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188 साल पहले बालाकोट में मारे गये थे 300 मुजाहिद्दीन

Special Coverage News
27 Feb 2019 4:45 AM GMT
188 साल पहले बालाकोट में मारे गये थे 300 मुजाहिद्दीन
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चलिये, बात करते हैं कट्टरपंथी सैयद अहमद बरेलवी और बालाकोट की लड़ाई की। सैयद अहमद बरेलवी मौजूदा उत्तरप्रदेश प्रांत के रायबरेली कस्बे का रहने वाला था। उसका जन्म 1786 में हुआ था और वह कट्टर धार्मिक प्रवृत्ति का व्यक्ति था।

राजेंद्र तिवारी

जैसे इस समय कश्मीर घाटी पर क़ब्ज़ा करने के लिए बालाकोट में आतंकी तैयार किये जा रहे थे, वैसे ही 188 साल पहले भी कश्मीर पर क़ब्ज़े की मंशा के साथ सैयद अहमद बरेलवी के नेतृत्व में मुजाहिद एकत्र हुए थे। उस समय भी सभी मुजाहिद मारे गये थे।

बालाकोट पर ख़ास

सन 1831 में बालाकोट में महाराजा रणजीत सिंह के सिख लड़ाकों ने सैयद अहमद बरेलवी समेत 300 से ज़्यादा मुजाहिदीन हलाक कर दिये थे। सैयद अहमद बरेलवी शुरुआती वहाबी जिहादी थे। इस लड़ाई में शाह इसमाइल शहीद भी मारा गया था जो इसलामी विद्वान था और अपने समय के बड़े इसलामी विद्वान शाह वली उल्लाह का पोता था। शाह वली उल्लाह ने ही अहमद शाह अब्दाली को भारत पर आक्रमण करने का न्योता दिया था। अब्दाली की मराठों से पानीपत में लड़ाई हुई थी जिसे इतिहास में पानीपत की तीसरी लड़ाई के नाम से जाना जाता है। शाह वली उल्लाह दक्षिण एशिया में शेख अहमद सरहिंदी के बाद इसलाम के सबसे सबसे बड़े विद्वान माने जाते थे। सिखों के पाँचवें गुरु श्री गुरु अर्जुन देव की शहीदी में शेख सरहिंदी का प्रमुख हाथ था।


चलिये, बात करते हैं कट्टरपंथी सैयद अहमद बरेलवी और बालाकोट की लड़ाई की। सैयद अहमद बरेलवी मौजूदा उत्तरप्रदेश प्रांत के रायबरेली कस्बे का रहने वाला था। उसका जन्म 1786 में हुआ था और वह कट्टर धार्मिक प्रवृत्ति का व्यक्ति था। दक्षिण एशिया में इसलामी राज्य स्थापित करना उसके जीवन का लक्ष्य था। इस लक्ष्य के लिए उसने इस क्षेत्र के काफ़िर राजाओं के ख़िलाफ़ जिहाद शुरू करने का फ़ैसला किया। इस तरह उसे दक्षिण एशिया का पहला जिहादी माना जा सकता है।

यह वह समय था जब मुगल साम्राज्य दिल्ली में सिमटा हुआ था। उस समय उत्तर में ईस्ट इंडिया कंपनी, पूरब में महाराजा रणजीत सिंह और पश्चिम-दक्षिण में मराठे ताक़तवर थे। इसके अलावा, देश के बाक़ी हिस्सों में सैकड़ों छोटे-बड़े राजे-महाराजे व नवाज राज कर रहे थे।

सैय़द अहमद जानता था कि अंग्रेजों के ख़िलाफ़ लड़ पाना मुश्किल है। अंग्रेज़ सैन्य मामलों में सुगठित व सुसज्जित थे और उनकी उत्तर भारत पर ज़बरदस्त पकड़ थी। इसलिए उसने मौजूदा पाकिस्तान के नॉर्थ-वेस्टर्न फ़्रंटियर प्रोविंस से जिहाद शुरू करने का फ़ैसला किया। उसकी योजना सिखों को हराने के बाद अंग्रेजों से मोर्चा लेने की थी। यह इलाक़ा मुसलिम बहुल होने के साथ-साथ मुसलिम देश अफ़ग़ानिस्तान से लगा हुआ था और यहाँ के लोग बहादुर लड़ाके माने जाते थे। उसे लगता था कि यहाँ उसे मुजाहिदों की सेना तैयार करने में आसानी होगी। सैयद अहमद पक्का इरादा करके सिंध, क्वेटा और कंधार होते हुए पेशावर पहुँचा। अपने इस मिशन पर जाने से पहले उसने अपनी दो बीवियों को टोंक रियासत के नवाब के पास छोड़ दिया। उसके साथ दिल्ली वाले शाह वली उल्लाह का पोता शाह इसमाइल भी था। पेशावर में उसने स्थानीय पठानों व ख़ानों के साथ लड़ाका गठबंधन बनाया। इन मुजाहिदों को लेकर उसने सिखों के ख़िलाफ़ अकोरा खटक व हाजरों में छोटी-मोटी लड़ाइयाँ भी लड़ीं। लेकिन इनसे उसे कुछ हाथ न लगा। चार-पाँच साल तक वह फ़्रंटियर प्रोविंस में घूमता रहा। इस दौरान उसने 46 साल की उम्र में चित्राल में ख़ुद से काफ़ी छोटी युवती फ़ातिमा से तीसरा विवाह कर लिया। 1831 में वह बालाकोट पहुँचा।

