की भागीदारी की बात करते हैं, ऐसे में तो उन्हें बताना चाहिए कि कुशवाहा और मायावती से हाथ मिलाने के बाद बिहार के मुसलमानों का कैसे सशक्तिकरण होगा. लेकिन मायावती के ताज़ा बयान के बाद तो ओवैसी को ज़रूर बताना चाहिए कि 10 नवंबर को बिहार चुनाव के नतीजे आने के बाद उनके गठबंधन और उनकी पार्टी का क्या रुख़ होगा."
पटना स्थित वरिष्ठ पत्रकार सुरूर अहमद का भी मानना है कि मायावती का ताज़ा बयान बिहार के दलितों के लिए भी एक इशारा है.
बीबीसी से बातचीत में सुरूर अहमद कहते हैं, "समाजवादी पार्टी को हराने के लिए ही सही, लेकिन बीजेपी को समर्थन देने की बात मायावती कैसे कर सकती हैं और ओवैसी कैसे इस मामले पर ख़ामोश रह सकते हैं."
सुरूर अहमद कहते हैं कि ओवैसी दावा करते हैं कि उनकी पूरी राजनीति हिंदुत्व शक्तियों और ख़ासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ है तो फिर उनके गठबंधन का एक घटक बीजेपी को सपोर्ट करने की बात कैसे कर सकता है.
बिहार चुनाव के पहले चरण में 71 सीटों के लिए वोट डाले जा चुके हैं, अभी दो चरण के चुनाव बाक़ी हैं.
बिहार चुनाव में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम कमाल कर पाएगी? बिहार चुनाव पर नज़र रखने वाले ज़्यादातर राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से लोगों की भारी नाराज़गी दिख रही है और विपक्षी गठबंधन के मुख्यमंत्री उम्मीदवार तेजस्वी यादव की रैलियों में भारी भीड़ जुट रही है.
सुरूर अहमद कहते हैं, "बिहार में इस बार कांटे की टक्कर है और हो सकता है कि 10 नवंबर को किसी को पर्याप्त बहुमत नहीं मिले. ऐसे में बिहार के मतदाताओं को जानने का हक़ है कि मायावती और ओवैसी के गठबंधन को अगर कुछ सीटें आ गईं तो उस हालत में वो लोग क्या करेंगे. क्या यह गठबंधन एनडीए को समर्थन दे सकता है?"
'धर्म-निरपेक्षता मज़बूत करने में ओवैसी ने क्या किया?'
यह बात भी ग़ौर करने वाली है कि ओवैसी की रैलियों में भी काफ़ी भीड़ दिख रही है. ओवैसी की पार्टी का सबसे ज़्यादा प्रभाव सीमांचल (किशनगंज, अररिया, कटिहार, पूर्णिया) के इलाक़ों में है और वहां आख़िरी चरण में सात नवंबर को चुनाव होने हैं.
मौजूदा विधानसभा में किशनगंज से उनकी पार्टी के एक विधायक भी हैं और 2019 के लोकसभा चुनाव में किशनगंज की सीट से उनकी पार्टी के उम्मीदवार चुनाव तो हार गए थे लेकिन उन्हें क़रीब तीन लाख वोट आए थे.
सुरूर अहमद के अनुसार, "सीमांचल के इलाक़ों में मुसलमान वोटरों की एक बड़ी तादाद रहती है, और एआईएमआईएम और ख़ासकर ओवैसी की लोकप्रियता वहां पिछले कुछ सालों में बहुत बढ़ी है. ऐसे में वहां के मुसलमान वोटर यह जानना चाहते हैं कि मुसलमानों की बात करने वाले ओवैसी, मायावती के इस बयान पर क्यों ख़ामोश हैं?"
मुस्लिम लोग
ओवैसी संसद में अपने भाषणों के ज़रिए और बाहर में मीडिया के ज़रिए हमेशा यह कहते रहे हैं कि बीजेपी तो मुसलमान विरोधी पार्टी है ही, लेकिन ख़ुद को धर्मनिरपेक्ष पार्टी कहने वाली कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों ने भी मुसलमानों को उनका जायज़ हक़ नहीं दिया और बीजेपी का ख़ौफ़ दिखाकर सिर्फ़ उनका वोट लिया.
