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कुमार कृष्णन
बिहार। बहुआयामी सारस्वत व्यक्तित्व के धनी थे डाॅ विष्णु किशोर झा 'बेचन'। बिहार के साहित्यिक,सांस्कृतिक एवं शैक्षिक जीवन के सशक्त हस्ताक्षर थे। ज्ञान-प्रभा से दीप्त उनका मुख-मण्डल सदैव स्निग्ध मुस्कान से खिला रहता था, जो सहज ही सबको आकर्षित करता था।
एक महान शिक्षाविद, समर्थ साहित्यकार, समालोचक, प्रखर चिंतक, कला-संस्कृति के महान पोषक एवं अनेक मानवीय गुणों से युक्त साधु-पुरुष थे,जिन्होंने चार दशक तक साहित्यिक जीवन को गति दी।अपनी कीर्तियों से मां भारती के मंदिर को सजाया और साहित्य की विभिन्न विधाओं पर कलम चलायी। न केवल पुस्तकों का प्रणयन किया,वरन पुस्तकालय आंदोलन को भी नया आयाम दिया। वे अपने जमाने सम्मेलनों के अनोखे ठाठ थे।
स्वातंत्रत्योत्तर हिन्दी साहित्य के मौलिक समालोचक के रूप में पूरे बिहार को गौरवान्वित किया। साहित्य की पुरातन मान्यताओं की अपेक्षा आधुनिक मूल्यों के प्रति समर्पित रहे।उनकी तीक्ष्ण तत्वान्वेशिणी दृष्टि से सृजन और मूल्यन के नए-नए पथ उद्धाटित हुए हैं। मार्क्सवादी विचारधारा से निर्मित प्रतिमानों पर आग्रह रखते हुए भी कलात्मक एवं शाश्वत मानवीय मूल्यों से बननेवाली कसौटियों का सम्मान किया। वे मूलत: समीक्षक थे।
राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित होनेवाली 'आलोचना' जैसे त्रैमासिक पत्रिका में इनके लेख लगातार आते रहे।उन दिनों इस पत्रिका के संपादक ख्यातिप्राप्त प्रगतिशील आलोचक शिवदान सिंह चौहान थे। इस पत्रिका में नागार्जुन पर उनका स्वतंत्र प्रबंध प्रकाशित किया गया ,जो उस दौर में शायद हिन्दी में नागार्जुन पर इतने व्यापक रूप से लिखा गया पहला आलेख था। 1971 में आगरा से प्रकाशित ' समीक्षालोक ' के पंत विशेषांक में सुमित्रानंदन पंत पर समीक्षा प्रकाशित हुई।पंत पर लिखा गया डाॅ बेचन का यह निबंध पंत साहित्य को समझने में एक महत्वपूर्ण सोपान है।उन्होंने जब भी समालोचना लिखी साहित्य के रस में डूबकर लिखी।
यही कारण है कि पंत विषयक समीक्षा में नवीन आलोचना के प्रतिमान उपस्थित होते हैं। इनके आलोचनात्मक निबंधों का संग्रह 'अध्ययन के विचार ' ने आलोचक के रूप में काफी प्रतिष्ठा दी। उन्होंने कई पुस्तकें लिखी। इनमें 'अध्ययन के विचार' ,'आधुनिक हिन्दी कथा साहित्य और चरित्र विकास', कवि श्यामसुंदर:जीवन और कृर्तियां', 'समकालीन साहित्य और समीक्षा', 'बिहार का साहित्य और साहित्यिक मानमूल्यों की प्रेरणा', 'प्रेमचंद' (आलोचना) 'इंसान की लाश', 'मेरी प्रिय कहानियां'(कहानी संग्रह) 'चीन के मोर्चे पर', ' दो लघु उपन्यास ', 'जेल के अंतराल से' (उपन्यास)और डाॅ बेचन की कविताएं प्रमुख हैं।इसके अलावा कई पुस्तकों का संपादन किया।
