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ICICI के मालिक का नाम बताइये, ये सरकारी PSU मनमोहन सिंह ने बेचा था

Shiv Kumar Mishra
11 Oct 2023 10:23 AM IST
ICICI के मालिक का नाम बताइये, ये सरकारी PSU मनमोहन सिंह ने बेचा था
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पर आपकी खुशकिस्मती है कि मैं उस पद पर नही। ऐसा नही हुआ, और पूनावाला सर की पर्याप्त सप्लाई की वजह से आपके परिवार की कई जाने बची।

मनीष सिंह

ICICI के मालिक का नाम बताइये। ये सरकारी PSU था, मनमोहन ने बेच दिया था। वही खरीदने वाले का नाम बताइये। बालको भी एक PSU था, अटल ने बेचा। आप उसके मालिक का नाम मिनटों में बता देंगे।

पर ICICI के मालिक का नाम खोजते रह जाओगे, न मिलेगा।

कुछ शब्द मोटा मोटा समझ लीजिए।

1- डिसइन्वेस्टमेंट- याने आपके पास साइकल थी। आपने इसका कैरियर बेच कर दिया। अब साइकल के मालिक तो आप ही है। कैरियर का पैसा देकर कोई इस्तेमाल करे, तो कर ले। जैसे SBI के शेयर जनता के पास हैं। लेकिन 20-30% ...बाकी सरकार के ही पास है। तो मालिक सरकार ही है, आप नही। ये हुआ डिस इन्वेस्टमेंट।

2- प्राइवेटाइजेशन- आपने सायकल बेच दी, बस कॅरियर रखा। या वो भी न रखा। याने इस केस में पूरी तरह से "मालिक बदल गया"। नाउ साइकल इज नॉट योर्स

3- मोनेटाइजेशन- आपने सायकल को आरी से काटकर भंगार के भाव, चक्का अलग, सीट अलग, कैरियर अलग अलग बेच दिया।

ये सभी विनिवेश कहलाते है। पहला तरीका मनमोहन का, दूसरा अटल का, तीसरा मोदी सरकार का है।

होशियारी यह हो सकती है, कि आप सारे पुर्जे खोलकर, अलग अलग समय पर, सारे एक ही आदमी को भंगार के भाव बेचें। वो खरीदकर चुपके से वापस पूरी सायकल बना ले।


जब अडानी दुनिया के दूसरे नम्बर के अमीर बने। तब टोटल वेल्युएशन थी, कोई 7.5 लाख करोड़।

मगर भारत में आधा दर्जन सरकारी कम्पनी ऐसी है, जिनकी वेल्युएशन 10-20-30-40 लाख करोड़ है। गूगल करना आपका काम है। क्योकि उन कम्पनियों के मालिक आप हैं। भले आपका नाम फोर्ब्स में न आता हो।

ICICI याने इंडस्ट्रियल क्रेडिट एंड इन्वेस्टमेंट कारपोरेशन ऑफ इंडिया। 1955 में बना था, देश में छोटे, मझोले उद्योग बढाने को। आजकल माइक्रोफाइन्स वालो को देखा होगा। वे रेहड़ी वाले, ठेले वाले, अन्य मेहनती गरीब खोजते हैं। उनको बिना कुछ गिरवी रखे, लोन देते हैं। ताकि वह आगे बढ़ सके।

ICICI भी अपने जमाने का माइक्रोफाइनांस कम्पनी समझिये। बस ये मध्यम किस्म के उद्यमी खोजकर, उनको बड़ा बनाने का काम करती। अच्छे आदमी खोजो, लोन दो, ब्याज कमाओ। खुद भी बढ़ो, देश मे इंडस्ट्री बढ़ाओ।

शुरू करने के लिए भारत सरकार ने विश्व बैंक से 1 करोड़ कर्ज लेकर पूंजी दी। 90 के दशक में ये कुछ हजार करोड़ का भीमकाय संस्थान हो गया। सरकार ने इसे बैंक का दर्जा दिया। व्यवसाय और बढ़ गया।

सरकार ने इसके शेयर बेचने शुरू किए। किसी ने 20 खरीदे किसी ने 50 किसी ने बल्क में हजारों शेयर लिए। इंस्टिटीयूशन्स ने शेयर लिए। इसका बोर्ड बना। जिसने जितने शेयर लिए, उस हिसाब से डायरेक्टर रखे। अच्छे सीईओ रखे।

आज ICICI इंडिया का इंटरनेशनल बैंक है। कारपोरेट गवर्नेस पे चलता है। इसका कोई एक मालिक नही। सो आप नाम नही बता सकते।

बेचने के इस तरीक़े से मैं सहमत हूँ।

अब दूसरी कम्पनी देखिए। चार्ट लगा है। उसका मालिक है रामलाल। 50+ फीसदी शेयर उसके हैं। मालिक वही है, सीईओ वही है। भले ही इसके आधे से कम के मालिक अन्य लोग है,मगर उनके पास केवल कैरियर है।सायकल तो मालिक ही चलाता है। पूरी पकड़ के साथ।