प्रोफ़ेसर सज्जाद कहते हैं, "औवैसी का यह आरोप कुछ हद तक सही है कि कांग्रेस और कुछ तथाकथित सेक्युलर पार्टियों ने सिर्फ़ सांकेतिक धर्मनिरपेक्षता का पालन किया है और मुसलमानों के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक सशक्तिकरण के लिए कुछ नहीं किया."
लेकिन प्रोफ़ेसर सज्जाद ओवैसी से भी सवाल करते हैं कि वो केवल मुसलमानों की पहचान की राजनीति कब तक करते रहेंगे और धर्मनिरपेक्षता को सच्चे अर्थों में मज़बूत करने के लिए वो ख़ुद क्या कर रहे हैं?
प्रोफ़ेसर सज्जाद कहते हैं, "ओवैसी को यह भी तय करना होगा कि वो बिहार में केवल सीमांचल की राजनीति करना चाहते हैं या उनका इरादा पूरे बिहार में फैलने का है. वो सीमांचल के विकास के लिए तो किसी ब्लूप्रिंट या रोडमैप का ज़िक्र करते हैं लेकिन पूरे बिहार के आर्थिक विकास और औद्योगिकरण के बारे में उनकी कोई नीति पब्लिक डोमेन में नहीं है. इससे साफ़ पता चलता है कि वो सीमांचल के नाम पर केवल मुसलमानों की राजनीति करना चाहते हैं. इसका मतलब साफ़ है कि तथाकथित धर्म निरपेक्ष पार्टियों को जिस चीज़ के लिए वो निशाना बनाते हैं, वो भी वही काम कर रहे हैं."
मायावती के बयान से गठबंधन पर उठती उंगली
लेकिन ओवैसी के समर्थक कहते हैं कि महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ सरकार बनाने वाली कांग्रेस और बिहार में कांग्रेस के साथ चुनाव लड़ने वाली राष्ट्रीय जनता दल भला उनके मायावती और उपेंद्र कुशवाहा के साथ गठबंधन करने पर कैसे सवाल उठा सकती है.
इसके जवाब में सुरूर अहमद कहते हैं, "बेशक कांग्रेस को कई मामलों में ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है, लेकिन उसने बीजेपी के साथ सीधे कभी हाथ नहीं मिलाया. शिवसेना उग्र हिंदुत्व की राजनीति ज़रूर करती रही है, लेकिन बीजेपी से अलग होकर और कांग्रेस और एनसीपी के साथ सरकार बनाने के बाद शिवसेना और ख़ासकर मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के न केवल रुख़ बल्कि उनके कई फ़ैसलों में बदलाव साफ़ देखा जा सकता है."
सुरूर अहमद यह भी कहते हैं कि ओवैसी तो अपने चुनावी भाषणों में राष्ट्रीय जनता दल को भी निशाना बना रहे हैं जबकि सच्चाई यह है कि उत्तर भारत की राजनीति में लालू प्रसाद अकेले ऐसे नेता हैं, जिन पर आप चाहें जितने आरोप लगा दें लेकिन उन पर यह आरोप नहीं लगा सकते हैं कि उन्होंने कभी भी बीजेपी से कोई साठगांठ की हो और मुसलमानों के हितों के विरोध में कोई काम किया हो.
मायावती के ताज़ा बयान पर ओवैसी कोई प्रतिक्रिया देंगे या नहीं इसका फ़ैसला तो वो ख़ुद करेंगे लेकिन इतना ज़रूर है कि बिहार में जो लोग (जिसमें ओवैसी के विरोधी और समर्थक दोनों शामिल हैं) पहले से ही ओवैसी और मायावती के गठबंधन पर सवाल उठा रहे थे, मायावती के इस ताज़ा बयान ने उन्हें ओवैसी पर हमले करने का एक और मौक़ा दे दिया है.
साभार बीबीसी