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भारतीय अर्थव्यवस्था का फेल होने का सबसे बड़ा कारण, सुनकर दंग रह जायेंगे!
गिरीश मालवीय
"अगर आप बैंक से 100 डॉलर कर्ज लेते हैं और चुका नहीं सकते हैं तो यह आपके लिए एक समस्या है, लेकिन अगर आप 10 करोड़ डॉलर कर्ज लेते हैं और चुका नहीं पाते हैं, तो यह आपके बैंक की समस्या है".
यह बात एक अमेरिकी पूंजीपति ने लगभग 100 साल पहले कहा था. जब हम भारत के संदर्भ में IBC कानून की बात कर रहे है तो यह बात हमे विशेष रूप से याद रखना चाहिए क्योंकि पिछले पाँच सालो में क्रोनी कैप्टिलिज्म का सबसे वीभत्स रूप यही देखा जा रहा है.
आश्चर्य की बात यह हैं कि कुछ लोग अभी भी यह नही समझते उन्हें मोदी अब भी एक उध्दारक की भूमिका में ही नजर आते हैं मेर एक प्रिय मित्र है सुभाष सिंह सुमन . वह इस सरकार को आर्थिक मोर्चे पर पूरे नंबर देते है इसके कारणों में सबसे पहले IBC यानी दिवाला एवं ऋणशोधन अक्षमता संहिता को गिनाते है .
इस मामले में पहले भी लिख चूका हूँ इसलिए उन्हें एक पोस्ट पर मेंशन किया था जिसके जवाब में उन्होंने एक पोस्ट लिखी है जो नीचे कमेंट बॉक्स में सलग्न है उस पोस्ट पर वह मेरी प्रतिक्रिया चाह रहे थे.
उन्होंने जो भी मुद्दे उठाए है उन मुद्दों का यहाँ तार्किक जवाब देने का प्रयत्न किया है वैसे यह सही है कि बहुत से मामले इस NLCT में निपटाए गए है लेकिन जिसके लिए यह कानून बनाने की बात की गयी थी वह 12 कर्जदारों के।मामले थे जिसमें 4 लाख करोड़ फसे होने की बात सामने आई थी. 2016 में आरबीआई ने बैंकों को ये निर्देश दिए थे कि वे 12 बड़े कर्जदारों का मामला नेशनल कंपनी लॉ ट्रीब्यूनल में ले जाएं. एनपीए की पहली सूची में शामिल बैंकों के बकाया 8 लाख करोड़ रुपये का करीब 25 प्रतिशत हिस्सा इन 12 कंपनियों पर बाकी था 2 साल बाद पता चला यानी आज पता चला है कि 3 लाख 45 हजार के कुल12 मामलो में से सिर्फ मामले ही सुलझा पाए है जिसमे मात्र 75 हजार करोड़ की ही वसूली हुई है . तो इस IBC पर सवाल तो उठेंगे ही .
बिजनेस स्टेंडर्ड की एक खबर बताती है कि विश्व बैंक के एक अनुमान में कहा गया है कि पुराने कानून के तहत दिवालिया मामले के समाधान में औसतन 4.3 वर्ष लगते थे और वसूली प्रत्येक डॉलर में 25.7 सेंट थी .
अब यहां भी दो साल पूरे होने को आए है और बड़े सिर्फ 6 मामले सुलझे है जबकि दिवालिया कानून के प्रावधानों के मुताबिक यह व्यवस्था की गई थी कि दिवालिया प्रक्रिया शुरू होने के छह महीने के अंदर ही इसे खत्म करना होगा। यदि किसी वजह से यह 180 दिन में पूरी नहीं हो पाती तो विशेष परिस्थितियों में 90 दिन की अवधि बढ़ाई जा सकती है। यानी बहुत से बहुत 270 दिन.
यानी यहाँ टाइम बचाने के लिए ही यह IBC कानून लाया गया जो अब और वक्त ले रहा है मतलब वह अपने सबसे प्राथमिक उद्येश्य को ही पूरा नही कर रहा है 32 प्रतिशत मामले 270 दिन से अधिक समय से लंबित हैं. तो हम इसे सफल कैसे कह सकते हैं?
किसी रिपोर्ट में यह भी पढ़ने में आया कि एक बड़े सीईओ ने अगस्त 2016 में भारत का नया दिवालिया कानून- ऋण शोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता आने पर बेहद खुशी जताई थी। .भारी फंसे कर्जों के तले दबे इस बैंक के सीईओ ने अपने एक बैंकर साथी से पूछा कि नए कानून के तहत फंसे कर्ज के निपटान में कितने दिन लगेंगे..
उस बैंकर का जवाब था- 1,800 दिन...
जवाब सुनकर वह CEO भौचक रह गए..