ICICI की चन्दा कोचर, कुछ करोड़ की हेराफेरी कर दे, तो बवाल हो जाता है। पद छोड़ना पड़ता है। मगर रामलाल अपनी कम्पनी में कुछ हजार करोड़ इधर उधर कर दे, कौन पकड़ेगा?? कोई पकड़ ले, कुछ बोल दे, तो ज्यादा से ज्यादा सेबी में शिकायत करेगा। और सेबी- हिहिहि याने इस तरह के स्ट्रक्चर वाली कम्पनी का माईबाप किसी को 10-20 हजार करोड़ दे सकता है। उसकी जांच नही होगी। ये 10-20 हजार किसके झोले में गए, ये पता करना मुश्किल ही नही .. नामुमकिन भी है।

मेरे मामाजी, जो फारेस्ट में रेंजर हुआ करते थे, कहते थे- "लो उसी से, जो दे दे खुशी से, और न कहो किसी से.." अगर मैं देश का रेंजर होता तो मामाजी का कहा हमेशा याद रखता। बेचता उसी को, जो देता खुशी से, और न कहता किसी से। इसलिए मैं होता, तो वैक्सीन का 90% ठेका पूनावाला को देता, कोवैक्सीन बनाने वाली PSU को नही।PSU का सीईओ, एफिशिएंट हो या नही, लाभकारी नही होता। और PSU लाभ में आ जाये, तो बेचने में दिक्कत अलग।

पर आपकी खुशकिस्मती है कि मैं उस पद पर नही। ऐसा नही हुआ, और पूनावाला सर की पर्याप्त सप्लाई की वजह से आपके परिवार की कई जाने बची।

बात डिसइन्वेस्टमेंट, प्राइवेटाइजेशन, मोनेटाइजेशन पर थी। तीनो ही निजीकरण के तीन तरीके हैं। मैं पहले के पक्ष में हूँ, बाकी दो के खिलाफ। निजीकरण, icici की तरह का हो, तो पक्ष में हूँ। बालको की तरह का हो, तो खिलाफ। मनमोहन के तरीके से हो, तो पक्ष में हूँ। अटल के तरीके से हो, तो खिलाफ। परन्तु मोदी जी करें, तो जोभी करें, उसके पक्ष में हूँ। उनके खिलाफ जो हैं, मैं उसके खिलाफ। पता है क्यो??

क्योकि आयेगा तो मोदी ही!!

Live Updates

  • 11 Oct 2023 10:33 AM IST

    द मेकिंग आफ अमेरिका, द ब्रेकिंग आफ इंडिया

    द मेकिंग आफ अमेरिका,

    द ब्रेकिंग आफ इंडिया ...

    कहानी है गिल्डेड एज की। वाण्डरबिल्ट, कार्नेगी, और रॉकफेलर की। जो मामूलीयत उठकर बने दुनिया के सुपर रिच।

    और इस क्रम मे अमेरिका को अपने पैरो पर खड़ा कर दिया।

    ●●

    अमेरिका के बनने, और भारत के बिगड़ने मे निजी उद्योंगो की भूमिका को समझना, बड़ा दिलचस्प है। वाण्डरबिल्ट के पिता की एक नौका थी। न्यूयार्क मे सवारी ढोते थे। उसने मां से 100 डॉलर उधार लिए। एक नाव खरीदी, एक्स्ट्रा सीट फिटिंग कराई।

    सस्ती टिकट और,ज्यादा फेरे, और सिर्फ एक रूट पर फोकस। उस रूट के सारे कस्टमर तोड़ लिए। दूसरे काम्पटीटर्स को खरीद लिया। फिर दूसरा रूट, और तीसरा। 25 की उम्र मे वह न्यूयार्क का सबसे सबसे बड़ा फेरी ऑपरेटर था। अब उसने एक बड़ा शिप लिया। पूरे अमेरिका मे माल और सवारी ढोने लगा।

    सेम टेक्नीक, सस्ती दर, ज्यादा कैपेसिटी ..

    थके कम्पटीटर बरबाद हो गए। उनको भी खरीदकर, वाण्डरबिल्ट सबसे बड़ा शिपिंग लाइनर बन गया। बेहद रिच .. फिर एक दिन सारी शिपिंग बेच दी। अब एक रेलरोड कंपनी खरीद ली। रेल नया ट्रांसपोर्ट मॉडल थी, फ्यूचर था। सस्ता.. और समुद्र-नदियों से दूर भी कारगर। अगले 15 साल मे उसने अमेरिका के कोने कोने मे रेल बिछा दी। सस्ती दरें, ज्यादा बस्तियों तक पहुंच, काम्पटीशन क्रश्ड, वो सबसे बड़ा रेल नेटवर्क बन गया।