सिखों पर हमला करने की थी रणनीति

सैयद अहमद ने बालाकोट में सिखों पर हमला कर उनको हराने की रणनीति बनाई। उसने अपनी योजना की जानकारी टोंक के नवाब को लिखे एक पत्र में भी दी। यह पत्र 25 अप्रैल, 1931 को लिखा गया। पत्र में उसने लिखा, 'मैं पाखली के पहाड़ों में हूँ। यहाँ के लोगों ने हमारा गर्मजोशी से स्वागत किया, रहने की जगह दी और जिहाद में शामिल होने का आश्वासन भी दिया। फ़िलहाल मैं बालाकोट कस्बे में डेरा जमाए हुए हूँ। यह कस्बा कुनहर (नदी) दर्रे पर है। काफ़िरों की सेना यहाँ से बहुत दूर नहीं है। चूँकि बालाकोट तीन तरफ़ से पहाड़ों से घिरा है और एक तरफ़ नदी स्थित है, इसलिए इंशाअल्लाह काफिर यहाँ नहीं पहुँच पाएँगे। हमारी रणनीतिक स्थिति बहुत मज़बूत है और हम जब चाहें तब उन पर हमला कर सकते हैं। हम दो-तीन दिन में हमला करने की सोच रहे हैं। इंशाअल्लाह जीत हमारी ही होगी। अगर हम जीते तो कश्मीर समेत झेलम के आसपास का क्षेत्र हम क़ब्ज़ा कर लेंगे। आप हमारी जीत के लिए प्रार्थना करें।'

तब हरि सिंह गवर्नर थे

उस समय कश्मीर और फ़्रंटियर प्रोविंस की कमान महाराजा रणजीत सिंह के नुमाइंदे गवर्नर के तौर पर हरि सिंह के हाथ में थी। हरि सिंह बहुत चतुर और क्रूर प्रशासक था। उसकी सेनाएँ शेर सिंह के नेतृत्व में मुज़फ़्फ़राबाद में इंतज़ार कर रही थीं। सैनिकों की कुछ टुकड़ियाँ बालाकोट के पास नदी के इस तरफ़ मिट्टीकोट नाम की पहाड़ी के ऊपर पहुँच चुकी थीं। वहाँ से बालाकोट साफ़ दिखता था। सैयद अहमद इंतज़ार कर रहा था कि सिख सेना वहाँ से उतर कर हमला करने आएगी। उसने पहाड़ी के नीचे धान के खेतों में पानी भरवा दिया था कि सिख सैनिक बालाकोट आते समय इन दलदली खेतों में फँस जाएँगे और उस समय मुजाहिद उनको गाजर-मूली की तरह काट देंगे। लेकिन सिख भी कम होशियार न थे। वे इंतज़ार में थे कि जब मुजाहिद उनकी तरफ़ बढ़ेंगे, तब ही वे हमला करेंगे।

बालाकोट की लड़ाई में पहला मरने वाला मुजाहिद कौन?

6 मई, 1931 की तारीख़ थी। दिन था शुक्रवार। उस दिन एक अनोखी घटना हुई। मुजाहिद जिस समय सुबह का नाश्ता कर रहे थे, तभी उनमें से एक मुजाहिद सैयद चिराग अली (पटियाला निवासी) ने खीर खाने की इच्छा जताई। लेकिन खीर तो नाश्ते के मेन्यू में थी नहीं, तो चिराग अली ने कहा कि वह ख़ुद अपने लिए खीर पकाएगा। चिराग अली खीर की डेगची में करछुल चला रहा था और साथ मिट्टीकोट पर नज़र भी रखे हुए था। लेकिन एकाएक वह चिल्लाया, 'मुझे लाल रंग के कपड़े पहने हूर दिखाई दे रही है। हूर मुझे बुला रही है।' चिराग अली ने करछुल फेंक दिया और घोषणा की कि वह हूर के हाथों से ही खीर खाएगा। यह कहते हुए चिराग अली मिट्टीकोट की ओर दौड़ पड़ा। यह सब इतना एकाएक हुआ कि जब बाक़ी मुजाहिद माजरा समझ पाते, चिराग अली धान के खेतों के बीच पहुँच गया और वहाँ कीचड़ में फँस गया। मिट्टीकोट से सिख सैनिकों ने उसे अपनी बंदूकों को निशाना बनाकर मार गिराया। प्रचलित क़िस्से के मुताबिक़, बालाकोट की लड़ाई में चिराग अली पहला मरने वाला मुजाहिद था। इसके बाद मुजाहिदों में हड़कंप मच गया।

सैयद अहमद ने अपने लड़ाकों को हमला करने का आदेश दिया। मुजाहिद धान के खेतों में आगे बढ़े लेकिन वे दलदल में फँसते गये और सिख सैनिक उनको ढेर करते गये। 'अल्लाह-ओ-अकबर' और 'वाहे गुरु जी की फ़तह' के नारों के बीच लड़ाई पूरा दिन चली। सैयद अहमद व शाह इसमाइल समेत सभी मुजाहिद मार दिये गये। इस लड़ाई में क़रील तीन सौ मुजाहिद हलाक हुए। हालाँकि कुछ लोग यह संख्या 1300 बताते हैं।

क़रीब 188 साल बाद 26 फ़रवरी, 2019 को भारत के सर्जिकल हमले में उसी जगह पर फिर 300 के मारे जाने की ख़बर है।

(गुलाम रसूल मेहर लिखित किताब मुजाहिद-ए-कबीर और मुहम्मद खावस खान लिखित किताब रुदाद-ए-मुजाहिदीन-ए-हिंद में दी गईं जानकारियों पर आधारित)

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