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रविवार की शाम लोजपा सुप्रीमो चिराग पासवान के लिये कयामत की शाम लेकर आयी. अमूमन शाम के वक्त लोग अपने घर में अंधियारा दूर करने के लिये चिराग जलाते है. लेकिन चिराग पासवान को क्या पता था कि रविवार की शाम का अंधियारा उनके बंगले को जलाने के लिये आये. देश की हस्तिनापुर दिल्ली में चिराग के खिलाफ सत्ता से बेदखल की इतनी बड़ी साजिश हुई लेकिन लोजपा के युवा सम्राट को पता तक नही चला भला इस सच को कौन स्वीकार कर सकता है लेकिन हुआ यही.
दर असल चिराग ने जिस तरह से अपने राजनीति की पटकथा लिखी उसका यह हश्र होना ही था.बिहार के राजनीतिक इतिहास में यह पहली घटना थी जब कोई राजनीतिक दल साथ किसी और गठबंधन के साथ लड़ाई अपने ही गठबंधन के खिलाफ लड़ रहा था और मदद किसी और को कर रहा था.
यो तो 28 नबंबर 2000 को जनता दल से अलग होकर लोजपा बनाने बाले पासवान बंधुओ की पार्टी में लगातार टूट हुई है और 2005 में तो इसके 29 में से 21 विधायको ने पार्टी से बगावत कर साथ छोड़ दिया था. लेकिन रामविलास पासवान के दोनो भाई रामचंद्र पासवान और पशुपति कुमार पारस उनके साथ थे.ये अलग बात है कि 2009 में रामविलास खुद चुनाव हारे ही कभी उनकी पार्टी को दो लोजपा पूरी तरह से लोकसभा में जीरो पर आउट हो गयी. विधान सभा में भी लोजपा को 2005 के बाद कभी दो अंको में विधान सभा में सीटेनही आयी. 2014 में चिराग पासवान के आग्रह पर रामविलास ने बीजेपी से समझौता किया और फिर लोजपा के दिन बहुरे लेकिन पशुपति कुमार पारस समेत रामविलास परिवार के किसी सदस्य ने विधान सभा का मुंह नही देखा. 2017 में लालू से अलग होने के बाद पारस फिर बिहार में मंत्री भी बने और एम एल सी भी. लेकिन 2014 के बाद लोजपा में चिराग की हैसियत दिन दूनी राच चौगुनी बढ़ने लगी . परिणाम सामने है 2020 आते - आते रामविलास के दामाद अनिल कुमार साधु अलावे पार्टी के सभी वफादारो को चिराग ने एक एक करते साइड कर दिया. यहां तक कि अपने चाचा पशुपति कुमार पारस और उनके बेटो को भी . 20 20 के विधान सभा चुनाव में तो 140 सीटो पर अपना उम्मीदवार खड़ा करने वाले चिराग ने पारस से कुछ पूछना तो दूर उनको जानकारी देना भी मुनासिब नही समझा. परिणाम सामने है आज चिराग खुद साइड कर दिये गये है.
अब सवाल उठता है कि चिराग करेगें क्या. चिराग समर्थको का दावा है कि लोजपा के सांसदो ने भले ही चिराग का साथ छोड़ दिया है लेकिन उनके मतदाता उनके साथ है. लेकिन रामविलास पासवान की फैमिली पार्टी कहलाने वाली लोजपा में पहली बार ऐसा हुआ है कि पासवान के फैमिली का कोई भी मेंम्बर चिराग के साथ नही है चाहे वह चाचा पशुपति कुमार पार हो या चचेरे भाई प्रिंस राज हो या फिर चिराग के बहनोई .जबकि केवल बिहार तक सिमटी रहने वाली लोजपा के प्रदेश अध्यक्ष प्रिंस भी पारस के साथ है तो लोजपा की रीढ माने जाने वाली दलित सेना के अध्यक्ष पशुपति कुमार पारस खुद है. यानि पार्टी संगठन पर पूरा कब्जा पारस का है. ऐसे में क्या चिराग सड़क पर उतर कर पार्टी का संगठन फिर से खड़ा करेगें. यह काम मुश्किल नही तो आसान भी नही है. दूसरा विकल्प अगर चिराग तेजस्वी यानि आर जे डी के साथ जाते है तो वे तेजस्वी को नेता मानकर उसके पीछे चलेगें. कभी तेजस्वी के बड़े भाई होने का दावा करने वाले चिराग छोटा भाई बनना पसंद करेगें. उन्होनें 2004 में अपने पिता का हश्र देखा है कि गंठबंधन में जीत के बावजूद लालू यादव ने उन्हें रेल मंत्री बनने से रोका था.दूसरी तरफ आर्थिक रूप से मजबूत होने के बावजूद जब विधान सभा में चिराग दो सीटे नही ले पाये तो 2024 के लोकसभा चुनाव में अपने उम्मीदवार जिता पायेगें. अगर लोजपा में फूट बरकरार रही तो क्या चिराग खुद दिल्ली जा पायेगें. ये सारे ऐसे सवाल है जिससे जूझना अभी चिराग को है. वजह साफ है बिहार की कुर्सी पर ऐसा चाणक्य बैठा है जो खुद भले कुछ करते हुए ना दिखे लेकिन सब कुछ करता है. उपेन्द्र कुशवाहा और जीतन राम मांझी का उदाहरण सामने है. ऐसे में चिराग के सामने एक तरफ कुंआ है तो दूसरी तरफ खाई आखिर वे करें तो क्या करे. जब पूरी पार्टी एक जुट हो तब तो विधान सभा और विधान परिषद मे खाता नही खोल पाये तो अलग रहकर कितना कामयाब होंगें यह तो समय बतलायेगा. दूसरी तरफ पशुपति कुमार पारस ऐवं उनकी टीम के पास तीन साल का वक्त है अपने समर्थको को समझाने के लिये कि चिराग वास्तव में लोजपा के बंगले कौ रौशन करने नही उसे जलाने आये थे. देखिये आगे - आगे होता है क्या लेकिन इतना तो कहा जा सकता है कि चिराग के लिये राह आसान नही है अभी उन्हें बिहार की गलियो और कूचो में काफी दौर लगाना बाकी है.