इनमें 'नई प्रतिभा', 'भगवान पुस्तकालय रजत जयंती स्मारिका', 'फिर शोला', 'आग और बंदूकें','जय बंगला', 'चयन संचयन' , 'शताब्दी संवाद', 'आधुनिक मैथिली साहित्य', 'आधुनिक मैथिली गद्य, 'स्वातंत्रयोत्तर मैथिली निबंध', 'नाटक और रंगमंच' 'कवि श्यामसुंदर ग्रंथावली' 'हिन्दी संचय', 'अनाम की डायरी', 'पात्र शिकायत करते हैं' , 'इंटरमीडिएट हिन्दी, 'हिन्दी राष्ट्रभाषा संग्रह', 'हिन्दी शिक्षण एवं व्याख्यान' , 'कथा- कहानी', ' चित्रकाव्यम' प्रमुख है। डाॅ बेचन साहित्य की सभी विधाओं में आॅल राउण्डर थे। बावजूद इसके आलोचनात्मक लेखन में जहाॅ रत रहे ,वहीं जीवन के अंतिम क्षण तक सृजनात्मक लेखन से मोह नहीं छूटा।
डाॅ बेचन के मामले में यह मिसफिट है कि ' असफल कवि आलोचक बन जाता है'। हालांकि साहित्य में डाॅ बेचन का प्रवेश कविता से हुआ। इनकी कविताएं स्वातंत्रयोत्तर काव्य सृजन का अप्रतिम दृष्टांत उपस्थित कराती है। वे एक प्रगतिशील जनवादी कथाकार थे।उनकी कहानियों में युग की अनुभूति तथा प्रेरणा है। इतिवृतात्मकता के जंजाल से मुक्त साफ-सुथरी स्पष्ट जीवंत संघर्ष और मुक्त कल्पनाओं का सहारा नहीं लिया।
उन्होंने सामाजिक और आर्थिक विषमताओं से ग्रस्त जीवन स्त्रोतों को पहचाना। उनकी कहानियां विषमताओं से दूर परिणामों का उद्वोध कराती है और पाठकों के समक्ष प्रथम चुनौती बनकर आती है। यह चुनौती उन साहित्यकारों के लिए भी है, जो जीवन के यथार्थ तरंग स्त्रोत की उपेक्षा कर इधर उधर भटकते फिरते हैं। वे कहानी की मौलिक शैली के धनी रहे।यह बात दीगर है कि बराबर कहानियां नहीं लिखते रहे,पर जो कुछ भी उन्होंने लिखा उनमें उनकी मौलिकता झांकती है। उनकी ऐसी ही मौलिक शैली में प्रकाशित कहानीनुमा चर्चित रिर्पोताज ' भागलपुर भागता हुआ शहर' का प्रकाशन अमृत राय ने मार्च 1971 में किया।
इस रचना ने एकमत से यह मानने को मजबूर किया कि डाॅ बेचन ने हिन्दी कहानी को नई शैली दी। इनकी वहुचर्चित कहान 'भात' 1957 में प्रख्यात पत्रिका 'कहानी' में प्रकाशित हुई। हिन्दी की पांक्तेय कहानियों में इसकी चर्चा होती है। यह रचना अपनी मौलिकता, करूणा और सहजता के कारण काफी चर्चित हुई। कहानी के संपादक सितम्बर 1957 के संपादकीय में लिखा-'निम्न वर्ग के मैथिल समाज की यह दर्दनाक कहानी मर्म छुए बिना न रहेगी।
राष्ट्रपिता बापू के जन्म शताब्दी बर्ष के उपलक्ष्य में प्रकाशित कविता संग्रह-'शहादत की शाम' काफी चर्चित हुई। उन्होंने 1966 में 'बसेरा' नाटक लिखा, जिसका प्रसारण रेडियो से बार-बार हुआ।विषय और संवाद संचयन की दृष्टि से हिन्दी के श्रेष्ठ नाटकों में इसका महत्व सुरक्षित है।यह इतना लोकप्रिय हुआ कि 1966 से 1969 तक इसका प्रसारण श्रोताओं की मांग पर होता रहा।
बिहार का सहरसा के लगमा गांव इनकी पैतृक भूमि है। भागलपुर के भगवान पुस्तकालय में इनका जन्म 1933 में हुआ। पिता पं उग्र नारायण झा हिन्दी और संस्कृत के उद्भट विद्वान थे। ज्योतिषाचार्य के रूप में उनकी ख्याति दूर दूर तक थी। उनके शिशुकाल में बुरे ग्रह की आशंका के फलस्वरूप उनकी माता ने भागलपुर के गोलाघाट निवासी स्व. मधुसूदन दास के परिवार को बेच दिया और फिर उनकी माता ने खरीद लिया। इस कारण बेचन कहे जाने लगे और नाम के आगे उपनाम 'बेचन' जोड़ा।