यह अवधि कानून के तहत निर्धारित समय से 10 गुना अधिक थी। निस्संदेह यह निराशाजनक रवैया तारीफ के काबिल नहीं था। अब ऋण शोधन अक्षमता एवं दिवालिया समाधान प्रक्रिया की प्रगति को देखते हुए सीईओ को अपनी राय बदल लेनी चाहिए और अपने साथी को 'भविष्यवक्ता' नाम देना चाहिए'.
दरअसल कानून बनाना पर्याप्त नहीं होता, क्या हम उसके लिए जरुरी इंफ़्रा दे पाए है यह भी देखना होगा. पाठक आश्चर्य करेंगे लेकिन यह सच है कि एनसीएलटी की मात्र 12 ही न्यायपीठ हैं एनसीएलटी में 62 सदस्यों की नियुक्ति की मंजूरी है। लेकिन अभी देशभर के एनसीएलटी में सभी मामलों की सुनवाई के लिए केवल 28 सदस्य हैं. जबकि दिवाला कानून के क्रियान्वयन और राष्ट्रीय कंपनी विधि न्यायाधिकरण (एनसीएलटी) के गठन के बाद से इसके तहत 12,000 मामले दायर किए गए है उस पर भी मोदी सरकार खाली पद नहीं भर पा रही है। इसलिए विशेष पीठों की योजना ठंडे बस्ते में चली गई हैं.
अपर्याप्त बुनियादी ढांचा उन बहुत से कारणों में से एक है, जिसकी वजह से मामला 180 दिन और कानून द्वारा निर्धारित 270 दिन की सीमा में निपट नहीं पाता है.
दुसरी बड़ी बात यह है कि, मोदी सरकार खुद अपने द्वारा बनाये गए कानून को फेल करती है. दरअसल इंसोल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड (आईबीसी) के तहत यह प्रावधान किया गया था कि यदि एक ऋणकर्ता तय तारीख तक पेमेंट नहीं करता है, तो ऋणदाता अगले दिन से ही दिवालियापन के खिलाफ होने वाली कार्यवाही की प्रक्रिया शुरू कर सकता है. ओर इस प्रक्रिया को व्यहवार में लाने के लिए भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (सेबी) ने लिस्टेड कंपनियों को आदेश दिया थे कि यदि वे ब्याज और लोन चुकाने में असफल रहती हैं, तो बात की जानकारी स्टॉक एक्सचेंज को देना अनिवार्य होगा. ओर इसकी जानकारी डिफॉल्ट करने के एक ही दिन के भीतर देने की बात थी। ये सारे प्रावधान जिस दिन से लागू किये जाने वाले थे उसके ठीक 1 दिन पहले सेबी ने एक सर्कुलर जारी कर कहा कि अब अगली सूचना तक लिस्टेड कंपनियों को लोन डिफॉल्ट की जानकारी स्टॉक एक्सचेंज को देना जरूरी नहीं होगा . ऐसा क्यो किया गया किसी को नही मालूम
हमे लगता हैं कि इंसोल्वेंसी एंड बैंककरप्सी कोड लाया ही इसलिए गया कि हजारों करोड़ के कर्ज डूबा कर बैठी कंपनियों को अडानी अम्बानी जैसे बड़े उद्योगपतियों को बेहद कम कीमत में बेच कर उन्हें अप्रत्यक्ष रूप से लाभ पुहचाया जाए और जनता को ठेंगा दिखा दिया जाए.
Insolvency and Bankruptcy Board of India की साइट में बताया गया है कि उन्होंने जो आलोक इण्डट्रीज का मामला सुलझाया है उसमे उन्हें मात्र 17 प्रतिशत ही डूबी रकम प्राप्त हुई है और यह कम्पनी मुकेश अम्बानी ने खरीदी है, एक साल पुरानी खबर बताती है कि आलोक इंडस्ट्रीज पर वित्तीय कर्जदाताओं का करीब 295 अरब रुपये बकाया था ओर मुकेश अम्बानी सिर्फ 50.5 अरब रुपये में आलोक इंडस्ट्रीज खरीद रहें है.
बैंक खुद इस कानून में लगते समय से परेशान हो गए है स्टेट बैंक ऑफ इंडिया (एसबीआई) ने 16 जनवरी को एस्सार स्टील इंडिया लिमिटेड को दिए 15,431.44 करोड़ रुपए के कर्ज की नीलामी का ऐलान किया है वह अपना पैसा लेकर जल्द से जल्द निकलना चाहते है लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा है.यानी कि जितनी बड़ी बड़ी बातें IBC कानून को लागू करते वक्त कही गयी थी वह पूरी नही हो पाई है. लेकिन तब समझदार ओर पढ़े लिखे लोग भी यह सब देख नही पा रहे हैं.
लेखक आर्थिक मामलों के जानकर है