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"भइया, ये चांद पर जाने की ज़रूरत क्या है? क्या और समस्याएं नहीं है दुनिया में जिस पर वैज्ञानिक रिसर्च कर सकें?
शनीचर की दोपहर चौराहे पर अप्रत्याशित सन्नाटा था। मोटी मोटी बूंदें बरसते बरसते क्षितिज के हलक में अटक गई थीं। उनकी प्रतिक्रिया में धरती धुआं छोड़ रही थी लेकिन धुआं कहीं दिखता नहीं था। जो एकाध मनुष्य चांद पर नहीं जा पाए थे, वे सड़क पर बौराए टहल रहे थे और देह से बेतरह पसीना छोड़ रहे थे। ऐसे में डबलू अपने बेसिक मोबाइल फोन को एक कान से दूसरे कान पर शिफ्ट करते हुए उसके भीतर पसीना घुसने से किसी तरह रोके हुए था।
मुझे देखते ही उसने जिज्ञासा का ब्रह्मोस मारा - "भइया, ये चांद पर जाने की ज़रूरत क्या है? क्या और समस्याएं नहीं है दुनिया में जिस पर वैज्ञानिक रिसर्च कर सकें? बताइए, जनता कितनी परेशान है!" मुझे झटके में लगा कि चांद पर न पहुंच पाने की यह निजी खुन्नस है, फिर मुझे लगा कि हो सकता है इसने शाखा जाना छोड़ दिया हो। मैंने हां में हां मिलाई और पूछा - "और समस्याएं, जैसे क्या?"
उसको इसी सवाल का इंतजार था। बोला - "अब देखिए, कितना पसीना हो रहा है। हवा एकदम रुकी हुई है! आखिर बरसात में हवा क्यों नहीं चलती? बताइए, आप तो पढ़े लिखे हैं?" मैंने कहा - "डबलू भाई, हम समझे नहीं। बिना हवा के हम ज़िंदा कैसे है? हवा है तभी तो?" उसने मेरा पहला वाक्य उठाया - "आप समझे नहीं। अगर गर्मी में हवा चलती है, सर्दी में चलती है तो बारिश के मौसम में क्यों नहीं चलती? क्या इस पर रिसर्च नहीं करना चाहिए वैज्ञानिकों को? जनता का भी भला होगा। चांद पर जाकर क्या फायदा?"
बात तो खालिस सौ टके की थी। मैं सोचने लगा। उसने मुझे चिंतित देख कर मेरे मुंह पर चंद्रयान दे मारा - "अच्छा ये बताइए, चांद पर भी बारिश का मौसम होगा? वहां हवा चल रही होगी या नहीं? इतना तो कम से कम पता चल ही जाएगा इस बार!" मैं कुछ नए सिरे से सोचता उससे पहले उसने सांत्वना देते हुए कहा, "जाने दीजिए, मैं ज़्यादा पढ़ा लिखा नहीं हूं लेकिन सवाल मेरे भी मन में आता है कभी कभी। बुरा मत मानिएगा। आप कोई वैज्ञानिक थोड़ी हैं! वो तो मैं ऐसे ही...!"
(लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार है और उनकी फेसबुक वाल से लिया गया है)