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लघुकथा इतिहास के विशालतम ई-संकलन "हिंदी के प्रमुख लघुकथाकार" के बहाने चंद बातें
अनिल शूर आज़ाद
गत चार दशक से हिंदी लघुकथा के साथ जुड़ाव के नाते मेरा अनुभव है कि वर्ष 1960-65 से आरंभ हुई 'आधुनिक हिंदी लघुकथा' विकास के कई सोपान पार कर अब, एक अपेक्षाकृत 'कम्फर्टेबल जोन' को अंगीकृत कर चुकी है। विशेषतया हाल के सात-आठ वर्षों में आई 'सोशल मीडिया क्रांति' ने इसमें विशिष्ट भूमिका निभाई है। नित्य नए फेसबुक व व्हाट्सएप समूहों, ऑनलाइन गोष्ठियों, एकल प्रस्तुतियों एवं प्रतियोगिताओं आदि ने इसमें सराहनीय योगदान दिया है। गत तीन-चार वर्ष से तो एक नई शुरुआत के रूप में ई-लघुकथा संकलन भी सामने आने लगे हैं। इस संदर्भ में हरियाणा के पानीपत निवासी बीजेंद्र जैमिनी का नाम विशेष उल्लेखनीय है जो वर्ष 2018 से सतत इस कार्य में जुटे हैं तथा अबतक हरियाणा, राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र, झारखंड जैसे राज्यों के अतिरिक्त दिल्ली, भोपाल जैसे नगरों तथा महिला लघुकथाकारों पर केंद्रित ई-लघुकथा संकलन सामने ला चुके हैं। इनके संपादन में आए दर्जनाधिक ई-संकलनों में सर्वाधिक अहम ई-संकलन "हिंदी के प्रमुख लघुकथाकार" है। यह महत्वपूर्ण इसलिए है कि इसमें देशभर से चयनित एक सौ एक लेखकों की ग्यारह-ग्यारह अर्थात कुल एक हजार एक सौ ग्यारह लघुकथाएं - रचनाकारों के चित्र तथा विस्तृत परिचय सहित शामिल की गई हैं। यद्यपि पचास-साठ प्रतिशत लघुकथाओं के स्तर पर सवाल उठ सकते हैं। लेकिन अपनी श्रेणी ई-संकलन तथा छपी पुस्तकों में यह अबतक का सर्वाधिक विशाल संग्रह अवश्य है - इसका श्रेय बीजेंद्र भाई को जरूर दिया जाना चाहिए। (क्रमांक 84 पर, मेरी भी ग्यारह लघुकथाएं इसका हिस्सा बनी हैं, एतदर्थ आभार!)
इसी क्रम में 'विश्व भाषा अकादमी' संस्था से जुड़े राजस्थान के उदयपुर निवासी डॉ चंद्रेश कुमार छतलानी द्वारा संपादित ई-संकलन भी सामने आया है। इसकी अधिकांश लघुकथाएं सशक्त भी हैं। लेकिन इसका कोई शीर्षक न रखा जाना जरूर अखरता है। बीस-पच्चीस वर्षों के बाद ऐसे 'अनाम' संकलनों को रेखांकित करने में कठिनाई हो सकती है। अतः इसे ध्यान में रखते हुए इनका शीर्षक, वर्ष, लेखक/संपादक, पूरा पता आदि इनपर अंकित होने जरूरी हैं। ऐसा ही एक सदप्रयास सम्पदकद्वय सुकेश साहनी एवं रामेश्वर कांबोज हिमांशु अपनी उच्चस्तरीय ई-पत्रिका मासिक 'लघुकथा डॉट कॉम' के माध्यम से जारी रखे हुए हैं।
हाल के वर्षों में लघुकथा परिदृश्य पर जिस तरह भाई योगराज प्रभाकर के संपादन में पंजाब के पटियाला से निकलने वाली लघुकथा कलश, डॉ कमल चोपड़ा के संपादन में संरचना, डॉ उमेश महादोषी के संपादन में 'अविराम सहित्यिकी' तथा कांता राय के संपादन में 'लघुकथा वृत' जैसी पत्रिकाएं तेजी से उभरी हैं। इनपर विहंगम दृष्टि डालने से सुखद अहसास होता है कि विधा के प्रतिष्ठित केंद्रों से इतर नए केंद्र एवं नायक भी सामने आ रहे हैं। यह सुखद है कि नेतृत्व अब पुरानी से नई पीढ़ी तथा अभिजात्य से साधारण की ओर हस्तांतरित होता प्रतीत हो रहा है जो आश्वस्त करता है कि नए और सक्षम नेतृत्व में जनसाधारण के बीच लघुकथा विधा की स्वीकार्यता "और अधिक बढ़ना" भी तय है। सुस्वागतम!■
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आधुनिक हिंदी लघुकथा शोधपीठ, नई दिल्ली के सौजन्य से प्रस्तुत।