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- ऐक्सीडेंटल पीएम के जो...
संजय कुमार सिंह
मनमोहन सिंह को सुषमा स्वराज और उमा भारती ने प्रधानमंत्री बनवा दिया। अगर ये दोनों (अपनी पार्टी के साथ) सोनिया गांधी का विरोध नहीं करतीं तो मनमोहन सिंह ने ना प्रधानमंत्री बनने के लिए आवेदन किया था ना शपथग्रहण में बुलाने के लिए विश्व नेताओं की सूची बनाई थी। भले कहा जाए कि मंत्रिमंडल सोनिया गांधी से पूछ कर बनाया था पर उनके समय में रक्षा मंत्री वित्त मंत्री का काम नहीं करता था और गृहमंत्री सूट बदलता दिखा तो मंत्री बदलने में समय नहीं लगा। पार्टी का कोषाध्यक्ष मंत्री नहीं बना। फिर भी खुद के गरीब होने का ढोंग नहीं किया ना कुर्सी मिलने के बाद डिजाइनर सूट पहने ना दोबारा जीतने के लिए लंबी-लंबी फेंकी।
यही नहीं जब झूठे आरोप लगाए गए तो और जब अपमानित करने वाली बातें की गईं तो भी ना तिलमिलाए ना झल्लाए ना अलबलाए। हमेशा की तरह मस्त रहे। जवाब देने की जरूरत नहीं समझी और ना 18 घंटे मेहनत करने का दावा किया। उन्हें ना योगा का प्रचार करना था ना स्मार्ट सिटी बनाने थे। ना अपना फोटो सूट कराना था। ना वो यह दावा कर सकते थे कि अनपढ़ हूं फिर भी लोकतंत्र के भरोसे सबसे ऊंची कुर्सी तक पहुंच गया। वो जानते थे कि कैसे पहुंचे। किसलिए पहुंचे। और वह किसी के कहने से नहीं बदलेगा। इसीलिए वे देश को 70 साल में पहली बार आरटीआई जैसा कानून दे पाए। जो सबसे ईमानदार की डिग्री से लेकर वैवाहिक स्थिति तक की पोल खुलवा गया। रेनकोट पहनकर नहाने के आरोप पर भी नहीं बोले और ना कंडोम गिनने वालों से परेशान हुए।
प्लंडर को ब्लंडर समझने वालों से वो बोलते भी क्या? और प्रधानमंत्री बनना उनके लिए इतना साधारण रहा कि सुषमा स्वराज को मजाक में भी (सार्वजनिक रूप से) धन्यवाद नहीं कहा। जो उन्हें जरूर कहना चाहिए था। उनके पास खोने के लिए कुछ नहीं था फिर भी काम कायदे से हो इसके लिए मीडिया सलाहकार रखा और 56 ईंची सीना होने का दावा भले नहीं किया, प्रेस कांफ्रेंस जरूर की। पाकिस्तान को भले 'लव लेटर' लिखते रहे पर बिन बुलाए कभी पाकिस्तान भी नहीं गए। और आरोप भले लगा कि विदेश दौरे पर पत्रकारों को घुमाने ले जाते हैं पर इसलिए ले जा सके कि उन्हें इस बात से दिक्कत नहीं थी कि साथ जाने वालों का नाम उजागर हो।
पत्रकारों को विदेश नहीं ले जाने और जिसे ले गए उसका नाम नहीं बताने का पाखंड उन्होंने नहीं किया। उनके ना कोई मेहुल भाई थे और ना मां ऑटो में चलती थीं। वे बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का नारा नहीं लगाते थे क्योंकि उनकी बेटियां ऐसे नारों और इसकी जरूरत से बहुत पहले से बहुत आगे हैं। अव्वल तो उनपर भ्रष्टाचार का कोई कायदे का आरोप लगा नहीं और जो लगा वह साबित नहीं हुआ। वे ना जांच से भागे ना जेपीसी से डरे ना किसी का प्रचार किया ना प्रचार करके अपनी कीमत पांच सौ रुपए लगवाई। बिना झूठ बोले, बिना ब्रांड बने, बिना किसी को नीचा दिखाए, बिना किसी धनपशु का साथ लिए और किसी सी प्लेन का प्रदर्शन किए बिना 10 साल कुर्सी पर रहे। ना जोर से बोले, ना रोए, ना कोई उनकी हत्या की साजिश करते पकड़ा।