आर्थिक

अर्थव्यवस्था पर प्रधानमंत्री का दावा - सच या झूठ?

Shiv Kumar Mishra
7 Jun 2020 2:48 AM GMT
अर्थव्यवस्था पर प्रधानमंत्री का दावा - सच या झूठ?
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दूसरी नजर: मुश्किल नहीं वृद्धि की डगर

पी चिदंबरम का साप्ताहिक कॉलम

दूसरी नजर: मुश्किल नहीं वृद्धि की डगर

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी किसी भी संकट से भागने और अपनी वाह-वाही कराने का कौशल अच्छी तरह जानते हैं। यह वादा करने के बाद कि वे इक्कीस दिन के भीतर कोरोना विषाणु के खिलाफ जंग जीत लेंगे, उन्होंने पूर्णबंदी एक और दो लगा दी, और फिर उसके बाद के चरणों से अपने को एकदम अलग कर लिया। पूर्णबंदी दो खत्म होते होते उन्होंने बड़ी ही चतुराई से सारी जिम्मेदारी राज्य सरकारों और मुख्यमंत्रियों पर डाल दी। तब तक उनके शब्द ही कठोर कानून होते थे, लेकिन अब यह गृह सचिव पर छोड़ दिया गया है कि वे अस्पष्ट अधिसूचनाएं जारी करते रहें और इसी तरह आईसीएमआर खुशी से बताता रहे कि आज दिन तक संक्रमित लोगों की संख्या दो लाख को पार कर गई है जो कि अधिकतम से काफी दूर है।

बीस लाख करोड़ रुपए का आर्थिक प्रोत्साहन पैकेज मोदी के दिमाग की उपज था और अधिक तरलता, बड़ी-बड़ी पांच साला योजनाओं और थोड़े से पैसे की खिचड़ी पर कोई भी अर्थशास्त्री अपनी मुहर नहीं लगाता और इसे प्रोत्साहन पैकेज कहा गया। मोदी ने इस पैकेज का ब्योरा बताने का काम वित्त मंत्री पर डाल दिया। दूसरे दिन ही वित्त मंत्री का जोश ठंडा पड़ गया।

प्रधानमंत्री ने बनाई दूरी

मोदी अब जम्मू-कश्मीर के बारे में कुछ नहीं बोलते, सब कुछ श्रीनगर में नौकरशाहों पर छोड़ दिया गया है। वे सीमापार उल्लंघनों या जवानों के मारे जाने पर कुछ नहीं कहते। यह काम सेना के जनरलों पर डाल दिया है। चीन के साथ विवाद पर भी वे अब तक कुछ नहीं बोले। सेना मुख्यालय की ओर से जारी बयान को पढ़ने का काम उन्होंने रक्षा मंत्री पर छोड़ दिया है और चीन से बात करने की जिम्मेदारी विदेश मंत्री पर डाल दी है।

पूरे अप्रैल प्रवासी कामगारों की वापसी के मुद्दे पर मोदी एक शब्द नहीं बोले। जब मामला एकदम बेकाबू हो गया और विस्फोटक रूप ले लिया, तब रेल मंत्री आगे आए, अपने पर आरोप लेने नहीं बल्कि राज्य सरकारों पर ठीकरा फोड़ने के लिए। हजारों की तादाद में प्रवासी कामगार अभी भी रेलवे स्टेशनों और बस अड्डों पर फंसे हुए हैं और इन्हें कुछ नहीं पता कि कब इन्हें ट्रेन या बस मिलेगी।

प्रधानमंत्री मौके की तलाश में थे और उन्होंने भारतीय उद्योग परिसंघ (सीआइआइ) की सामान्य सभा को संबोधित करने का मौका झपट लिया। मैं समझता हूं कि इससे पहले किसी प्रधानमंत्री ने सीआइआइ की सामान्य सभा को संबोधित नहीं किया, इसलिए मुझे बेहद हैरानी हुई।

मुश्किल नहीं- सच या झूठ?

सामान्य सभा में उन्होंने जो कहा, उस पर वाकई कोई आश्चर्य नहीं हुआ। प्रधानमंत्री को अगर लोगों का उत्साह बनाए रखने दिया जाए तो भी मोदी का भाषण उनकी खास शैली में था। प्रधानमंत्री ने कहा- "मुझ पर भरोसा कीजिए, विकास दर फिर से हासिल करना मुश्किल नहीं है।" क्या यह सही है? विकास दर को फिर से हासिल करना अगर इतना कठिन नहीं है तो फिर 2017-18 में सरकार ने जीडीपी में गिरावट रोकने के लिए कदम क्यों नहीं उठाए? 2019-20 की अंतिम तिमाही तक जब लगातार आठ तिमाहियों में विकास दर नीचे आती रही तो सरकार क्यों असहाय बन कर देखती रही?

