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- मोपला आतंक के सौ साल
सर्वेश तिवारी श्रीमुख
बीसवीं शताब्दी में हिन्दुओं के जितने भी नरसंहार हुए हैं, उनपर मिट्टी डालने के लिए कांग्रेसी टुकडों पर पलने वाले पोसुआ इतिहासकारों और टुच्चे साहित्यकारों ने एक धूर्ततापूर्ण खेल खेला। वह खेल यह था कि अधिकांश नरसंहारों को हिन्दू नरसंहार न कह कर ब्राह्मण-नरसंहार कहा गया। चुकी एक तरफ प्रायोजित ढंग से ब्राह्मणों के प्रति अन्य हिन्दुओं के मन में घृणा भरने का लगातार प्रयास हो रहा था, तो यह उम्मीद थी कि हिन्दू नरसंहार को ब्राह्मण नरसंहार बता कर पेश करने पर सारे हिन्दू प्रतिक्रिया नहीं देंगे और आतंकी कुकर्मों पर पर्दा पड़ जायेगा। यह भी सत्य है कि वे धूर्त अपने काम मे आंशिक रूप से ही सही, पर सफल जरूर हुए।
उदाहरण के रूप में आप कश्मीरी हिन्दुओं के नरसंहार या मोपला नरसंहार को देख सकते हैं।
सच यह है कि मारा सभी हिन्दुओं को गया, पर धूर्तों ने जानबूझ कर पंडित शब्द पर फोकस किया। यही हुआ मालाबार में हिंदुओं के साथ हुए क्रूरतम अत्याचार के मामले में भी...
कल्पना कीजिये! एक आम गृहस्थ, जिसे न राजनीति से कोई खास मतलब था न धर्मिक मतभेदों से, उसके सामने उसकी पत्नी, उसकी बेटी के साथ अनेक लोग बलात्कार करें, और फिर उनकी छातियाँ नोच ली जाँय... उनका शरीर बकरियों की तरह फाड़ दिया जाय। बीस लोग यह घिनौना अपराध कर रहे हों और सैकड़ों खड़े हो कर तालियाँ बजाएं... और ऐसा केवल और केवल इसलिए हो क्योंकि वह परिवार हिन्दू है। घिन्न आ रही है न? नहीं आती तो आप राक्षस हैं...
यही हुआ मालाबार में। एक के साथ नहीं, लगभग दस हजार हिन्दुओं के साथ। एक दिन नहीं, लगभग एक वर्ष तक... और इसपर किसी को शर्म नहीं आयी।
मालाबार आतंक खिलाफत आंदोलन से ही जुड़ा था। वही खिलाफत आंदोलन जिसे गांधी जी प्रमुखता से चला रहे थे। मालाबार में खिलाफत आंदोलन से जुड़े नेताओं पर हिन्दुओं ने फूलों की बारिश की थी। गांधी जी ने हिन्दू मुश्लिम एकता के लिए केरल के उन हिन्दुओं से मुश्लिम नेताओं का रथ भी खिंचवाया था। एकता बनाने के लिए हिन्दुओं ने बैल बन कर रथ खींचा, नारे लगाए, और बदले में मिली तलवार... हत्या, बलात्कार, लूट, आगजनी... सैकड़ों गाँव फूंक दिए गए, लगभग 300 मन्दिर तोड़ दिए गए... और गांधी बाबा देखते रहे। बोले तो बस इतना, कि मैं इसका समर्थन नहीं कर सकता! मैं इस आंदोलन से हाथ वापस लेता हूँ।
आतंकियों के बीच अहिंसा का ध्वज उठाने वाले विपरीत परिस्थितियों में यूँ ही मुंह चुरा कर भागते हैं। वह भी जान बच जाय तब... गाँधी दिल्ली थे सो बच गए, हिन्दू मुश्लिम एकता के जितने पैरोकार हिन्दू मालाबार में थे, सब काट डाले गए।
और इस नरसंहार के पच्चीस पचास वर्ष बाद कांग्रेसी धूर्तों ने लिखना शुरू किया कि इस समय अधिकांश नम्बूदरी ब्राह्मणों की ही हत्या हुई थी।
सौ वर्ष बीत गए, पर आजतक उस क्रूर आतंक के लिए किसी सेक्युलर ने भी माफी नहीं मांगी।किसी ने भी उसे गलत नहीं बताया। बल्कि जब केरल में उनकी सत्ता आई तो उन्होंने उसे स्वतंत्रता आंदोलन घोषित कर दिया।
अहिंसा की गांधीवादी धारा ने सेक्युलरिज्म को स्थापित करने के लिए हिन्दू रक्त को पानी की तरह बहाया है साहब! मालाबार नरसंहार इसी का उदाहरण है। सम्भव हो तो इसे याद रखियेगा, वरना अकबर-बीरबल के किस्से तो हमें याद रहते ही हैं।
धर्म की जय हो...
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