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ट्रांसफर-पोस्टिंग विवाद में एक ब्राह्मण और एक दलित मंत्री की छटपटाहट
उत्तर प्रदेश सरकार में एकाएक तूल पकड़ चुके लोक निर्माण विभाग व स्वास्थ्य मंत्रालय के ट्रांसफर पोस्टिंग के बाद दो मंत्री बेचैन नजर आ रहे हैं। एक खुद लोक निर्माण विभाग के मंत्री जितिन प्रसाद और दूसरे राज्य मंत्री दिनेश खटीक। दिनेश खटीक ने तो इस्तीफा देने की घोषणा कर दी थी लेकिन उन्होंने अकलमंदी दिखाते हुए इस्तीफा गृहमंत्री को भेजा ना कि मुख्यमंत्री को क्योंकि उन्हें पता है कि गृहमंत्री को इस्तीफा भेजना से पद भी बचा रहेगा और नाराजगी भी पार्टी नेतृत्व के सामने आ जाएगी। दिनेश खटीक ने इस्तीफे के साथ गृहमंत्री को भेजे पत्र में सरकार पर दलित नेताओं की अपमान करने का गंभीर आरोप लगा दिया है जो पार्टी के लिए चिंता का विषय हो सकता है। भले ही मुख्यमंत्री से मिलकर दिनेश खटीक ने मामला सही कर लिया है लेकिन एक दलित मंत्री के इतनी मुखरता के साथ सरकार पर ऐसा जातिवादी इलजाम लगना भी गंभीर विषय है। इसके साथ ही लोक निर्माण विभाग के मंत्री जितिन प्रसाद जो ब्राह्मण हैं उनके साथ भी पिछले दिनों जो कुछ हुआ वह भी कम गंभीर नहीं है। उनके मंत्रालय में हुए स्थानातंरणों को लेकर उनके ऊपर भी सवाल उठ रहे हैं। प्रत्यक्षदर्शियों का कहना है कि जब मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने उन्हें पंचम तल पर तलब किया था तब उनके हौश उड़े हुए थे। लेकिन जितिन प्रसाद ने अब तक इस मामले में खुलकर कुछ नहीं कहा जबकि दिनेश खटीक ने अपने मंत्रालय में उनकी ना सुनी जाने तथा दलित होने की वजह से नजरंदाज किए जाने के आरोप खुलकर सरकार पर लगा दिए हैं।
एक दलित और ब्राह्मण के साथ होने वाले यह नाटकीय प्रकरणों से राज्य की राजनीति में फिर दलित व ब्राह्मण के कमजोर होने की चर्चा गरम हो गई है। भारतीय जनता पार्टी में मुसलमान तो पहले ही से हाशिये पर रहते थे लेकिन चर्चा है कि अब भाजपा की भविष्य की राजनीति पिछड़ी जातियों पर आधारित होगी। उत्तर प्रदेश में दलित-ब्राह्मण-मुसलमान तीनों समुदाय भाजपा की सरकार के चलते धीरे धीरे हाशिए पर जा रहे हैं। हालांकि भाजपा हिंदुत्ववादी राजनीति करने का दावा करती है लेकिन सरकार में लगातार ऐसे कदम उठाए गए जिससे इस बात को बल मिलता है कि भाजपा अब ब्राह्मण और दलितों को कोई अहमियत देने की पक्ष में नहीं है। राज्य के सबसे बड़े वोट बैंक पिछड़ी जातियों जो पहले ही भाजपा का सबसे मजबूत वोट बैंक रहा है पर ही फोकस कर अपनी बुनियाद मजबूत रखना चाहती है।
अब सवाल यह पैदा होता है कि गैर पिछड़ा वोट बैंक भाजपा से जुड़ा रहेगा या छिटकेगा। इसके जवाब में राजनीति के माहीरीन कहते हैं कि भाजपा का हिंदूवादी एजेंडा गैर पिछडे हिंदुओं यानी ब्राह्मण और दलितों व अन्य सवर्णों को भाजपा से बांधे रखेगा। हालांकि दलित चिंतकों का कहना है कि दलितों को बरगलाकर भाजपा ने अपने साथ लगाया था और वह बहुत जल्दी भाजपा से अलग होकर अपना रास्ता निकाल लेंगे। लेकिन उनके सामने भी सबसे बड़ा सवाल यही है कि आखिर वह जाएंगे कहां। दलितों की सबसे बड़ी पार्टी बसपा की प्रमुख मायावती ईडी और सीबीआई से इतनी भयभीत हैं कि बहुत हिम्मत जुटाने के बाद भी उसे भाजपा से डरना ही पड़ता है। इस स्थिति में बसपा भी शायद दलितों की पहली और मजबूत पसंद बन सके। यही असमंजस की स्थिति ब्राह्मण समुदाय की है। ब्राह्मण समुदाय भी भाजपा के साथ रहना तो नहीं चाहता लेकिन विकल्पहीनता तथा उसके हिंदूवादी एजेंडा से कुछ प्रभावित होकर भाजपा से चिपका रहना भी उसकी मजबूरी है।
भाजपा को भी इन सभी वर्गों की मजबूरी पता है कि इन सब के पास कोई विकल्प नहीं है इसलिए चिंता करने की भी आवश्यकता नहीं है। लेकिन भाजपा सरकार में यदि दलित और ब्राह्मणों के साथ ऐसी ही घटनाएं बढ़ती रही तो हो सकता है कि यह छटपटाहट कुछ नये राजनीतिक समीकरण बनाने या किसी दल के उभरने में कारगर साबित हो सके। भारतीय जनता पार्टी आगामी लोकसभा चुनाव में 400 सीटों को जीतने का लक्ष्य निर्धारित कर चुकी है लेकिन देश के सबसे महत्वपूर्ण और बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में घट रही ये राजनीतिक घटनाएं उसके लक्ष्य प्राप्ति में बाधा बन सकती हैं। भारतीय जनता पार्टी के सामने एक साथ कई चुनौतियां हैं। एक बड़े लक्ष्य को हासिल करने के लिए एक बड़े वोटबैंक का अपने साथ बनाए रखना खुद एक बड़ी चुनौती है।
दूसरी चुनौती है देश में बढ़ी सांप्रदायिक बहसों जो खुद भाजपा ने ही शुरू की थी उन्हें कम करना क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देश की छवि को नकारात्मक बनाने में सांप्रदायिक माहौल के साथ साथ भाजपा भी जिम्मेदार है। लखनऊ में लूलू मॉल प्रकरण के बाद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का सांप्रदायिकता के खिलाफ कड़ा बयान देना दर्शाता है कि भाजपा सांप्रदायिकता से दामन बचाने की कोशिश में मसरूफ है। हैदराबाद में हुए पार्टी सम्मेलन में पिछड़े मुसलमानों को साथ लेने की घोषणा और उसका सांप्रदायिक एजेंडा साथ साथ नहीं चल सकते। भाजपा की सबसे बड़ी चुनौती यही है कि बिना ध्रुवीकरण किए बिना चुनाव जीतना उसके लिए मुश्किल हो सकता है। पार्टी नेतृत्व को इन सब बिंदुओं पर गौर कर आगे बढ़ना चाहिए नहीं तो आगामी लोकसभा चुनाव में 400 सीटें जीतना एक सपना ही बनकर रह जाएगा।