अपने स्वध्याय,अध्यव्यवसाय और कारियत्री प्रतिभा के वल पर उन्होंने विद्वान पिता का विद्वान पुत्र की उक्ति को चरितार्थ किया।1955 में हिन्दी से एमए करने के बाद 1963 में 'डाॅक्टर ऑफ फिलोसोपी' की उपाधि प्राप्त कर भागलपुर विश्वविद्यालय का प्रथम डाॅक्टर होने का गौरव हासिल किया। अपने कैरियर का आरंभ भगवान पुस्तकालय के पुस्तकाध्यक्ष के रूप में किया।1956 से 1960 तक सुलतानगंज के मुरारका काॅलेज में प्राध्यापक रहे।
1960 से 1978 तक भागलपुर के मारबाड़ी काॅलेज में व्याख्याता रहे। इसी महाविद्यालय में 1978 से 1980 तक रीडर और 1981 से 1987 तक प्रोफेसर सह हिन्दी विभाग के अध्यक्ष और प्रथानाचार्य रहे। साहित्यिक कद की ऊॅचाई और शोहरत के कारण भागलपुर विश्वविद्यालय के प्रतिकुलपति पद को सुशोभित किया। साहित्य के क्षेत्र में बहुमूल्य योगदान के लिए वर्ष 1996 में बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष चुने गए और 2000 तक इस पद पर रहे।
भागलपुर के भगवान पुस्तकालय को उन्होंने ऊॅचाई प्रदान की। उनके संयुक्त सचिव के कार्यकाल से ही यह पुस्तकालय राष्ट्रीय नेताओं से लेकर हिन्दी के लब्ध प्रतिष्ठ साहित्कार पुस्तकालय परिदर्शन को आते रहे। तात्कालीन रेल मंत्री जगजीवन राम, तात्कालीन राज्यपाल डाॅ जाकिर हुसैन, तात्कालीन मुख्यमंत्री पं विनोदानंद झा, हजारी प्रसाद द्विवेदी,नागार्जुन,डाॅ नामवर सिंह, शिवपूजन सहाय, हंस कुमार तिवारी,पं रामेश्वर झा ' द्विजेन्द्र, गोपाल सिंह नेपाली, रामधारी सिंह दिनकर, विष्णु प्रभाकर,वलायचांद मुखोपाध्याय वनफूल, डाॅ रामदयाल पांडेय , तारकेश्वर प्रसाद, हरिकुंज,पं अवधभूषण मिश्र,श्यामसुंदर घोष, राविन शाॅ पुष्प,डाॅ खगेन्द्र ठाकुर,आचार्य कपिल, लक्ष्मीकांत मिश्र आदि प्रमुख हैं। अपने आकर्षक व्यक्तित्व के कारण हर किसी को प्रभावित करते। जिनके भी संपर्क में आए उनका असीम प्यार मिला।
डाॅ बेचन के कारण 1950 से 1990 तक भगवान पुस्तकालय साहित्यिक गतिविधियों का केन्द्र रहा। समीक्षा के माध्यम से नई प्रतिभा को तरासने का काम करते रहे।उनकी संगठन क्षमता अद्भूत थी। तभी तो वे जब तक जीवित रहे वे संस्थाएं जीवंत रही। डाॅ बेचन पुस्तकालय आंदोलन से भी जुड़े थे। अनुज शास्त्री, डाॅ रामशोभित सिंह,रंग शाही के साथ मिलकर बिहार राज्य पुस्तकालय संघ का गठन किया। वे 1980 से लेकर मृत्युपर्यन्त अध्यक्ष रहे। उन्होंने अपनी पेतृक संपत्ति स्व. कुंजीलाल पं उग्रनारायण योगमाया स्मारक पुस्तकालय को दान में दी। 30 अगस्त 2004 को वे इस दुनिया से रूखसत हो गए। वे साहित्य के एक ऐसे वेत्ता थे,जिनके पास जीवन के अनुभवों का सत्व था।