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बिहार में छोटे दलों के चक्रव्यू में बार-बार राष्ट्रीय दल क्यों फंस जाते हैं. क्यों पिछले 3 दशकों से राज्य में सत्ता की कुंजी क्षेत्रीय दलों और छोटे दलों के पास है? यह सवाल तब उठे जब यहां होने वाले विधानसभा चुनाव में पक्ष विपक्ष दोनों में सियासत की कुंजी क्षेत्रीय और छोटे दलों के हाथों में है. जहां विपक्ष की अगवाई आरजेडी कर रही है और इस खेमे में उपेंद्र कुशवाहा मुकेश सहनी और पप्पू यादव जैसे छोटे दलों को और उनके नेताओं के साथ मिलकर कांग्रेस आगे बढ़ने की कोशिश कर रही है, तो वही बीजेपी एनडीए गठबंधन में नीतीश कुमार और चिराग पासवान के साथ सत्ता बनाए रखने की कोशिश में जुटी हुई है.
हालांकि बीजेपी ने पिछले 5 सालों में बिहार में अपनी स्थिति मजबूत जरूर कर लीजिए बीजेपी ने 2014 के आम चुनाव में सिर्फ एलजेपी के साथ मिलकर लड़ा और 40 में से 31 लोकसभा सीटों पर जीतने का रिकॉर्ड बनाया खुद बीजेपी ने 23 सीटें जीती थी. लेकिन इसके ठीक एक साल बाद विधानसभा चुनाव में जब लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार मिलकर लड़े वहीं बीजेपी तीसरे नंबर पर आ गई और आरजेडी और जदयू दोनों को अलग-अलग बीजेपी से ज्यादा सीटें मिली थी.
टक्कर के नेताओं की कमी
जानकारों के अनुसार बीजेपी ने पिछले कुछ साल में अपनी हालत तो मजबूत कर ली है लेकिन राज्य की सियासत मैं स्थापित करने के लिए बीजेपी के पास अभी नीतीश कुमार लालू प्रसाद यादव रामविलास पासवान जैसे सरीखे नेताओं के मुकाबले में कोई दमदार चेहरा नहीं है. नाही नेताओं के कद के बराबर बिहार बीजेपी का कोई नेता फिट बैठता है. इसलिए केंद्र में रहने के बावजूद भी बीजेपी को नीतीश कुमार का नेतृत्व स्वीकार करना पड़ा चिराग पासवान की दबाव की राजनीति को स्वीकार करना बीजेपी की मजबूरी बनी हुई है. जानकारों के अनुसार बीजेपी के साथ सबसे बड़ी मजबूरी है जैसे ही बिहार में वह बिना सहयोगी दलों के उतरती है तो उसकी छवि सवर्ण दल के रूप में सामने आने लगती है. इसके पीछे कारण हैं बिहार के छोटे और बड़े क्षेत्रीय दल पिछड़ों की राजनीति करते रहे हैं और इनका मूल आधार पिछड़ा वर्ग वोट बैंक की है.
राष्ट्रीय दलों का खेल बिगाड़ने की ताकत है
छोटे दलों में राज्य में जातीय समीकरण भी रहते हैं कि राष्ट्रीय दलों के पास बड़ा जनाधार है और उसके साथ बड़ा वोट बैंक बड़े दलों के पास कभी नहीं रहा मुस्लिम और यादव जहां आरजेडी के समर्थक रहे जो राज्य में 28 फ़ीसदी के करीब हैं. 20% महादलित के बीच नीतीश कुमार की पैठ बनी है और लगभग 8 फ़ीसदी पासवान वोटर के बीच लोजपा अब तक अपनी स्थिति मजबूत बनाए हुए हैं और इसके बाद जो प्रभावी जातियां बचती हैं उन सबों का नेतृत्व छोटे दलों में है. लगभग 7 फ़ीसदी कुशवाहा वोटरों के बीच उपेंद्र कुशवाहा और नागमणि की राजनीति रही है. इतने ही महिला वोटरों वाले जनाधार को ध्यान में रखकर मुकेश साहनी ने भी अपनी नई पार्टी बनाई है .उधर दलितों को केंद्र में रखकर जीतन राम मांझी ने अपनी पार्टी की है यह सभी दल अकेले कोई बड़ी ताकत नहीं रखते हैं लेकिन जरूरत पड़ने पर राष्ट्रीय दलों का खेल जरूर बिगाड़ देते हैं. खेल बिगाड़ने की सियासी डर के कारण राष्ट्रीय दल इन छोटे दलों के चक्रव्यूह में फंस जाते हैं. जहां तक कांग्रेस का सवाल है राज्य में अपने दम पर 10 दिन से भी कम वोट लेती रही है जाहिर है पार्टी के पास इन दलों में फंसने की सॉरी मजबूरी है.
क्या मुश्किल में विपक्षी महागठबंधन
बिहार चुनाव में एलान के ठीक पहले ही राष्ट्रीय जनता दल के नेतृत्व वाला विपक्षी महागठबंधन मुश्किल में घिरा नजर आ रहा है. राज्य की सबसे बड़ी पार्टी सीपीआईएमएल अकेले चुनाव लड़ने की तैयारी कर रही है. मीडिया रिपोर्ट के अनुसार सीपीआई एम एल राजद से नाराज है क्योंकि पार्टी ने उसे सिर्फ 7 8 देने की बात कही है जबकि पार्टी 53 सीटों की मांग कर रही है. बता दें कि फिलहाल उसके तीन विधायक हैं. पार्टी के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य ने कहा हमें देने वाली सीटों की संख्या काफी कम है जो हमें मंजूर नहीं है. हमने आज से इस प्रस्ताव पर दोबारा विचार करने के लिए कहा है. अब हम इससे अधिक सीटों पर अकेले चुनाव लड़ने के लिए तैयार हैं. भट्टाचार्य ने कहा कि 2015 के चुनाव में 2020 में विभिन्न पार्टियों के चुनाव लड़ रही है. 2020 में सीट बंटवारा 2015 के फार्मूले पर नहीं हो सकता.