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- बीसवीं सदी के क्षितिज...
विद्याभूषण :
हर सुबह सूरज आता है और दिन ढलने पर लौट जाता है। लेकिन कभी कभी मौसम और प्रकृति के नियमन का अतिक्रमण करने वाला दिनकर भी आता है जो लौट जाने के बाद भी अपने उजाले से आदमी के मन-आंगन को आलोकित करता रहता है।
विरासत के बड़े नामों के काम को आंकते हुए अक्सर विशेषणों का उपयोग बटखरों की तरह किया जाता है। प्रायः ऐसे शब्द चुने जाते हैं जिनसे उपलब्धियों की दिशा, महत्व और विलक्षणताएं प्रतीकित हो जायें। आज की तारीख में इकहरे अर्थ देने वाले तमाम शब्द आधे-अधूरे रह गये हैं चूंकि किसी बहुमुखी कृतिकार की विविधता और व्यापकता को रेखांकित करने के लिए वे अलम नहीं हैं। दिनकर जी की शतवार्षिकी पिछले साल मनायी जा चुकी है तो भी सामयिक इतिहास में उनकी सही जगह पर विमर्श करते हुए यह दिक्कत बारबार होती है। उनकी इन्द्रधनुषी रचनाशीलता कई क्षेत्रों में एक साथ सम्मान्य हुई है। वे सिर्फ अप्रतिम कवि नहीं थे। उन्होंने साहित्य की कई विधाओं में जितने परिमाण में लिखा, उसका बड़ा भाग हमेशा सुर्चिर्चत होता रहा, और साहित्य के दायरे से बाहर जाकर भी जो कुछ लिखा, उसे भी ऐतिहासिक महत्व का माना गया।
याद कीजिए कि सन 1958 में साहित्य अकादमी पुरस्कार के लिए उनकी चयनित पुस्तक थी 'संस्कृति के चार अध्याय'। यह याद करना भी रोचक है कि 'राष्ट्रकवि' दिनकर को सन 1973 में जब ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला तो उसकी कसौटी 'उर्वर्शी' बनी थी, नकि 'हुंकार', 'रेणुका', 'रश्मिरथी या 'कुरुक्षेत्र'। यह याद करना भी दिलचस्प है कि 'जनता और जवाहर' और 'परशुराम की प्रतीक्षा' दोनों एक ही दिनकर की कृतियां हैं। इन दृष्टान्तों को रखने का अभिप्राय सिर्फ यह है कि दिनकर विशेषणों की लड़ियों से नहीं बांधे जा सकते चूंकि उनके काम के दायरे और मिजाज दोनों में कई रंगों, खुशबुओं और पहलुओं का निवेश हुआ था। उनकी कोई इकहरी छवि उनकी समग्र छवि के फ्रेम के सामने नहीं टिक सकती। वे अपनी हदों को तोड़ते रहे हैं, और आत्मनिर्मित घेरे से भी विमुक्त होते रहे हैं।
उनकी कविताओं के रुझान क्रमशः बदलते रहे हैं, तो गीतों-प्रगीतों की अन्तर्वस्तु भी बदलती गयी है। इसी तरह पुराण कथाओं का नवोन्मेष करते हुए उन्होंने बड़े फलक की जो प्रबन्धात्मक रचनाएं लिखीं, उनके विषय-क्षेत्र और यक्ष प्रश्न-प्रतिप्रश्न भी बदले हैं। उनकी मान्यताओं को विचार-यात्राओं के प्रतिफल के रूप में देखा जा सकता है। हिंसा-अहिंसा, सत्ता-प्रतिपक्ष, अधिकार-संघर्ष, परम्परा-आधुनिकता, राष्ट्रीयता-अन्तरराष्ट्रीयता जैसे अनेक बुनियादी सवालों पर उनका विमर्श-समाहार विचार आलाड़नों की निरन्तरता का संदर्भ जुटाता है। राष्ट्रवादी, गांधीवादी, मार्क्सवादी, मानवतावादी, उदार समन्वयवादी, स्वतंत्र विचारवादी जैसे शब्दों की मदद से जब उनके व्यक्तित्व के इस वा उस पक्ष को समझने-समझाने की चेष्टाएं की जाती हैं तो निस्संदेह भ्रम की स्थिति बन जाती है। इसी तरह रचनाओं के शिल्प-सांचों के लिहाज से भी उनके शब्द संसार में पर्याप्त वैविध्य मौजूद है। साफ है कि वे सृजन और विचार दोनों स्तरों पर निरन्तर गतिशील और अन्वेषी रहे हैं।
दिनकर के पक्ष-विपक्ष में लिखा गया साहित्य भारी मात्रा में सुलभ है, तो भी समग्रता में विचार करें तो कई अचीन्हे पहलुओं की ओर ध्यान जायेगा। वाम खेमे में उनकी छवि सत्ता समर्थक रही है। स्मरणीय है कि दिनकर कांग्रेस पार्टी से न केवल जुड़े व्यक्ति थे, बल्कि उन्हें पार्टी और सरकार की ओर से महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां दी गयी थीं। राज्य सभा, गृह मंत्रालय के तहत केन्द्रीय हिन्दी सलाहकार, विश्वविद्यालय कुलपति आदि। हिन्दी आलोचना के मठाधीशों ने श्रीकान्त वर्मा और दिनकर के मूल्यांकन करते हुए उनके इस पहलू को जरूरत से कहीं ज्यादा वजन दिया। शायद सत्ताविरोधी होना अपने आप में कोई पोजीटिव एप्रोच नहीं हो सकता, तो भी जनपक्षरता की वह न्यूनतम गांरंटी जैसी बन चुकी है। यह अलग बात है कि इस लोकतांत्रिक देश में कई राज्य सरकारें वाम दलों की राजनीति पर केन्द्रित हैं और यह नहीं कहा जा सकता कि जनवादी कलमकार उनके विरोध की भूमिका में खड़े हैं।
यह वास्तविकता है कि दिनकर को जितना मान-सम्मान विश्वविद्यालय परिसर और पाठकों के बीच मिला, उसका आधा भी आलोचकों द्वारा नहीं मिला। इसके बावजूद वे अपने समय और पीढ़ी के अकेले कवि हैं जिनकी पंक्तियों को आन्दोलनों और सभाओं में बारबार दुहराया गया है। उन्होंने समय और समाज के, वर्तमान और इतिहास के, शोषित जनों और वंचित वर्गों के बारे में लिखते हुए अपनी परिवर्तनकामी जीवन दृष्टि का प्रमाण दिया। इसलिए देहावसान के छत्तीस वर्षों बाद आज उनको याद करते हुए उनकी भूमिका एक टोही विमान सरीखी दिखती है जिसने बीसवीं सदी के आत्मसंघर्ष को अपना इंधन बनाया था।