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क्‍या वो दिन भी दिन हैं जिनमें दिन भर जी घबराए, क्‍या वो रातें भी रातें हैं जिनमें नींद ना आए

Desk Editor
24 Sept 2021 7:28 PM IST
क्‍या वो दिन भी दिन हैं जिनमें दिन भर जी घबराए, क्‍या वो रातें भी रातें हैं जिनमें नींद ना आए
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मस्जिद तो अल्लाह की ठहरी, मंदिर राम का निकला लेकिन मेरा लावारिस दिल, अब जिस की जंबील में कोई ख़्वाब, कोई ताबीर नहीं है

इसे आपको पढ़कर बेचैनी होगी,जैसे बस अभी गुज़री रात बेचैनी में मेरे सामने करवट बदल रही थी और खोज रही थी कुछ पते । मेरे पास ज़्यादतर के पोस्टल एड्रेस थे मगर एक नही था। तमामदोस्त,रिश्तेदार,हिन्दू,मुस्लिम,ठाकुर,पण्डित,दलित,अगड़े,पिछड़े,अपने,पराए सबके पोस्टल एड्रेस थे मगर नही था तो हिंदुस्तान का।मेरा हिंदुस्तान जिसकी पहचान ख़ालिस हिन्दोस्तानी हो।जिसमे मज़हब,ज़ात,रँग न हो,तड़प कर मुझे उस शख्स की याद आ गई,जो ज़िन्दगी भर बेचैन बेचैन हमारे हिंदुस्तान का पोस्टल एड्रेस को ढूंढता हुआ पता नही कहाँ चला गया।उसकी याद में जैसे ही लिखने की सोचा की गुज़री रात का चाँद आँखों के सामने आ गया।मेरी नज़र धुन्धला गई।ऐसे में उनके ही लफ़्ज़ मेरी ज़ुबां पर तैरते रहे,आज बहुत से लोग इस ज़मीन से दूर ईद मना रहे होंगे,तो चाँद उन्हें ऐसे ही तो लगरहा होगा......

"हम तो हैं परदेस में, देस में निकला होगा चाँद

अपनी रात की छत पर, कितना तनहा होगा चाँद

रात ने ऐसा पेंच लगाया, टूटी हाथ से डोर

आँगन वाले नीम में जाकर, अटका होगा चाँद

चाँद बिना हर दिन यूँ बीता, जैसे युग बीते

मेरे बिना किस हाल में होगा, कैसा होगा चाँद।।"

यह अल्फ़ाज़ उनके हैं जिसने दिल पर हाथ रखा तो वोह लफ्ज़ निकाले की दुनिया देखती रही।जिसने आँख में आँख डाल कर वोह लिख दिया जिसे हम सोच भी नही पाए।भारत का कोई भी शख्स बचा होगा जिसने उसके क़लम को महसूस न किया हो।नीम का पेड़,आधा गांव, दिल एक सादा कागज, ओस की बूंद, हिम्मत जौनपुरी, कटरा बी आर्ज़ू, टोपी शुक्ला, ओस की बूंद, सीन ७५,छोटे आदमी की बड़ी कहानी,लिखने वाले कलम के मज़बूत स्तम्भ की बात कर रहा हूँ। मैं प्रथम स्वतंत्रता संग्राम-1857 पर महाकाव्य लिखने वाली उँगलियों की बात कर रहा हूँ । अब भी नही समझे।अर्रे वही जिनके लिखे लफ्ज़ घर घर में दोहराये या कहें पूजे जाते थे। महाभारत के डायलॉग लिखने वाले ग़ाज़ीपुर,यूपी के छोटे से गाँव गंगौली में पैदा हुआ राही मासूम रज़ा की बात कर रहा हूँ।मैं राही पर लिखने को तैयार बैठा था मगर क्या करूँ,उनमे उलझता ही चला गया।अपनी मामूली सी कलम में राही को उतारने की कोशिश करनी चाही,मगर लगा यह तो बेईमानी है।जब आपसे राही की बात करूँ तो राही केही अल्फाज़ो के साथ करूँ ताकि आप उन्हें महसूस कर सकिये।राही के इन अल्फाज़ो में सौंधी खुशबु और दिल में चुभी टीस को महसूस कीजिये...