    अमेरिका की शिपिंग, और पूरा रेलवे ... वाण्डरबिल्ट ने खड़ा किया है। न्यूयार्क का ग्रांड सेन्ट्रल स्टेशन सहित 70% रेल लाइन, रेल्वे स्टेशन, हजारों ब्रिज। मेरिका का पूरा ट्रांसपोर्ट इन्फ्रास्ट्रक्चर, वाण्डरबिल्ट की देन है।  और एण्ड्रयू कार्नेगी की भी।

    एंड्रयू कार्नेगी, आयरिश इमिग्रेंट था। जो बाप के साथ एक कॉटन मिल मे काम करता। फिर एक रेलरोड कंमनी जॉइन कर ली।

    25 की उम्र मे डिवीजन हेड बन गया, मालिक का चहेता।

    लेकिन जल्द ही नौकरी छोड़ी। रेलरोड ब्रिज बनाने का ठेका लेने लगा। रेल बढ़ रही थी, तो ब्रिज चाहिए थे। रेल कम्पनी वाली पुरानी नौकरी के संपर्क से, उसने ठेके पाए।

    कंपनी चल निकली।

    तभी मिसीसीपी मे पुल बनाने का प्लान हुआ। ये अमेरिका का सबसे बड़ा ब्रिज होने वाला था। गहरी नही, अथाह पानी.. और लोहे का पुल।

    आम लोहे का पुल कुछ ही बरसों में जंग खाकर गिर ही जाना था।

    कार्नेगी ने स्टील यूज करने का तय किया। एक नई मिश्रधातु, जिसमे जंग नही लगता।

    उसे खुद स्टील का कोई उसे ज्ञान न था। इसलिए तो ज्ञानियों को नौकरी दी। सस्ती स्टील बनाने की विधि निकाली। कर्जा वर्जा लिया और छोटी सी स्टील फैक्ट्री डाल ली।

    स्टील का अविश्वसनीय ब्रिज बन गया। पर अब कार्नेगी का धंधा बदल गया। अब वह फुल टाइम स्टील प्रोड्यूसर बन गया।

    कार्नेगी के रेलरोड संपर्क काम आने वाले थे। क्योकि स्टील फैक्ट्री, रेलरोड के किनारे लगती। लोहा-कोयला रेल से आता। फिनिश गुड्स रेल से जाते।

    और प्रोडक्ट खरीदने वाली भी, मुख्यतः रेल कंपनी होती। उन्हे पटरी, पुल, स्टेशन हर चीज के लिए स्टील चाहिए था।

    मगर स्टील ने स्थायी असर डाला निर्माण उद्योग पर। बड़ी बहुमंजिली इमारतें बननी शुरू हो गई, इस इस नए सस्ते स्टील की वजह से। करोड़ो को घर मिला, लाखों को जॉब ..

    छोटे बस्तीनुमा शहर, चमचमाते बहुमंजिली इमारतो मे बदल गए।

    एण्ड्रयू कार्नेगी रिच से सुपर रिच बन गया।

    पर तीसरा खिलाडी इन दोनो का बाप था। जॉन डी रॉकफेलर। वो एक "नकली तेल" बेचने वाले ठग का बेटा था।

    लेकिन बाप के उलट मेहनतकश था।

    तब बिजली का अविष्कार हुआ न था। ढिबरी जलाने के लिए व्हेल का तेल उपयोग होता था। महंगा था। लेकिन अब एक नई चीज खोजी जा चुकी थी - रॉक आयल याने पेट्रोलियम।

    जुआरी "तेल खोजते है", व्यापारी "तेल प्रोसेस करते है" - ये रॉकफेलर ने सोचा।

    तेल शोधन की एक प्लांट लगाया। रेल रोड के किनारे, तेल मंगाता, साफ करता, केरोसिन बनाता, रेल से बिकने भेजता।

    लेकिन तब तकनीक कमजोर भी - 40% तेल बरबाद होता। फेंक दिया जाता।

    रॉकफेलर ने बरबादी रोकी।

    केरोसिन के बाद जो बचा, उससे वैक्स, लुब्रिकेटिंग आयल, पेट्रोलियम जेली बनाई, उससे भी जो बचा- कोलतार बनाया, जो सड़क निर्माण का आधार हुआ। 

    स्टेण्डर्ड आयल कंपनी ने केरोसिन को, खास लग्जरी की जगह आम लोगों की हाउसहोल्ड जरूरत बना दिया।

    और रॉकफेलर बेहद अमीर हो गया।

    (थक गए, तो पढना छोड़ दीजिए)

    तो वाण्डरबिल्ट अब इस रॉकफेलर नाम के प्राणी से मिलना चाहता था।

    वो रेलवे किंग, मास्टर ट्रांसपोर्टर था। रॉकफेलर का केरोसिन ढोने मे, एकछत्र ठेका चाहता था। रॉकफेलर मिला, भाड़े मे 30% डिस्काउंट लिया, और डील पक्की कर ली।

    पर ये औकात से बड़ी डील थी।

    जितना ढुलाई का ठेका दिया, प्रोडक्शन उसका आधा भी न था। रॉकफ़ेलर को नया धमाका करने की जरूरत थी।

    (जारी)

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