निश्चित रूप से, प्रधानमंत्री यह जानते हैं कि 2019-20 की चौथी तिमाही में विकास दर 3.1 फीसद रही थी, जो 2002-03 की तीसरी तिमाही के बाद सबसे कम थी और तब भाजपा सत्ता में थी। इसके अलावा, 2019-20 में विकास दर 4.1 फीसद पिछले सत्रह साल में सबसे कम रही है। साल 2008 में जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में मंदी छाई थी, तब भी भारत की विकास दर इतनी नीचे नहीं गई थी। वित्त मंत्री अक्सर बहुत ही हास्यास्पद तरीके से 2012-13 और 2013-14 में यूपीए के काम हवाला देती हैं और जानबूझ कर सीएसओ के उन आंकड़ों को नजरअंदाज कर देती हैं जिनमें 2011-12 में 5.2, 2012-13 में 5.5 (मैं एक अगस्त 2012 को फिर से वित्त मंत्रालय में लौटा था) और 2013-14 में 6.4 फीसद वृद्धि दर बताई गई थी। मैं वित्त मंत्री को याद दिलाना चाहता हूं कि यूपीए ने एनडीए को बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था सौंपी थी।

सच तो यह है कि एनडीए ने 2014-15, 2015-16 और 2016-17 के ज्यादातर वक्त तक इस रफ्तार को बनाए रखा और 2016 में ही अपनी हेंकड़ी में आठ नवंबर को सरकार ने नोटबंदी का एलान कर दिया। उसके बाद से अर्थव्यवस्था नीचे आने लगी और प्रधानमंत्री के इस एलान के बावजूद कि वृद्धि दर को हासिल करना बहुत मुश्किल नहीं है, एनडीए-1 और एनडीए-2 ने यह साबित कर दिया कि यह काम उनकी क्षमता के बाहर है।

'आई गायब'

उद्योग, व्यापार और वाणिज्य को यह मालूम है। निर्यातकों को मालूम है। एमएसएमई को यह पता है। सरकार के अपने अर्थशास्त्रियों को छोड़ कर, सभी अर्थशास्त्रियों को यह मालूम है। अब तो यहां तक कि दिहाड़ी मजदूरी करने वाले और प्रवासी कामगारों को तक को भी यह पता है। दिनोंदिन उम्मीदें धुंधली पड़ती जा रही हैं और अब तो पूरी तरह उम्मीद खत्म हो चुकी है कि मोदी सरकार अर्थव्यवस्था को फिर से पटरी पर ला पाने में कामयाब हो पाएगी।

अच्छी सलाह को सुनने में प्रधानमंत्री ने हमेशा अनिच्छा दिखाई है, लेकिन मैं हार नहीं मानने वाला। प्रघानमंत्री का हाल का नया ताबीज 'पांच आई' (इंटेट यानी इरादा, इनक्लूशन यानी समावेशन, इन्फ्रास्क्ट्रचर यानी बुनियादी ढांचा, इनवेस्टमेंट यानी निवेश और इनोवेशन यानी नवोन्मेष) में से अगर दो नहीं तो कम से कम एक सबसे निर्णायक 'आई' गायब है। यह गायब आई इनकम यानी आय है। पिछले तीन महीनों में करीब साढ़े बारह करोड़ लोगों की नौकरी छिन गई है। आॅल इंडिया मैन्युफैक्चरर्स आॅर्गनाइजेशन (एआइएमओ) का सर्वे बताता है कि पैंतीस फीसद एमएसएमई और सैंतीस फीसद स्वरोजगार वाले कारोबारियों ने अर्थव्यवस्था में सुधार की उम्मीद छोड़ दी है और जल्द ही ये कारोबार बंद कर देंगे।

सामान्य-सा अर्थशास्त्र यह है कि सिर्फ आमद यानी लोगों के हाथ में पैसा ही फिर से मांग पैदा करेगा, मांग से ही आपूर्ति और उत्पादन बढ़ेगा, उत्पादन बढ़ने से ही लोगों को फिर से रोजगार मिलना शुरू होगा और इसी से निवेश भी बढ़ेगा और इन सबके मिलने से ही वृद्धि फिर से जोर पकड़ेगी। यह आर्थिक सिद्धांत उस मंदी में पूरी तरह से खरा उतरता है जिसकी ओर 2020-21 में भारत बढ़ रहा है।

माननीय प्रधानमंत्री से मेरा विनम्र निवेदन है कि अपने मौजूदा आर्थिक सलाहकारों का पत्ता साफ कीजिए और नई टीम लाइए जो आपको ठोस सलाह देगी।

[इंडियन एक्सप्रेस में 'अक्रॉस दि आइल' नाम से छपने वाला, पूर्व वित्त मंत्री और कांग्रेस नेता, पी चिदंबरम का साप्ताहिक कॉलम। जनसत्ता में यह 'दूसरी नजर' नाम से छपता है। हिन्दी अनुवाद जनसत्ता से साभार।]

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