"क्‍या वो दिन भी दिन हैं जिनमें दिन भर जी घबराए

क्‍या वो रातें भी रातें हैं जिनमें नींद ना आए।

हम भी कैसे दीवाने हैं किन लोगों में बैठे हैं

जान पे खेलके जब सच बोलें तब झूठे कहलाए।

इतने शोर में दिल से बातें करना है नामुमकिन

जाने क्‍या बातें करते हैं आपस में हमसाए।।

हम भी हैं बनवास में लेकिन राम नहीं हैं राही

आए अब समझाकर हमको कोई घर ले जाए ।।

क्‍या वो दिन भी दिन हैं जिनमें दिन भर जी घबराए ।"

अगर बोर न हो रहे हों।तबियत ऊब न रही हो तो इन अल्फाज़ो में छुपे राही को भी लपक लीजिये।इन्हें इसकी सिलवटों में ढूंढ लीजिए।साथ ही देखिये हमारे राही ने कौन सी राह बनाई है।उस राह में कौन फूल है।कौन कांटा है।कौन उस राह को रोक रहा तो कौन उस राह को बना रहा।....

"मस्जिद तो अल्लाह की ठहरी

मंदिर राम का निकला

लेकिन मेरा लावारिस दिल

अब जिस की जंबील में कोई ख़्वाब

कोई ताबीर नहीं है

मुस्तकबिल की रोशन रोशन

एक भी तस्वीर नहीं है

बोल ए इंसान, ये दिल, ये मेरा दिल

ये लावारिस, ये शर्मिन्दा शर्मिन्दा दिल

आख़िर किसके नाम का निकला

मस्जिद तो अल्लाह की ठहरी

मंदिर राम का निकला

बन्दा किसके काम का निकला

ये मेरा दिल है

या मेरे ख़्वाबों का मकतल

चारों तरफ बस ख़ून और आँसू, चीख़ें, शोले

घायल गुड़िया

खुली हुई मुर्दा आँखों से कुछ दरवाज़े

ख़ून में लिथड़े कमसिन कुरते

एक पाँव की ज़ख़्मी चप्पल

जगह-जगह से मसकी साड़ी

शर्मिन्दा नंगी शलवारें

दीवारों से चिपकी बिंदी

सहमी चूड़ी

दरवाज़ों की ओट में आवेजों की कबरें

ए अल्लाह, ए रहीम, करीम, ये मेरी अमानत

ए श्रीराम, रघुपति राघव, ए मेरे मर्यादा पुरुषोत्तम

ये आपकी दौलत आप सम्हालें

मैं बेबस हूँ

आग और ख़ून के इस दलदल में

मेरी तो आवाज़ के पाँव धँसे जाते हैं।"

ऐ राही,मेरे राही मासूम रज़ा मुझे माफ़ करना,आपके साथ अपने अल्फ़ाज़ को जोड़ने की गुस्ताखी की है।आज आपकी सालगिरह पर मैं करूँ तो क्या करूँ।चाह रहा हूँ की पूरा का पूरा आपको पढ़ डाले।चाहत है आप पर सब लिख डाले।राही मैं महाभारत के संजय की तरह आपकी पूरी कहानी कह देना चाहता हूँ मगर आप विशाल हैं, विराट हैं और हाँ मैं कोई राही तो नही की इतनी विशालता को इतने आसान लफ़्ज़ों में उतार लूँ।बस राही हमेशा की तरह जिन्दगी की राह भर साथ रहिएगा,ताकि आपकी समझ से और अपनी आँखों से खूबसूरत भारत देख और जी पाऊँ और राही आपके मन का भारत बना पाऊँ....

- अज्ञात


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